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भारत-तिब्बत बॉर्डर पर इंजीनियरिंग का नायाब नमूना गरतांग गली पुल के निर्माण का सच आया सामने, ये है हकीकत - उत्तरकाशी का हर्सिल क्षेत्र

भारत और तिब्बत के बीच व्यापार गरतांग गली पुल के जरिए किया जाता था. वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने अपने शोध में पाया कि इस गरतांग गली पुल का निर्माण फेड्रिक विल्सन ने 1860 से 1870 के दशक में किया था. देहरादून से उत्तरकाशी तक टिंबर टाइकून फेड्रिक विल्सन ने विभिन्न पुलों का निर्माण किया था.

real story of gartang gali
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Published : Jul 15, 2023, 2:33 PM IST

Updated : Jul 15, 2023, 7:20 PM IST

भारत-तिब्बत बॉर्डर पर इंजीनियरिंग का नायाब नमूना गरतांग गली.

देहरादून( उत्तराखंड): उत्तराखंड में मौजूद चारधाम में से एक गंगोत्री धाम से 16 किलोमीटर पहले भैरव घाटी की खड़ी चट्टानों पर ग्रेनाइट के पहाड़ को काटकर लकड़ी के पट्टों के सहारे बने 136 मीटर लंबे पुल का अपना एक अलग रोमांच है. लेकिन इसे किसने बनाया था, इसको लेकर अभी तक केवल कयास लगाए जाते थे. हाल ही में की गई एक रिसर्च के अनुसार गरतांग गली के आर्किटेक्ट और निर्माण को लेकर काफी हद तक स्थिति स्पष्ट हुई है.

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गंगोत्री नेशनल पार्क क्षेत्र के अंतर्गत आती है गरतांग गली.

ग्रेनाइट के पहाड़ को चीर कर लकड़ी के पट्टों से बनी गरतांग गली: गंगोत्री धाम से पहले भैरव घाटी में पड़ने वाली गरतांग गली नेलांग घाटी में मौजूद है. जाड़ गंगा के 200 मीटर ऊपर ग्रेनाइट की बिल्कुल खड़ी चट्टान को चीरकर 136 मीटर का लकड़ी के पट्टों पर बनाया गया पुल जितना रोमांचित करता है, उतना ही इसका आर्किटेक्ट हैरान भी करेगा. पुराने समय में बताया जाता है कि भारत और तिब्बत के बीच व्यापार इसी गरतांग गली से होकर किया जाता था.

लंबे समय तक बंद रहने के बाद एक बार फिर से इसे वन विभाग द्वारा देवदार की सुंदर लकड़ियों से पुनर्निर्मित कर 2021 में पर्यटकों के लिए खोला गया. जिसके बाद गरतांग गली एक बार फिर से चर्चाओं में आई. पुराने लोग बताते हैं कि इस रास्ते का इस्तेमाल 1962 तक तिब्बत के साथ सीमा पर व्यापार के लिए भारत की तकनौर पट्टी के व्यापारियों द्वारा किया जाता था. जब 1962 में इंडिया चाइना वॉर हुआ और भारत तिब्बत के बीच व्यापार बंद हो गया तो, उसके बाद इस पुल के ऊपर आवागमन बंद हो गया और यह लगातार जीर्ण शीर्ण होता गया. 19वीं सदी के शुरुआत तक उत्तराखंड के कई इलाकों में लकड़ियों के पुल अस्तित्व में थे.

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इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है ये धरोहर.
पढ़ें- ये कैसे पर्यटक: भारत-तिब्बत व्यापार की निशानी को यूं बिगाड़ रहे लोग, लिख रहे प्रेमी-प्रेमिका का नाम

ब्रिटिश सरकार के फैसले से खुश नहीं थी दोनों रियासतें: तिब्बत से सटे उत्तरकाशी का हर्सिल क्षेत्र अपने रोमांचकारी इतिहास के लिए जाना जाता है. यहां से होने वाले तिब्बत ट्रेड का इतिहास बेहद पुराना है. हर्सिल के रोचक इतिहास से ही गरतांग गली पुल निर्माण के तार भी जुड़ते हैं. उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्र हर्सिल के बाद मौजूद नेलांग घाटी स्वामित्व के मामले में उस दौर में विवादों में रहा करती थी. एक तरफ से उत्तराखंड की टिहरी रियासत दूसरी तरफ से तिब्बत और हिमाचल की तरफ से रामपुर बुशहर नेलांग घाटी पर अपना अधिकार जताते थे. अक्सर इस सीमांत घाटी को लेकर विवाद रहा करता था. आखिरकार 1920 के दशक में ब्रिटिश सरकार ने मध्यस्था की और नेलांग गांव भारत की टिहरी रियासत और जैदोंग तिब्बत के हक में फैसला सुनाया. लेकिन इस फैसले से ना तो टिहरी रियासत खुश थी और ना ही तिब्बत. दोनों ही इस पूरे इलाके पर अपना अधिकार चाहती थी. दोनों ने अपने पक्ष में तमाम तथ्य और दलीलें रखी थी.

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भारत और तिब्बत के बीच गरतांग गली पुल के जरिए व्यापार होता था.

1000 से ज्यादा पन्नों के शोध ने खोला गरतांग गली के निर्माण का राज: जिस लोकेशन पर गरतांग गली पुल बनाया गया है, वह लोकेशन भारत और तिब्बत बॉर्डर के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. भले ही इस पर पुराने समय में होने वाले व्यापार की बात सामने आती है, लेकिन इसके निर्माण को लेकर किसी भी तरह का कोई ठोस तथ्य अब तक नहीं मिल पाया था कि इस पुल को किसने बनाया और कब बनाया है. उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू गुसाईं उत्तरकाशी के बेहद महत्वपूर्ण ज्योग्राफिकल लोकेशन पर मौजूद गरतांग गली पर पिछले कई सालों से शोध कर रहे हैं. उन्होंने 1000 पन्नों से ज्यादा की रिसर्च इस पुल पर की है. वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने अपने शोध में पाया कि भैरव घाटी में इंजीनियरिंग का नायाब उदाहरण देने वाला गरतांग का यह पुल 400 साल पुराना नहीं, बल्कि मात्र 170 साल पुराना है और इसे किसी इतिहास के अंपायर ने नहीं, बल्कि उत्तरकाशी के हर्सिल क्षेत्र में आए बेहद चर्चित अंग्रेज सैनिक और टिंबर व्यवसाय के बेताज बादशाह फेड्रिक विल्सन ने बनाया था. फेड्रिक विल्सन एक शिकारी भी था और हर्सिल क्षेत्र में ब्रिटिश काल के दौरान अंधाधुंध शिकार किया करता था.

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चट्टान को चीरकर 136 मीटर का लकड़ी के पट्टों पर बनाया गया पुल.

फेड्रिक विल्सन नाम का व्यक्ति था अहम: वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं बताते हैं कि पूरे हिमालय क्षेत्र में अगर इस तरह का निर्माण की सामर्थ्य किसी में थी, तो वह फेड्रिक विल्सन ही था. 200 साल के ब्रिटिश काल के दौरान भी भैरव घाटी में बने इस लकड़ी के अनोखे स्ट्रक्चर का जिक्र कहीं भी नहीं आता है. उन्होंने बताया कि सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्र में हर एक ज्योग्राफिकल स्ट्रक्चर के निशान मिलते हैं, लेकिन उनका कोई निशान सर्वे ऑफ इंडिया के किसी मैप में भी नहीं मिलता है. अब सवाल आता है कि फेड्रिक विल्सन ने ही इस पुल को बनाया है, इसके पीछे क्या तथ्य है. दरअसल फेड्रिक विल्सन एक टिंबर व्यवसायी के साथ-साथ एक शिकारी भी था. जिसके पास शिकार के लिए तकरीबन 2000 लोगों की संख्या थी और उनके पास बंदूकें भी थीं.

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गरतांग गली पुल निर्माण में फेड्रिक विल्सन ने निभाई थी अहम भूमिका.
पढ़ें- इंजीनियरिंग का नायाब नमूना हैं गरतांग गली की सीढ़ियां, 65 लाख की लागत से हुआ पुनर्निर्माण

फेड्रिक विल्सन ने 1860 से 1870 के दशक में किया था पुल निर्माण: वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने अपने शोध में पाया कि इस गरतांग गली पुल का निर्माण फेड्रिक विल्सन ने 1860 से 1870 के दशक में किया है. विल्सन ने इस तरह के लकड़ी के पुल के बारे में अपनी 1860 में संपादित की गई पुस्तक में जिक्र किया है. किताब में विल्सन की कल्पनाएं बिल्कुल इसी पुल से मैच खाती हैं. 1860 में प्रकाशित पुस्तक "हिमालय ए समर रंबल" में विल्सन लिखते हैं कि उजाड़ गंगा के ऊपर खड़ी चट्टानों के बीच पुल बनाया जाना संभव है. हालांकि विल्सन यहां सीधा-सीधा कुछ भी नहीं लिखते हैं, लेकिन इसी तरह के पुल के निर्माण और उसमें आने वाली चुनौतियों का वह जिक्र जरूर करते हैं.

माउंटेनियर पेन नेम का इस्तेमाल करता था विल्सन: इसी तरह से एक और लेख में विल्सन लिखते हैं कि भागीरथी नदी की सहायक नदी जाड़ गंगा के 200 मीटर ऊपर ग्रेनाइट की खड़ी चट्टाने हैं. वहां पर ना तो मिट्टी है और ना पोषण के लिए पानी है, लेकिन फिर भी वहां पर झाइयां उगती हैं. शोधकर्ता ने बताया कि विल्सन की एक खास बात थी कि वह कोई भी लेख सीधे अपने नाम से नहीं लिखते थे, बल्कि वह अपने नाम की जगह माउंटेनियर पेन नेम का इस्तेमाल करते थे. विल्सन ने अपने इसी पेन नेम से ही "ए समर रैंबल इन द हिमालयाज" किताब का प्रकाशन और संपादन किया था. इसी तरह से 1973 में प्रकाशित एक लेख जिसका शीर्षक था "ए स्टॉक इन तिब्बत" में विल्सन ने तिब्बत की एक छोटी सी यात्रा का जिक्र किया था. जिसमें उसने हिमालय की भौगोलिक स्थितियों को इंग्लैंड की तुलना में बेहद चुनौती भरा पाया था. साथ ही उसने अपने लेख में भैरव घाटी और गरतांग गली से होते हुए नेलांग की दूरी 6 मील बताई थी.

टिंबर टाइकून विल्सन ने देहरादून से उत्तरकाशी तक बनाए सारे पुल: टिहरी के राजा ने विल्सन को हरसिल क्षेत्र में लकड़ी के कटान का ठेका दिया था. विल्सन हरसिल से लकड़ी को पानी में तैराकर हरिद्वार तक सप्लाई करता था. लेकिन अन्य जरूरतों के लिए विल्सन ने देहरादून से लेकर उत्तरकाशी तक तमाम तरह का रोड इन्फ्राट्रक्चर का डेवलपमेंट करवाया. यह उसने जनहित के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यवसाय के लिए करवाया था. सवाल यह उठता है कि विल्सन ने भैरव घाटी में गरतांग गली ब्रिज क्यों बनाया. वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू बताते हैं कि विल्सन पहले ब्रिटिश सेना में काम करता था और वह अफगान युद्ध के दौरान वहां से भाग आया था. उसके बाद वह टिहरी रियासत में राजा की शह पर हरसिल क्षेत्र में रहने लगा.

हरसिल क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ बनाने वाले विल्सन को ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत की सूचनाएं प्राप्त करने के लिए एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रयोग किया और तिब्बत की तमाम सूचनाओं के लिए विल्सन का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार किया करती थी. फेड्रिक विल्सन अपनी इच्छाशक्ति और व्यावहारिक जीवन में लीक से हटकर काम करने के लिए जाना जाता था. उसने हिमालय क्षेत्र में तमाम झूला पुल का निर्माण किया और उसकी इस सामर्थ्य और इच्छाशक्ति से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भैरव घाटी में बने गरतांग गली के पुल को उसने ही बनाया है.
ये भी पढ़ें: देवभूमि पहुंचे यूपी में धूल फांकते मसूरी-देहरादून के 150 साल पुराने अभिलेख, भू माफ़ियाओं के फर्जीवाड़े पर लगा ब्रेक

भारत-तिब्बत बॉर्डर पर इंजीनियरिंग का नायाब नमूना गरतांग गली.

देहरादून( उत्तराखंड): उत्तराखंड में मौजूद चारधाम में से एक गंगोत्री धाम से 16 किलोमीटर पहले भैरव घाटी की खड़ी चट्टानों पर ग्रेनाइट के पहाड़ को काटकर लकड़ी के पट्टों के सहारे बने 136 मीटर लंबे पुल का अपना एक अलग रोमांच है. लेकिन इसे किसने बनाया था, इसको लेकर अभी तक केवल कयास लगाए जाते थे. हाल ही में की गई एक रिसर्च के अनुसार गरतांग गली के आर्किटेक्ट और निर्माण को लेकर काफी हद तक स्थिति स्पष्ट हुई है.

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गंगोत्री नेशनल पार्क क्षेत्र के अंतर्गत आती है गरतांग गली.

ग्रेनाइट के पहाड़ को चीर कर लकड़ी के पट्टों से बनी गरतांग गली: गंगोत्री धाम से पहले भैरव घाटी में पड़ने वाली गरतांग गली नेलांग घाटी में मौजूद है. जाड़ गंगा के 200 मीटर ऊपर ग्रेनाइट की बिल्कुल खड़ी चट्टान को चीरकर 136 मीटर का लकड़ी के पट्टों पर बनाया गया पुल जितना रोमांचित करता है, उतना ही इसका आर्किटेक्ट हैरान भी करेगा. पुराने समय में बताया जाता है कि भारत और तिब्बत के बीच व्यापार इसी गरतांग गली से होकर किया जाता था.

लंबे समय तक बंद रहने के बाद एक बार फिर से इसे वन विभाग द्वारा देवदार की सुंदर लकड़ियों से पुनर्निर्मित कर 2021 में पर्यटकों के लिए खोला गया. जिसके बाद गरतांग गली एक बार फिर से चर्चाओं में आई. पुराने लोग बताते हैं कि इस रास्ते का इस्तेमाल 1962 तक तिब्बत के साथ सीमा पर व्यापार के लिए भारत की तकनौर पट्टी के व्यापारियों द्वारा किया जाता था. जब 1962 में इंडिया चाइना वॉर हुआ और भारत तिब्बत के बीच व्यापार बंद हो गया तो, उसके बाद इस पुल के ऊपर आवागमन बंद हो गया और यह लगातार जीर्ण शीर्ण होता गया. 19वीं सदी के शुरुआत तक उत्तराखंड के कई इलाकों में लकड़ियों के पुल अस्तित्व में थे.

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इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है ये धरोहर.
पढ़ें- ये कैसे पर्यटक: भारत-तिब्बत व्यापार की निशानी को यूं बिगाड़ रहे लोग, लिख रहे प्रेमी-प्रेमिका का नाम

ब्रिटिश सरकार के फैसले से खुश नहीं थी दोनों रियासतें: तिब्बत से सटे उत्तरकाशी का हर्सिल क्षेत्र अपने रोमांचकारी इतिहास के लिए जाना जाता है. यहां से होने वाले तिब्बत ट्रेड का इतिहास बेहद पुराना है. हर्सिल के रोचक इतिहास से ही गरतांग गली पुल निर्माण के तार भी जुड़ते हैं. उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्र हर्सिल के बाद मौजूद नेलांग घाटी स्वामित्व के मामले में उस दौर में विवादों में रहा करती थी. एक तरफ से उत्तराखंड की टिहरी रियासत दूसरी तरफ से तिब्बत और हिमाचल की तरफ से रामपुर बुशहर नेलांग घाटी पर अपना अधिकार जताते थे. अक्सर इस सीमांत घाटी को लेकर विवाद रहा करता था. आखिरकार 1920 के दशक में ब्रिटिश सरकार ने मध्यस्था की और नेलांग गांव भारत की टिहरी रियासत और जैदोंग तिब्बत के हक में फैसला सुनाया. लेकिन इस फैसले से ना तो टिहरी रियासत खुश थी और ना ही तिब्बत. दोनों ही इस पूरे इलाके पर अपना अधिकार चाहती थी. दोनों ने अपने पक्ष में तमाम तथ्य और दलीलें रखी थी.

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भारत और तिब्बत के बीच गरतांग गली पुल के जरिए व्यापार होता था.

1000 से ज्यादा पन्नों के शोध ने खोला गरतांग गली के निर्माण का राज: जिस लोकेशन पर गरतांग गली पुल बनाया गया है, वह लोकेशन भारत और तिब्बत बॉर्डर के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. भले ही इस पर पुराने समय में होने वाले व्यापार की बात सामने आती है, लेकिन इसके निर्माण को लेकर किसी भी तरह का कोई ठोस तथ्य अब तक नहीं मिल पाया था कि इस पुल को किसने बनाया और कब बनाया है. उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू गुसाईं उत्तरकाशी के बेहद महत्वपूर्ण ज्योग्राफिकल लोकेशन पर मौजूद गरतांग गली पर पिछले कई सालों से शोध कर रहे हैं. उन्होंने 1000 पन्नों से ज्यादा की रिसर्च इस पुल पर की है. वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने अपने शोध में पाया कि भैरव घाटी में इंजीनियरिंग का नायाब उदाहरण देने वाला गरतांग का यह पुल 400 साल पुराना नहीं, बल्कि मात्र 170 साल पुराना है और इसे किसी इतिहास के अंपायर ने नहीं, बल्कि उत्तरकाशी के हर्सिल क्षेत्र में आए बेहद चर्चित अंग्रेज सैनिक और टिंबर व्यवसाय के बेताज बादशाह फेड्रिक विल्सन ने बनाया था. फेड्रिक विल्सन एक शिकारी भी था और हर्सिल क्षेत्र में ब्रिटिश काल के दौरान अंधाधुंध शिकार किया करता था.

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चट्टान को चीरकर 136 मीटर का लकड़ी के पट्टों पर बनाया गया पुल.

फेड्रिक विल्सन नाम का व्यक्ति था अहम: वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं बताते हैं कि पूरे हिमालय क्षेत्र में अगर इस तरह का निर्माण की सामर्थ्य किसी में थी, तो वह फेड्रिक विल्सन ही था. 200 साल के ब्रिटिश काल के दौरान भी भैरव घाटी में बने इस लकड़ी के अनोखे स्ट्रक्चर का जिक्र कहीं भी नहीं आता है. उन्होंने बताया कि सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्र में हर एक ज्योग्राफिकल स्ट्रक्चर के निशान मिलते हैं, लेकिन उनका कोई निशान सर्वे ऑफ इंडिया के किसी मैप में भी नहीं मिलता है. अब सवाल आता है कि फेड्रिक विल्सन ने ही इस पुल को बनाया है, इसके पीछे क्या तथ्य है. दरअसल फेड्रिक विल्सन एक टिंबर व्यवसायी के साथ-साथ एक शिकारी भी था. जिसके पास शिकार के लिए तकरीबन 2000 लोगों की संख्या थी और उनके पास बंदूकें भी थीं.

know about real story of gartang gali
गरतांग गली पुल निर्माण में फेड्रिक विल्सन ने निभाई थी अहम भूमिका.
पढ़ें- इंजीनियरिंग का नायाब नमूना हैं गरतांग गली की सीढ़ियां, 65 लाख की लागत से हुआ पुनर्निर्माण

फेड्रिक विल्सन ने 1860 से 1870 के दशक में किया था पुल निर्माण: वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने अपने शोध में पाया कि इस गरतांग गली पुल का निर्माण फेड्रिक विल्सन ने 1860 से 1870 के दशक में किया है. विल्सन ने इस तरह के लकड़ी के पुल के बारे में अपनी 1860 में संपादित की गई पुस्तक में जिक्र किया है. किताब में विल्सन की कल्पनाएं बिल्कुल इसी पुल से मैच खाती हैं. 1860 में प्रकाशित पुस्तक "हिमालय ए समर रंबल" में विल्सन लिखते हैं कि उजाड़ गंगा के ऊपर खड़ी चट्टानों के बीच पुल बनाया जाना संभव है. हालांकि विल्सन यहां सीधा-सीधा कुछ भी नहीं लिखते हैं, लेकिन इसी तरह के पुल के निर्माण और उसमें आने वाली चुनौतियों का वह जिक्र जरूर करते हैं.

माउंटेनियर पेन नेम का इस्तेमाल करता था विल्सन: इसी तरह से एक और लेख में विल्सन लिखते हैं कि भागीरथी नदी की सहायक नदी जाड़ गंगा के 200 मीटर ऊपर ग्रेनाइट की खड़ी चट्टाने हैं. वहां पर ना तो मिट्टी है और ना पोषण के लिए पानी है, लेकिन फिर भी वहां पर झाइयां उगती हैं. शोधकर्ता ने बताया कि विल्सन की एक खास बात थी कि वह कोई भी लेख सीधे अपने नाम से नहीं लिखते थे, बल्कि वह अपने नाम की जगह माउंटेनियर पेन नेम का इस्तेमाल करते थे. विल्सन ने अपने इसी पेन नेम से ही "ए समर रैंबल इन द हिमालयाज" किताब का प्रकाशन और संपादन किया था. इसी तरह से 1973 में प्रकाशित एक लेख जिसका शीर्षक था "ए स्टॉक इन तिब्बत" में विल्सन ने तिब्बत की एक छोटी सी यात्रा का जिक्र किया था. जिसमें उसने हिमालय की भौगोलिक स्थितियों को इंग्लैंड की तुलना में बेहद चुनौती भरा पाया था. साथ ही उसने अपने लेख में भैरव घाटी और गरतांग गली से होते हुए नेलांग की दूरी 6 मील बताई थी.

टिंबर टाइकून विल्सन ने देहरादून से उत्तरकाशी तक बनाए सारे पुल: टिहरी के राजा ने विल्सन को हरसिल क्षेत्र में लकड़ी के कटान का ठेका दिया था. विल्सन हरसिल से लकड़ी को पानी में तैराकर हरिद्वार तक सप्लाई करता था. लेकिन अन्य जरूरतों के लिए विल्सन ने देहरादून से लेकर उत्तरकाशी तक तमाम तरह का रोड इन्फ्राट्रक्चर का डेवलपमेंट करवाया. यह उसने जनहित के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यवसाय के लिए करवाया था. सवाल यह उठता है कि विल्सन ने भैरव घाटी में गरतांग गली ब्रिज क्यों बनाया. वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू बताते हैं कि विल्सन पहले ब्रिटिश सेना में काम करता था और वह अफगान युद्ध के दौरान वहां से भाग आया था. उसके बाद वह टिहरी रियासत में राजा की शह पर हरसिल क्षेत्र में रहने लगा.

हरसिल क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ बनाने वाले विल्सन को ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत की सूचनाएं प्राप्त करने के लिए एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रयोग किया और तिब्बत की तमाम सूचनाओं के लिए विल्सन का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार किया करती थी. फेड्रिक विल्सन अपनी इच्छाशक्ति और व्यावहारिक जीवन में लीक से हटकर काम करने के लिए जाना जाता था. उसने हिमालय क्षेत्र में तमाम झूला पुल का निर्माण किया और उसकी इस सामर्थ्य और इच्छाशक्ति से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भैरव घाटी में बने गरतांग गली के पुल को उसने ही बनाया है.
ये भी पढ़ें: देवभूमि पहुंचे यूपी में धूल फांकते मसूरी-देहरादून के 150 साल पुराने अभिलेख, भू माफ़ियाओं के फर्जीवाड़े पर लगा ब्रेक

Last Updated : Jul 15, 2023, 7:20 PM IST
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