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जयंती विशेष: हिंदी के 'कालिदास' थे चंद्रकुंवर बर्त्वाल, मृत्यु से लिखी थी आत्मीयता - Chandrakunwar Bartwal disciple from Kalidas

आपने जन्म, श्रृंगार, प्यार, मेल, विछोह, गुस्सा, रुदन और भी तमाम रंगों की कविताएं पढ़ी और सुनी होंगी. क्या आपने मृत्यु से आत्मीयता की कविता कभी पढ़ी या सुनी है ? अगर नहीं तो आज हम आपको एक ऐसे ही कवि के बारे में बताने जा रहे हैं.

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चंद्रकुंवर बर्त्वाल
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Published : Aug 20, 2021, 8:02 AM IST

देहरादून: चंद्रकुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास कहा जाता है. आज उनकी 102वीं जयंती है. सिर्फ 28 साल के जीवनकाल में वो ऐसी रचनाएं रच गए कि सुनकर और पढ़कर यकीन नहीं होता कि इतनी अल्पायु में कोई कैसे जीवन को इतना गहरा समझ सकता है. बर्त्वाल ने सिर्फ 28 वर्ष के जीवनकाल में एक हजार अनमोल कविताएं, कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य रचे थे. हालांकि उनकी रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद पहचान मिली.

मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना जीना सुंदर हो! मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो!...

ये पंक्तियां हैं हिंदी के कालिदास के रूप में जाने जाने वाले प्रकृति के चहेते-चितेरे कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की. आज चंद्रकुंवर बर्त्वाल की 102वीं जयंती है.

रुद्रप्रयाग में हुआ जन्म: चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 को हुआ था. आपने सिर्फ 28 साल के जीवन में एक हजार अनमोल कविताएं, 24 कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य का अनमोल खजाना हिन्दी साहित्य को दिया था. मृत्यु पर आत्मीय ढंग से और विस्तार से लिखने वाले चंद्रकुंवर बर्त्वाल हिंदी के पहले कवि रहे हैं.

कालिदास को मानते थे गुरु: चंद्रकुंवर बर्त्वाल संस्कृत के सबसे बड़े रचनाकार कालिदास को अपना गुरु मानने थे. चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने पोखरी और अगस्त्यमुनि में शिक्षक के रूप में पढ़ाय भी था. उन्हें प्रकृति प्रेमी कवि माना जाता है. उन दिनों देश अंग्रेजों का गुलाम था. आजादी की लड़ाई चरम पर थी. विभिन्न आंदोलन चल रहे थे. बर्त्वाल की कविताओं में हिमालय, झरनों, नदियों, फूलों, खेतों, बसन्त का वर्णन रहा तो इसी कारण उपनिवेशवाद का विरोध भी दिखाई दिया.

कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की प्रमुख कृतियों में विराट ज्योति, कंकड़-पत्थर, पयस्विनी, काफल पाक्कू, जीतू, मेघ नंदिनी हैं. युवावस्था में ही वह तपेदिक यानी टीबी से ग्रसित हो गए थे. आज की तरह उन दिनों इलाज के बहुत अधिक साधन नहीं थे. टीबी वालों के साथ समाज आत्मीय व्यवहार नहीं करता था. इस कारण उन्हें पांवलिया के जंगल में बने घर में एकांकी जीवन व्यतीत करना पड़ा था.

चंद्रकुंवर बर्त्वाल दिलेर थे. मृत्यु के सामने खड़े कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताओं की रचना की. 14 सितम्बर, 1947 को हिन्दी साहित्य को बेहद समृद्ध खजाना देकर यह युवा कवि दुनिया से कूच कर गया.

मृत्यु के बाद मिली पहचान: कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की मृत्यु के बाद उनके सहपाठी शंभू प्रसाद बहुगुणा ने उनकी रचनाओं को प्रकाशित करवाया. तब जाकर दुनिया को पता चला कि देश के पहाड़ी इलाके में चंद्रकुंवर बर्त्वाल नाम का कोई कवि, साहित्यकार था और उसने इतनी महान रचनाएं की हैं. आज उनके काव्य पर अनेक छात्र पीएचडी से लेकर डी. लिट (डॉक्टर आफ लेटर्स) कर रहे हैं.

इलाहाबाद और लखनऊ में हुई उच्च शिक्षा: चंद्रकुंवर बर्त्वाल की प्रारंभिक शिक्षा उडामांडा में हुई. मिडिल स्कूल नागनाथ से व पौड़ी से हाईस्कूल पास किया. इसके बाद इंटर की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण की. सन् 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए में प्रवेश लिया. लेकिन वहां वे अस्वस्थ रहने लगे.

दिन-प्रतिदिन गिरते हुए स्वास्थ्य ने इन्हें घर वापस आने पर मजबूर कर दिया. घर आकर इन्होंने अगस्त्यमुनि हाईस्कूल में प्राचार्य का पदभार संभाल लिया. पर वहां भी वे खुश न रह सके. इन्हीं मानसिक उलझनों एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की वजह से उन्होंने सन् 1941 में इस पद से त्याग पत्र दे दिया.

स्वास्थ्य और बिगड़ता जा रहा था. अस्वस्थता में मंदाकिनी के दायीं ओर भीरी के पास पवालिया को अपना स्थाई निवास बना लिया. अस्वस्थता में भी इन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. एक हजार के लगभग कविताएं, छिटपुट कहानियां, निबंध आदि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने 28 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य की विरासत को सौंप दिए.

उनकी कविता 'काफल पाक्कू’ की कुछ लाइनें इस तरह हैं-

सखि, वह मेरे देश का वासी-

छा जाती वसंत जाने से है जब एक उदासी

फूली मधु पीती धरती जब हो जाती है प्यासी

गंध अंध के अलि होकर म्लान

गाते प्रिय समाधि पर गान...

एक और कविता में उनका दर्द देखिए. जब उन्हें अहसास हो गया था कि अब जीवन की अंतिम बेला आने वाली है...

अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी

छोटे-से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी

आँखों में सुख से पिघल-पिघल ओंठों में स्मिति भरता-भरता

मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता

चंद्रकुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास कहा जाता है. कालिदास उनके मनपसंद रचनाकार भी थे. कालिदास का जन्म भी उत्तराखंड में ही हुआ था. उससे भी बड़ी बात ये कि कालिदास चंद्रकुंवर बर्त्वाल के जिले में ही जन्मे थे. शायद इसीलिए कालिदास को उन्होंने बार-बार याद किया है. कभी कविताओं के जरिए और कभी अपने परिजन के रूप में. उन्हें अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी कविता ‘कालिदास के प्रति’ में लिखा...

कालिदास,

ओ कालिदास!

यदि तुम मेरे साथ न होते

तो जाने क्या होता.

तुमने आँखें दीं मुझको

मैं देखता था प्रकृति को

हृदय से प्रेम करता था उसे.

पर मेरा सुख मेरे भीतर

कुम्हला जाता था.

तुमने मेरे सुमनों को गंध देकर

अचानक खिला दिया है.

हे मलय पवन, हे कालिदास,

मैं तुम्हारा अनुचर

एक छोटा-सा फूल हूं

मौका मिला जिसको

तुम्हारे हाथों खिलने का.

वो बार-बार मृत्यु को गले लगाने की बातें करते हुए अपने लिए लंबी नहीं, उपलब्धिपूर्ण उम्र की कामना करते थे. उनकी इस रचना में इस बात का पता चलता है...

मैं न चाहता युग-युग तक

पृथ्वी पर जीना

पर उतना जी लूं

जितना जीना सुंदर हो!

मैं न चाहता जीवन भर

मधुरस ही पीना

पर उतना पी लूं

जिससे मधुमय अंतर हो

मानव हूं मैं सदा मुझे

सुख मिल न सकेगा

पर मेरा दुख भी

हे प्रभु कटने वाला हो

और मरण जब आवे

तब मेरी आँखों में

मेरे ओठों में उजियाला हो.

देहरादून: चंद्रकुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास कहा जाता है. आज उनकी 102वीं जयंती है. सिर्फ 28 साल के जीवनकाल में वो ऐसी रचनाएं रच गए कि सुनकर और पढ़कर यकीन नहीं होता कि इतनी अल्पायु में कोई कैसे जीवन को इतना गहरा समझ सकता है. बर्त्वाल ने सिर्फ 28 वर्ष के जीवनकाल में एक हजार अनमोल कविताएं, कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य रचे थे. हालांकि उनकी रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद पहचान मिली.

मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना जीना सुंदर हो! मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो!...

ये पंक्तियां हैं हिंदी के कालिदास के रूप में जाने जाने वाले प्रकृति के चहेते-चितेरे कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की. आज चंद्रकुंवर बर्त्वाल की 102वीं जयंती है.

रुद्रप्रयाग में हुआ जन्म: चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 को हुआ था. आपने सिर्फ 28 साल के जीवन में एक हजार अनमोल कविताएं, 24 कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य का अनमोल खजाना हिन्दी साहित्य को दिया था. मृत्यु पर आत्मीय ढंग से और विस्तार से लिखने वाले चंद्रकुंवर बर्त्वाल हिंदी के पहले कवि रहे हैं.

कालिदास को मानते थे गुरु: चंद्रकुंवर बर्त्वाल संस्कृत के सबसे बड़े रचनाकार कालिदास को अपना गुरु मानने थे. चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने पोखरी और अगस्त्यमुनि में शिक्षक के रूप में पढ़ाय भी था. उन्हें प्रकृति प्रेमी कवि माना जाता है. उन दिनों देश अंग्रेजों का गुलाम था. आजादी की लड़ाई चरम पर थी. विभिन्न आंदोलन चल रहे थे. बर्त्वाल की कविताओं में हिमालय, झरनों, नदियों, फूलों, खेतों, बसन्त का वर्णन रहा तो इसी कारण उपनिवेशवाद का विरोध भी दिखाई दिया.

कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की प्रमुख कृतियों में विराट ज्योति, कंकड़-पत्थर, पयस्विनी, काफल पाक्कू, जीतू, मेघ नंदिनी हैं. युवावस्था में ही वह तपेदिक यानी टीबी से ग्रसित हो गए थे. आज की तरह उन दिनों इलाज के बहुत अधिक साधन नहीं थे. टीबी वालों के साथ समाज आत्मीय व्यवहार नहीं करता था. इस कारण उन्हें पांवलिया के जंगल में बने घर में एकांकी जीवन व्यतीत करना पड़ा था.

चंद्रकुंवर बर्त्वाल दिलेर थे. मृत्यु के सामने खड़े कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताओं की रचना की. 14 सितम्बर, 1947 को हिन्दी साहित्य को बेहद समृद्ध खजाना देकर यह युवा कवि दुनिया से कूच कर गया.

मृत्यु के बाद मिली पहचान: कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की मृत्यु के बाद उनके सहपाठी शंभू प्रसाद बहुगुणा ने उनकी रचनाओं को प्रकाशित करवाया. तब जाकर दुनिया को पता चला कि देश के पहाड़ी इलाके में चंद्रकुंवर बर्त्वाल नाम का कोई कवि, साहित्यकार था और उसने इतनी महान रचनाएं की हैं. आज उनके काव्य पर अनेक छात्र पीएचडी से लेकर डी. लिट (डॉक्टर आफ लेटर्स) कर रहे हैं.

इलाहाबाद और लखनऊ में हुई उच्च शिक्षा: चंद्रकुंवर बर्त्वाल की प्रारंभिक शिक्षा उडामांडा में हुई. मिडिल स्कूल नागनाथ से व पौड़ी से हाईस्कूल पास किया. इसके बाद इंटर की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण की. सन् 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए में प्रवेश लिया. लेकिन वहां वे अस्वस्थ रहने लगे.

दिन-प्रतिदिन गिरते हुए स्वास्थ्य ने इन्हें घर वापस आने पर मजबूर कर दिया. घर आकर इन्होंने अगस्त्यमुनि हाईस्कूल में प्राचार्य का पदभार संभाल लिया. पर वहां भी वे खुश न रह सके. इन्हीं मानसिक उलझनों एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की वजह से उन्होंने सन् 1941 में इस पद से त्याग पत्र दे दिया.

स्वास्थ्य और बिगड़ता जा रहा था. अस्वस्थता में मंदाकिनी के दायीं ओर भीरी के पास पवालिया को अपना स्थाई निवास बना लिया. अस्वस्थता में भी इन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. एक हजार के लगभग कविताएं, छिटपुट कहानियां, निबंध आदि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने 28 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य की विरासत को सौंप दिए.

उनकी कविता 'काफल पाक्कू’ की कुछ लाइनें इस तरह हैं-

सखि, वह मेरे देश का वासी-

छा जाती वसंत जाने से है जब एक उदासी

फूली मधु पीती धरती जब हो जाती है प्यासी

गंध अंध के अलि होकर म्लान

गाते प्रिय समाधि पर गान...

एक और कविता में उनका दर्द देखिए. जब उन्हें अहसास हो गया था कि अब जीवन की अंतिम बेला आने वाली है...

अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी

छोटे-से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी

आँखों में सुख से पिघल-पिघल ओंठों में स्मिति भरता-भरता

मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता

चंद्रकुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास कहा जाता है. कालिदास उनके मनपसंद रचनाकार भी थे. कालिदास का जन्म भी उत्तराखंड में ही हुआ था. उससे भी बड़ी बात ये कि कालिदास चंद्रकुंवर बर्त्वाल के जिले में ही जन्मे थे. शायद इसीलिए कालिदास को उन्होंने बार-बार याद किया है. कभी कविताओं के जरिए और कभी अपने परिजन के रूप में. उन्हें अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी कविता ‘कालिदास के प्रति’ में लिखा...

कालिदास,

ओ कालिदास!

यदि तुम मेरे साथ न होते

तो जाने क्या होता.

तुमने आँखें दीं मुझको

मैं देखता था प्रकृति को

हृदय से प्रेम करता था उसे.

पर मेरा सुख मेरे भीतर

कुम्हला जाता था.

तुमने मेरे सुमनों को गंध देकर

अचानक खिला दिया है.

हे मलय पवन, हे कालिदास,

मैं तुम्हारा अनुचर

एक छोटा-सा फूल हूं

मौका मिला जिसको

तुम्हारे हाथों खिलने का.

वो बार-बार मृत्यु को गले लगाने की बातें करते हुए अपने लिए लंबी नहीं, उपलब्धिपूर्ण उम्र की कामना करते थे. उनकी इस रचना में इस बात का पता चलता है...

मैं न चाहता युग-युग तक

पृथ्वी पर जीना

पर उतना जी लूं

जितना जीना सुंदर हो!

मैं न चाहता जीवन भर

मधुरस ही पीना

पर उतना पी लूं

जिससे मधुमय अंतर हो

मानव हूं मैं सदा मुझे

सुख मिल न सकेगा

पर मेरा दुख भी

हे प्रभु कटने वाला हो

और मरण जब आवे

तब मेरी आँखों में

मेरे ओठों में उजियाला हो.

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