हैदराबाद: संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) के अनुसार, युद्ध, उत्पीड़न, आतंक या आपदाओं से बचने के लिए 70 मिलियन से अधिक लोग अपने घरों से भागने के लिए मजबूर हुए हैं. आंकड़ों के मुताबिक 2018 में हर मिनट 25 लोग अपने घरों से भागने को मजबूर हुए.
20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस मनाया जाता है. इसका उद्देश्य दुनियाभर में शरणार्थियों की दुर्दशा के लिए दीर्घकालिक समाधान की दिशा में काम करना है. विश्व शरणार्थी दिवस शरणार्थियों के अधिकारों, जरूरतों और उम्मीदों पर प्रकाश डालता है. यह राजनीतिक मदद और संसाधनों को जुटाने में मदद करता है, ताकि शरणार्थी न केवल जीवित रह सकें, बल्कि उनका सर्वांगीण विकास हो सके.
हर एक दिन शरणार्थियों के जीवन की रक्षा और उसके स्तर को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है, विश्व शरणार्थी दिवस जैसे अंतर्राष्ट्रीय दिवस शरणार्थियों की दुर्दशा पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करने में मदद करते हैं. इस दिन ऐसे कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जो शरणार्थियों की मदद करने के अवसर प्रदान करते हैं.
विश्व शरणार्थी दिवस का इितहास
विश्व शरणार्थी दिवस को हर वर्ष 20 जून को दुनियाभर के शरणार्थियों के लिए मनाया जाता है. इसका उद्देश्य विश्व का ध्यान शरणार्थियों की दुर्दशा की तरफ केंद्रित करना है. इस दिवस को सबसे पहली बार वर्ष 2001 में 1951 कन्वेंशन की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मनाया गया था.
मूल रूप से इसे अफ्रीका शरणार्थी दिवस (Africa Refugee Day) के नाम से जाना जाता था. दिसंबर 2000 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसका नाम बदलकर विश्व शरणार्थी दिवस कर दिया.
थीम 2020- हर एक्शन मायने रखता है
इस वर्ष विश्व शरणार्थी दिवस की थीम है-हर व्यक्ति का योगदान मायने रखता है (Every Action Counts). कोविड-19 महामारी और हाल ही में नस्लवाद विरोधी प्रदर्शनों ने समावेशी और समान दुनिया के लिए लड़ाई के महत्व को दर्शाया है: एक ऐसी दुनिया जहां कोई भी पीछे नहीं रहता, सभी साथ और बराबर होते हैं. इससे पहले यह इतना स्पष्ट कभी नहीं था कि बदलाव लाने में हम सभी की भूमिका है. हर व्यक्ति अपने योगदान से बदलाव ला सकता है.
शरणार्थियों से जुड़े तथ्य
⦁ हर मिनट 20 लोग अपना सबकुछ छोड़कर भागने को मजबूर हो जाते हैं. इसका कारण युद्ध, उत्पीड़न या आतंकवाद होता है.
⦁ 79.5 मिलियन लोग मजबूरी में अपने घरों को छोड़ चुके हैं. इनमें से 30-34 मिलियन शरणार्थी 18 वर्ष की आयु से कम के हैं
⦁ दुनिया की जनसंख्या का एक प्रतिशत हिस्सा विस्थापित हो गया है
⦁ दुनिया के विस्थापित लोगों का 80% खाद्य असुरक्षा और कुपोषण से प्रभावित देशों या क्षेत्रों में है
⦁ विस्थापितों में से 73% लोग पड़ोसी देशों में रह रहे हैं
⦁ दुनियाभार के विस्थापितों में से 68% सिर्फ पांच देशों- सीरिया, वेनेजुएला, अफगानिस्तान, दक्षिण सूडान और म्यांमार से आते हैं
⦁ विश्व में 4.2 मिलियन ऐसे लोग हैं जो किसी देश के नागरिक नहीं हैं या राज्यविहिन हैं
⦁ 4.2 मिलियन लोगों ने दुनिया के विभिन्न देशों में शरण के लिए आवेदन किया है
⦁ वर्ष 2019 में 26 देशों में 1,07,800 लोगों का पुनर्वास किया गया था
⦁ लगभग 45.7 मिलियन लोग आंतरिक रूप से विस्थापित (अपने देशों के भीतर) हैं
⦁ शरणार्थी परिवारों में से लगभग 70% गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं
सबसे ज्यादा प्रभावित देश
⦁ सीरिया- 6.6 मिलियन
⦁ वेनेजुएला- 4.4 मिलियन
⦁ अफगानिस्तान- तीन मिलियन
⦁ दक्षिण सूडान- 2.2 मिलियन
⦁ म्यांमार- 1.1 मिलियन
⦁ सोमालिया- 0.9 मिलियन
⦁ कांगो- 0.8 मिलियन
⦁ सूडान- 0.7 मिलियन
⦁ इराक- 0.6 मिलियन
⦁ मध्य अफ्रीकी गणराज्य- 0.6 मिलियन
भारत व 1951 कन्वेंशन
2017 की यूएनएचसीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2,00,000 शरणार्थी हैं. यह शरणार्थी म्यांमार, अफगानिस्तान, सोमालिया, तिब्बत, श्रीलंका, पाकिस्तान, फिलिस्तीन और बर्मा जैसे देशों से हैं.
यूएनएचसीआर ने शरणार्थी संकट से निपटने के लिए भारत की सराहना करते हुए कहा कि अन्य देशों के लिए यह एक मॉडल है. हालांकि, भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन का हिस्सा नहीं है.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के सामने पहली बार कन्वेंशन प्रस्तावित किया गया था. उस समय भारत ने इसे शीत युद्ध की रणनीति के रूप में देखा था.
1953 में भारत के विदेश कार्यालय (आरके नेहरू के माध्यम से) ने शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र आयुक्त के कार्यालय से कहा कि वैश्विक शरणार्थी नीति शीत युद्ध का हिस्सा थी. 1951 के कन्वेंशन को 1967 के प्रोटोकॉल से संशोधित किया गया था.
स्वतंत्रता के बाद के भारत ने तटस्थ रहने के इरादे से कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया था. भारत ने इसका कोई आधिकारिक कारण नहीं दिया है. संभावित कारणों में से एक कन्वेंशन में 'शरणार्थी' शब्द की परिभाषा हो सकती है.
भारत में शरणार्थी
तिब्बती शरणार्थी-आजादी के बाद 1959 में तिब्बत से भारत में बड़ी संख्या में शरणार्थी आए. इनमें दलाई लामा और उनके 100,000 अनुयायी शामिल थे. भारत ने उनको राजनीतिक शरण देदी थी. मानवीय आधार पर उन्हें शरण देना भारत सरकार के लिए महंगा साबित हुआ. भारत के चीन के संबंध खराब हो गए.
तिब्बती शरणार्थी उत्तरी और उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों में बस गए. तिब्बती समुदाय के आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता दलाई लामा को धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश में जगह दी गई. आज तक तिब्बत की निर्वासित सरकार वहीं से चल रही है.
बंगाली शरणार्थी-1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान अगला बड़ा शरणार्थी संकट आया. इस दौरान लाखों शरणार्थी बांग्लादेश से भारत चले आए. इससे बांग्लादेश की सीमा से लगे राज्यों में जनसंख्या में अचानक वृद्धि हो गई और भारत सरकार के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना कठिन हो गया.
अनुमानों के अनुसार 1971 में 10 मिलियन से अधिक बांग्लादेशी शरणार्थियों ने भारत में शरण ली. स्थानीय समुदायों और बांग्लादेशी शरणार्थियों के बीच लगातार झड़पें होती रहती हैं. झड़पें अकसर हिंसक रूप ले लेती हैं और यह असम, त्रिपुरा और मणिपुर में सबसे ज्यादा है.
स्थानीय समुदायों और आदिवासी समूहों ने आरोप लगाया है कि बांग्लादेश से आए शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों के निरंतर प्रवाह के कारण उस क्षेत्र की सामाजिक जनसांख्यिकी में बदलाव आया है. इससे स्थानीय लोग ही अल्पसंख्यक बन गए हैं. यह 2012 में असम के कोकराझार दंगों के पीछे के मुख्य कारणों में से एक था, जिसमें 80 से अधिक लोगों की मौत हुई थी.
श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी-श्रीलंका से आए ज्यादातर शरणार्थी तमिलनाडु राज्य में बस गए, क्योंकि वह श्रीलंका के सबसे करीब है. इनकी संख्या एक मिलियन से अधिक है. 1983 से 1987 के बीच 1.34 लाख श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी भारत आए थे. इसके बाद तीन चरणों में और शरणार्थी भारत आए. गृहयुद्ध की वजस से श्रीलंका से भागे लोगों ने भारत में शरण ली. तामिलनाडु के 109 कैंपों में 60,000 से ज्यादा शरणार्थी रह रहे हैं.
अफगान शरणार्थी-1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद कई अफगानों ने भारत में शरण ली. अफगान शरणार्थियों के छोटे समूह बाद के वर्षों में भारत आते रहे. यह लोग दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों में रह रहे हैं. यूएनएचसीआर की वेबसाइट के अनुसार 1990 के दशक की शुरुआत में भारत आने वाले कई हिंदू और सिख अफगानों को पिछले एक दशक में नागरिकता दी गई है. यूएनएचसीआर और विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 200,000 अफगान शरणार्थी रह रहे हैं.
रोहिंग्या मुसलमान-2017 में 40,000 रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार से भागकर भारत आ गए थे. यूएनएचसीआर के कार्यालय ने भारत में लगभग 16,500 रोहिंग्याओं का पहचान पत्र जारी किया है. इससे शरणार्थियों के उत्पीड़न, गिरफ्तारी और निर्वासन को रोकने में मदद मिलती है. हालांकि, भारत रोहिंग्याओं को अवैध प्रवासी और सुरक्षा के लिए खतरा मानता है.
भारत सरकार ने कहा है कि शरणार्थियों को अपने मूल देश वापस जाने के लिए मजबूर नहीं करने का कानून भारत पर लागू नहीं होता है, क्योंकि वह 1951 के शरणार्थियों के सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है. भारत सरकार ने म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस लेने की अपील की है.
चकमा और हाजोंग समुदाय-कई समुदाय जो चटगांव के पहाड़ी इलाकों में रहते थे, भारत में पांच दशकों से अधिक समय से शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं. इनमें से ज्यादातर उत्तर-पूर्व और पश्चिम बंगाल में हैं. चटगांव के अधिकांश पहाड़ी इलाके बांग्लादेश में स्थित हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में 47,471 चकमा लोग रह रहे हैं. 2015 में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को चकमा और हाजोंग समुदाय के लोगों को नागरिकता प्रदान करने का आदेश दिया था. पिछले साल सरकार ने उनको नागरिकता प्रदान करने का फैसला किया. हालांकि, कई समूहों ने इसका विरोध भी किया है.
कोविड-19 में शरणार्थी
कोविड-19 महामारी ने शरणार्थियों के साथ-साथ शरण प्रणालियों को भी प्रभावित किया है. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए दुनियाभर के देशों ने अपनी सीमाओं को बंद कर दिया है. मार्च 2020 में यूरोपीय संघ में शरण आवेदनों की संख्या फरवरी की तुलना में 43 प्रतिशत कम हो गई.
दुनिया के अन्य हिस्सों में शरणार्थियों के पंजीकरण में बड़ी बाधाएं आईं. इस वजह से महामारी से प्रभावित हुए शरणार्थियों का सही आंकड़ा मिल पाना मुश्किल है.