देहरादून: नरेंद्र सिंह नेगी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले में हुआ. उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई पौड़ी से ही की. पांच बहनों और दो भाइयों के परिवार वाले नरेंद्र सिंह नेगी को गाने की प्रेरणा बैसाखी के बाजुबंद और झुमैलो जैसे लोकगीतों से मिली. इन्हीं गीतों को गुनगुनाते हुए वो बड़े हुए.
पढ़ाई पूरी करने के बाद नरेंद्र सिंह नेगी की संगीत में रुचि को देखकर उनके बड़े भाई ने तबला बजाना सिखाया. 1974 में उन्होंने अपना पहला गीत लिखा और संगीतबद्ध किया. 1976 में आकाशवाणी लखनऊ से नरेंद्र सिंह नेगी का पहला गीत प्रसारित हुआ. इससे उन्हें नई पहचान मिली.
अपने गीतों की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साहित नरेंद्र सिंह नेगी ने गढ़वाली गीतमाला निकालनी शुरू की. गीतमाला इतनी हिट हुई कि इसके 10 भाग निकाले. अब तक नरेंद्र सिंह नेगी लोकगायक के रूप में स्थापित हो चुके थे. पहाड़ में उनके गीत रेडियो पर बजते थे तो बॉर्डर पर पहाड़ के जवान आकाशवाणी पर उनके गीत सुनते थे.
नरेंद्र सिंह नेगी ने गीतमाला की लोकप्रियता के साथ पहला एलबम बुरांस निकाला. उन्होंने कई आंचलिक फिल्मों घरजवैं, कौथिग, बेटी- ब्वारी, बंटवारू और चक्रचाल आदि के गीत लिखे. इनके गीत उन्होंने ही गाए और संगीत दिया. 1982 में जब नरेंद्र सिंह नेगी अपने गीतों का कैसेट 'ढेबरा हर्चि गेना' निकाला तो ये कैसेट सुपरहिट हुआ.
कहा जाता है कि अगर उत्तराखंड को समझना है तो नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए. आपको यहां का भूगोल, इतिहास, संस्कृति, खान-पान, जल-जंगल-जमीन और मठ-मंदिरों के बारे में नेगीजी के गीतों से पता चल जाएगा. उनके गीतों में हर रंग मिल जाएगा.
मंदिरों में पशु बलि के खिलाफ नरेंद्र सिंह नेगी जब गीत लिखा और गाया तो वो एक अभियान बन गया. अब उत्तराखंड के मंदिरों में पशु बलि लगभग बंद हो गई है. इस बोल के गीत इस तरह थे-
‘नी होंणा, नि होंणा रे भैरों,
देवि-देवतोंल दैणा रे भैंरों
बागी-बोग्याटाओं काटि के’
उत्तराखंड आंदोलन चला तो नरेंद्र सिंह नेगी की रचनाएं बैनर गीत हो गईं. उनके गानों के बिना आंदोलन की शुरुआत ही नहीं होती थी. खासकर उत्तराखंड आंदोलन के लिए गाए गए इस गीत को आज भी सुनकर आंदोलनकारी जोश से भर जाते हैं-
माथि पहाड़ बटि,
निस गंगाड़ बटि,
स्कूल-दफ्तर,
गौं बजार बटि,
हिटणा लग्या छन,
रुकणि को लगणू,
बाट भर्यां छन,
सड़कूं मा जग नि,
भैजी कख जाणा छा तुम लोग
उत्तराखंड आंदोलन मा.
उत्तराखंड आंदोलन में एक और आंदोलन गीत था जो जन समुदाय में जोश भरने का काम करता था. इस गाने को सुनकर राज्य आंदोलन के दौरान लाखों मुट्ठियां तनी थीं-
उठा जागा उत्तराखंडियों,
सौं उठाणों वक्त ऐगो,
राज्य आंदोलन के समय जब तत्कालीन मुलायम सरकार ने दमन की नीति अपनाई तो नरेंद्र सिंह नेगी की कलम फिर चली. लब से गीत फिर फूटा-
तेरा जुल्मों कौ हिसाब
चुकौंल एक दिन
जब उत्तराखंड के पर्यावरण को तथाकथित विकास के नाम पर नुकसान पहुंचाया जाने लगा तो नरेंद्र सिंह नेगी की कलम चली और जुबां से गीत फूट पड़ा-
‘ना काटा तौ डांल्यों,
तौ डाल्यों ना काटा भुलो,
डाल्यों ना काटा’
पलायन हमेशा से ही पहाड़ के लिए नासूर रहा है. कहावत ही हो गई कि- 'पहाड़ का पानी और जवानी, पहाड़ के काम नहीं आते'. पलायन पर उनका ये गीत आज भी भावुक कर देता है-
न दौड़ न दौड़
तौं उंदारी का बाटा
उंदारी का बाटा
पलायन पर उन्होंने एक और मार्मिक गीत लिखा. इस गाने को सुनकर परदेश में रहने वाले अपने आंसू नहीं रोक पाते हैं-
कख लगाणि छ्वीं,
कैमा लगाणि छ्वीं,
ये पहाड़ै कि,
कुमौं-गढ़वालै कि
राज्य बनने के बाद जब सत्ता प्रतिष्ठान पर सवाल उठे. आंदोलन से राज्य पाने वाली जनता सरकारी कारकूनों की करतूतों से आहत हुई तो नरेंद्र सिंह नेगी की कलम चली और सुर फूटे-
कलजुगी औतारी रे
नौ छमी नारैणा
उत्तराखंडी मुरारी रे
नौछमी नारैणा
छलबली नारैणा रे
नौ छमी नारैणा
तीलै धारू बोला रे
नौ छमी नारैणा.
अब इसे नरेंद्र सिंह नेगी के इस गीत की ताकत कहिए अगले चुनाव में नारायण दत्त तिवारी की सरकार हार गई. इसके साथ ही उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी की राजनीतिक विरासत भी जाती रही.
जब बीजेपी सरकार में भ्रष्टाचार की गंध आई. पूरे राज्य में दबी जुबान होने वाली चर्चाएं आम होने लगीं तो नरेंद्र सिंह नेगी की कलम फिर चली. इस बार जो गीत निकला उसने जिस मुख्यमंत्री पर सवाल उठ रहे थे उसको सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया-
कमीशन की मीट-भात
रिश्वत को रैलो
बस कर, बंडी ना सपोड़
अब कदगा खैलो
प्रेम गीत नरेंद्र सिंह नेगी से प्यारे और मधुर शायद ही किसी ने गाए होंगे. नेगीजी के प्रेम गीत इतने मशहूर हुए कि गाय चराते चरवाहों से लेकर घास काटती बेटी-ब्वारी तक उन्हें गुनगाती देखी-सुनी जातीं. बॉर्डर पर देश की हिफाजत कर रहे जवानों की जुबान पर भी नरेंद्र सिंह नेगी के गीत रहते-
तेरा रूपै की झौव मा
नौणी सी ज्यू मेरो
जौलि भी गेई
मौलि भी गेई
जिस युवती की शादी तय हुई है वो जंगल में घास काटते और लकड़ी लाते अपनी रोज की सहेली पेड़ को निमंत्रण जिस अंदाज में दे रही है वो नेगी जी ही लिख और गा सकते हैं-
मुल-मुल के कू हैंसणी छै तू
ऐ कूलै की डाई
कखि तिन मेरी आंख्यूं का सुपिन्या
देखि त नि आली
नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में एक संसार बसता है. उसमें हर तरह के रंग हैं. उनके गीतों में होली है तो दीवाली भी है. मिलन है तो बिछोह भी है. खुद (याद) है तो प्रार्थना भी है. नदी है तो पहाड़ भी हैं. मंदिर हैं तो घरद्वार भी हैं. उत्तराखंड के इस महान संस्कृतिकर्मी को ईटीवी भारत की ओर से भी जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं.