देहरादून: आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है. स्वामी विवेकानंद का उत्तराखंड से नाता बहुत गहरा रहा है. देवभूमि में कई जगह उनकी यादें आज भी ताजा हैं. उत्तराखंड में स्वामी विवेकानंद ने गहन साधना की थी. ऐसा कहा जाता है कि देवभूमि की पहाड़ियों और वादियों में इस संत को आध्यात्मिक शांति और शक्ति मिलती थी.
स्वामी विवेकानंद दो बार देहरादून आए थे: आज हमारा देश स्वामी विवेकानंद की जयंती मना रहा है. युवा उनके बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. विवेकानंद को उत्तराखंड से बहुत लगाव था. 1890 और 1897 में दो बार स्वामी विवेकानंद देहरादून आए थे. स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर स्वामी करुणानंद ने 1916 में यहां आश्रम स्थापित किया. इसी के तहत रामकृष्ण मिशन धर्मार्थ औषधालय भी चल रहा है.
गदाधर प्रकल्प के माध्यम से पहली से सातवीं कक्षा तक के छात्रों को शिक्षा भी दी जाती है. दरअसल 1890 में बदरीनारायण सेवा क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा था. तब स्वामी विवेकानंद श्रीनगर से होते हुए टिहरी पहुंचकर देहरादून पहुंचे थे. यहां अब भी स्वामी विवेकानंद की जयंती पर समारोह होता है. लोग युवाओं को स्वामी विवेकानंद के बताते रास्ते और उनकी शिक्षाओं को जीवन में उतारने की सीख देते हैं.
ये भी पढ़ें: national youth day 2022 : जानिए स्वामी विवेकानंद की जयंती पर ही क्यों मनाया जाता है राष्ट्रीय युवा दिवस
गुरु भाई को देखा तो रुक गए: राजपुर में प्राचीन बावड़ी शिव मंदिर में स्वामी तुरियानंद तपस्या कर रहे थे. स्वामी विवेकानंद ने देखा ये तो उनके गुरु भाई हैं. इस पर स्वामीजी भी बावड़ी शिव मंदिर में ही रुक गए. बताया जाता है कि गुरु भाई स्वामी तुरियानंद के साथ स्वामी विवेकानंद ने भी तपस्या की थी. बाद में उन्होंने लिखा कि राजपुर स्थित ये स्थल चमत्कारिक जगह है.
बागेश्वर में भी स्वामी विवेकानंद ने किया था तप: स्वामी विवेकानंद ने 1897 में देवलधार बागेश्वर में भी तप किया था. यहां स्वामीजी 47 दिन के प्रवास पर रहे थे. स्वामी विवेकानंद ने यहां आश्रम स्थापित करने की इच्छा जताई थी. दरअसल स्वामी विवेकानंद को बागेश्वर की सुरम्य धरती बहुत पसंद आई थी. सरयू और गोमती के मिलन का दृश्य उन्हें बहुत भाता था.
अल्मोड़ा के कसार देवी में की थी तपस्या: स्वामी विवेकानंद 1890 में कलकत्ता से अल्मोड़ा आए थे. यहां चमत्कारिक शक्ति केंद्र कसार देवी है. यहां मंदिर में गुफा है. स्वामी विवेकानंद ने कसार देवी मंदिर की गुफा में गहन तप किया था. कहते हैं कि यहीं पर उन्हें अपनी छोटी बहन द्वारा आत्महत्या करने की सूचना मिली थी.
करबला कब्रिस्तान भी गए थे स्वामी विवेकानंद: अल्मोड़ा जिले के करबला कब्रिस्तान पहुंचे स्वामी विवेकानंद की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. वो मूर्छित होकर गिर पड़े थे. ऐसे में एक फकीर जुल्फिकार अली ने उनकी बहुत सेवा की. स्वस्थ होने पर स्वामी विवेकानंद ने वहां जनसभा की. इस जनसभा में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर फकीर जुल्फिकार अली को सम्मानित किया था.
1897 में भी अल्मोड़ा आए थे स्वामी विवेकानंद: 1897 में एक बार फिर स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा आए थे. इस बार वो तीन महीने इस सांस्कृतिक नगरी में रहे थे. लोगों के विशेष आग्रह पर स्वामी विवेकानंद ने तीन स्थानों पर व्याख्यान दिए थे. 28 जुलाई 1897 को इंग्लिश क्लब के व्याख्यान की अध्यक्षता तो गोरखा रेजीमेंट के प्रमुख कर्नल पुली ने स्वयं की थी. व्याख्यान सुनने के लिए लाला बदरी शाह, चिरंजीलाल शाह और ज्वाला दत्त जोशी के साथ अनेक अंग्रेज अफसर भी आए थे.
कोसी नदी के तट पर भी लगाया था ध्यान: स्वामी विवेकानंद महान तपस्वी थे. उन्हें स्थान देखकर ही उसकी आध्यात्मिकता का भान हो जाता था. नैनीताल से बदरीकाश्रम जाते समय वो कोसी नदी के तट पर ही ध्यानमग्न हो गए थे. कहते हैं कि यहां पर उन्हें दिव्य अनुभूतियां हुई थी. स्वामी विवेकानंद ने ऋषिकेश में चंद्रेश्वर महादेव मंदिर और कैलाश आश्रम में भी तपस्या की थी.
बदरीनाथ जाने की इच्छा रही अधूरी: स्वामी विवेकानंद ने दो बार बदरीनाथ धाम जाने का मन बनाया था. अपने गुरुभाई स्वामी अखंडानंद के साथ 1888 में विवेकानंद रुद्रप्रयाग आए थे. सोमेश्वर से दोनों पैदल कर्णप्रयाग पहुंचे थे. उन दिनों इस इलाके में हैजा फैला था. इस वजह से स्वामी विवेकानंद को बदरीनाथ जाने की अनुमति नहीं मिल सकी.
दूसरी बार तबीयत खराब हो गई: दूसरी बार 1890 में स्वामी विवेकानंद ऋषिकेश से रुद्रप्रयाग आए थे. इस बार भी वो बदरीनाथ जाना चाहते थे. मगर अचानक रुद्रप्रयाग में उनकी तबीयत खराब हो गई. इस कारण वो बदरीनाथ नहीं जा सके थे. कुछ दिन रुद्रप्रयाग में ही प्रवास करने के बाद स्वामी विवेकानंद वापस लौट गए थे.
ये भी पढ़िए: अद्भुत और अलौकिक है यह मंदिर, नासा भी हैरान, स्वामी विवेकानंद ने की थी यहां तपस्या
उत्तराखंड को पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश कहते थे: स्वामी विवेकानंद उत्तराखंड को पूर्वजों का स्वप्न प्रदेश कहते थे. अपने एक संबोधन में उन्होंने कहा था- ‘यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है. भारत जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है. यह वह पवित्र स्थान है, जहां भारत का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन का अंतिम काल बिताने का इच्छुक रहता है. यह वही भूमि है, जहां निवास करने की कल्पना मैं अपने बाल्यकाल से ही कर रहा हूं. मेरे मन में इस समय हिमालय में एक केंद्र स्थापित करने का विचार है और संभवत: मैं आप लोगों को भली-भांति यह समझाने में समर्थ हुआ हूं कि क्यों मैंने अन्य स्थानों की तुलना में इसी स्थान को सार्वभौमिक धर्मशिक्षा के एक प्रधान केंद्र के रूप में चुना है.’
कौन थे स्वामी विवेकानंद? : स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था. वो वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे. उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था. उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था. भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुंचा. उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है. वे रामकृषअण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे. उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था लेकिन उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" के साथ करने के लिये जाना जाता है. स्वामी विवेकानंद के संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था.