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जानिए, बिहार में कितना मायने रखेंगे अगड़ी जातियों के वोट - ऊंची जातियों के वोट

बिहार चुनाव में जातीय समीकरण सभी राजनीतिक दलों के लिए हमेशा से एक महत्वपूर्ण और जबरदस्त बल रहा है. बिहार की राजनीति में ऊंची जातियों में जो जातियां प्रमुख भूमिका निभाती हैं उनमें मुख्य रूप से ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार हैं. इसके अलावा छोटे उप-समूहों को मिलाकर ऊंची जातियों के वोट की कुल हिस्सेदारी का करीब 15 फीसद हैं. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के दृष्टिकोण से अगड़ी जातियों के वोट कितने अहम होंगे. पढ़ें ईटीवी भारत के ब्यूरो चीफ अमित भेलारी की विशेष रिपोर्ट

बिहार चुनाव में अगड़ी जातियों का वोट
बिहार चुनाव में अगड़ी जातियों का वोट
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Published : Sep 28, 2020, 5:16 PM IST

Updated : Sep 28, 2020, 7:55 PM IST

पटना : बिहार में ऊंची जाति के मतदान के रुझान के रिकॉर्ड को देखें तो उन्होंने हमेशा से भाजपा और उसके सहयोगियों का समर्थन किया है. जिस तरह की सोशल इंजीनियरिंग से बिहार गुजरा है, उसमें यह पाया गया है कि हर राजनीतिक दल में एक विशेष जाति का समूह बनाया गया है. संख्या में कम होने के बावजूद सवर्ण आज भी बिहार की राजनीति में काफी प्रभाव रखते हैं.

वह चाहे दलित मोर्चा हो या सवर्ण मोर्चा हर राजनीतिक दल में एक कोटा तय होता है और उसी के अनुसार प्रतिनिधित्व दिया जाता है. यही वजह है कि प्रत्येक क्षेत्रीय पार्टी का नेता ऊंची जाति के एक प्रभावशाली नेता को अपने साथ रखता है. इसका मकसद लोगों के बीच एक राजनीतिक संदेश भेजना होता है. चाहे वह जदयू के संजय झा हों, राजद के जगदानंद सिंह और शिवानंद तिवारी हों या भाजपा के मंगल पांडे हों, ऊंची जाति का एक भाग सभी राजनीतिक दलों में दिखाई देता है. लेकिन, भाजपा हमेशा से ऊंची जाति से जुड़े मुद्दों को उठाकर उनके वोट को अपने पक्ष में मजबूत करना सुनिश्चित करती रही है.

243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 40 आरक्षित सीटें है. इनमें 38 अनुसूचित जाति के लिए और 2 अनुसूचित जनजातियों के लिए हैं. आंकड़े को देखें तो फिलहाल ऊंची जातियों के 53 विधायक हैं.

ऊंची जातियों पर भाजपा की पकड़ !
गुजरे हुए समय पर नजर डालना बहुत महत्वपूर्ण है जिसके कारण ऊंची जाति के मतदान के प्रतिमान में बदलाव आया. जब 90 के दशक के अंत में जनता पार्टी ने मंडल आयोग के जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लुभाने की कोशिश की तो इसी तरह भाजपा ने कमंडल (राम जन्मभूमि पढ़ें ) के माध्यम से ऊंची जातियों को संगठित करने की कोशिश की. भाजपा की ऊंची जाति पर आज तक मजबूत पकड़ है.

कांग्रेस ने जब वर्ष 2000 से लालू प्रसाद का समर्थन करना शुरू किया तब से मुख्य रूप से कांग्रेस के समर्थक रहीं ऊंची जातियों ने अपनी निष्ठा भाजपा के पक्ष में बदल ली.

लालू की दरकिनार करने की कोशिशें
बिहार में ऊंची जाति वास्तव में तभी से लड़ाई लड़ रही है जब 90 के दशक में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने . ऊंची जाति और राजद के बीच तनाव तब और बढ़ गया जब लालू ने भू-रा-बा-ल साफ कारो का आह्वान किया. बदनामी वाले इस नारे से ऊंची जाति के बीच एक धारणा बनाई गई कि लालू भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे हैं. लालू ने सार्वजनिक सभाओं में कई बार इस तरह की बातें कहने से इनकार किया था लेकिन यह संदेश जंगल की आग की तरह फैल गया.

भूमिहार और लालू का समीकरण
बाद में, दलित समूह के नेतृत्व में नक्सलियों और और रणवीर सेना (स्वर्गीय ब्रह्मेश्वर मुखिया द्वारा स्थापित एक भूमिहारों का एक प्रतिबंधित सगठन ) के बीच नरसंहारों सिलसिला चला. इसने दोनों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया . जहानाबाद जिले के सेनारी गांव में मार्च 1999 में, 34 भूमिहारों की एमसीसी (माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) ने हत्या कर दी. बिहार के भूमिहार अब भी राजद को निशाना बनाने के लिए उस घटना को लालू से जोड़कर देखते हैं क्योंकि लालू ने कभी भी जनसंहार वाले उन स्थलों का दौरा नहीं किया जहां ऊंची जाति के लोग मारे जाते थे. राजनीतिक पर्यवेक्षक का मानना है कि वर्तमान परिदृश्य में सचाई यह है कि ऊंची जाति भाजपा उम्मीदवार के लिए वोट करेगी लेकिन जेडीयू उम्मीदवार के लिए नहीं, भले ही वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का उम्मीदवार होगा.

यह भी पढ़ें: 28 अक्टूबर से तीन चरणों में मतदान, 10 नवंबर को आएंगे नतीजे

उच्च जाति आयोग का गठन
मतदाताओं के बीच ऊंची जाति एक धारणा बनाने के लिए जिम्मेदार है कि निर्णय लेने में उनका प्रभाव बहुत मायने रखता है. 2011 में नीतीश कुमार ने भी राजग (एनडीए) का नेता होने के नाते ऊंची जातियों के बीच गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए एक उच्च जाति आयोग का गठन किया था. हालांकि, सरकार ने बाद इस आयोग को भंग कर दिया. वर्ष 2013 में जब जदयू और बीजेपी के बीच अलगाव हुआ तो सवर्ण वोट सिर्फ बीजेपी के पास ही रहा.

यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव में एनडीए की जीत का अनुमान : सर्वे

ऊंची जाति के नेताओं को शीर्ष पद
देर से सही लेकिन राजद भी लोगों के बीच यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहा है कि पार्टी ऊंची जाति के अनुकूल है. यही कारण हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में राजद ने ऊंची जाति के नेताओं को शीर्ष पद और प्रतिनिधित्व की पेशकश की है. राजद अब ऊंची जाति के लोगों का दिल जीतना चाहता है और एमवाई (मुस्लिम-यादव) वाले गुणक से बाहर आना चाहता है. ऊंची जाति को लुभाने के लिए राजद ने राज्य सभा की सीट पर जीत के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार अखिलेश सिंह की मदद की जो भूमिहार उम्मीदवार थे और इसी जाति के एक अन्य नेता अमरेन्द्र धारी सिंह को भी राज्य सभा भेजा. लेकिन, राजद ने आर्थिक रूप से पिछड़ी सवर्ण जातियों को 10 फीसदी आरक्षण देने के राजग सरकार के कदम का जिस तरह से विरोध किया, राजद के लिए उनका विश्वास हासिल करना कठिन है.

यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव से पहले बड़ा बदलाव, इन चेहरों को मिली जगह

बिहार में सवर्णों ने शासन
कांग्रेस के लिए भी सवर्णों के बीच घुसपैठ करना मुश्किल है क्योंकि भाजपा ने आज तक अपनी गति बनाए रखी है. 1967 से 1972 के बीच के कुछ अंतराल को छोड़ दें जब मुख्यमंत्री दरोगा प्रसाद राय, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और भोला पासवान शास्त्री जैसे गैर सवर्ण जातियों के मुख्यमंत्री रहे तो आजादी के बाद से वर्ष 1990 तक कांग्रेस सरकार के रूप में राज्य पर सवर्णों ने शासन किया है. प्रदेश में वर्तमान सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से इन पर दावेदारी करने वालों की संख्या कई गुना बढ़ जाने से बिहार में ऊंची जातियों का महत्व बहुत बढ़ गया है.

पटना : बिहार में ऊंची जाति के मतदान के रुझान के रिकॉर्ड को देखें तो उन्होंने हमेशा से भाजपा और उसके सहयोगियों का समर्थन किया है. जिस तरह की सोशल इंजीनियरिंग से बिहार गुजरा है, उसमें यह पाया गया है कि हर राजनीतिक दल में एक विशेष जाति का समूह बनाया गया है. संख्या में कम होने के बावजूद सवर्ण आज भी बिहार की राजनीति में काफी प्रभाव रखते हैं.

वह चाहे दलित मोर्चा हो या सवर्ण मोर्चा हर राजनीतिक दल में एक कोटा तय होता है और उसी के अनुसार प्रतिनिधित्व दिया जाता है. यही वजह है कि प्रत्येक क्षेत्रीय पार्टी का नेता ऊंची जाति के एक प्रभावशाली नेता को अपने साथ रखता है. इसका मकसद लोगों के बीच एक राजनीतिक संदेश भेजना होता है. चाहे वह जदयू के संजय झा हों, राजद के जगदानंद सिंह और शिवानंद तिवारी हों या भाजपा के मंगल पांडे हों, ऊंची जाति का एक भाग सभी राजनीतिक दलों में दिखाई देता है. लेकिन, भाजपा हमेशा से ऊंची जाति से जुड़े मुद्दों को उठाकर उनके वोट को अपने पक्ष में मजबूत करना सुनिश्चित करती रही है.

243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 40 आरक्षित सीटें है. इनमें 38 अनुसूचित जाति के लिए और 2 अनुसूचित जनजातियों के लिए हैं. आंकड़े को देखें तो फिलहाल ऊंची जातियों के 53 विधायक हैं.

ऊंची जातियों पर भाजपा की पकड़ !
गुजरे हुए समय पर नजर डालना बहुत महत्वपूर्ण है जिसके कारण ऊंची जाति के मतदान के प्रतिमान में बदलाव आया. जब 90 के दशक के अंत में जनता पार्टी ने मंडल आयोग के जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लुभाने की कोशिश की तो इसी तरह भाजपा ने कमंडल (राम जन्मभूमि पढ़ें ) के माध्यम से ऊंची जातियों को संगठित करने की कोशिश की. भाजपा की ऊंची जाति पर आज तक मजबूत पकड़ है.

कांग्रेस ने जब वर्ष 2000 से लालू प्रसाद का समर्थन करना शुरू किया तब से मुख्य रूप से कांग्रेस के समर्थक रहीं ऊंची जातियों ने अपनी निष्ठा भाजपा के पक्ष में बदल ली.

लालू की दरकिनार करने की कोशिशें
बिहार में ऊंची जाति वास्तव में तभी से लड़ाई लड़ रही है जब 90 के दशक में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने . ऊंची जाति और राजद के बीच तनाव तब और बढ़ गया जब लालू ने भू-रा-बा-ल साफ कारो का आह्वान किया. बदनामी वाले इस नारे से ऊंची जाति के बीच एक धारणा बनाई गई कि लालू भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे हैं. लालू ने सार्वजनिक सभाओं में कई बार इस तरह की बातें कहने से इनकार किया था लेकिन यह संदेश जंगल की आग की तरह फैल गया.

भूमिहार और लालू का समीकरण
बाद में, दलित समूह के नेतृत्व में नक्सलियों और और रणवीर सेना (स्वर्गीय ब्रह्मेश्वर मुखिया द्वारा स्थापित एक भूमिहारों का एक प्रतिबंधित सगठन ) के बीच नरसंहारों सिलसिला चला. इसने दोनों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया . जहानाबाद जिले के सेनारी गांव में मार्च 1999 में, 34 भूमिहारों की एमसीसी (माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) ने हत्या कर दी. बिहार के भूमिहार अब भी राजद को निशाना बनाने के लिए उस घटना को लालू से जोड़कर देखते हैं क्योंकि लालू ने कभी भी जनसंहार वाले उन स्थलों का दौरा नहीं किया जहां ऊंची जाति के लोग मारे जाते थे. राजनीतिक पर्यवेक्षक का मानना है कि वर्तमान परिदृश्य में सचाई यह है कि ऊंची जाति भाजपा उम्मीदवार के लिए वोट करेगी लेकिन जेडीयू उम्मीदवार के लिए नहीं, भले ही वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का उम्मीदवार होगा.

यह भी पढ़ें: 28 अक्टूबर से तीन चरणों में मतदान, 10 नवंबर को आएंगे नतीजे

उच्च जाति आयोग का गठन
मतदाताओं के बीच ऊंची जाति एक धारणा बनाने के लिए जिम्मेदार है कि निर्णय लेने में उनका प्रभाव बहुत मायने रखता है. 2011 में नीतीश कुमार ने भी राजग (एनडीए) का नेता होने के नाते ऊंची जातियों के बीच गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए एक उच्च जाति आयोग का गठन किया था. हालांकि, सरकार ने बाद इस आयोग को भंग कर दिया. वर्ष 2013 में जब जदयू और बीजेपी के बीच अलगाव हुआ तो सवर्ण वोट सिर्फ बीजेपी के पास ही रहा.

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ऊंची जाति के नेताओं को शीर्ष पद
देर से सही लेकिन राजद भी लोगों के बीच यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहा है कि पार्टी ऊंची जाति के अनुकूल है. यही कारण हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में राजद ने ऊंची जाति के नेताओं को शीर्ष पद और प्रतिनिधित्व की पेशकश की है. राजद अब ऊंची जाति के लोगों का दिल जीतना चाहता है और एमवाई (मुस्लिम-यादव) वाले गुणक से बाहर आना चाहता है. ऊंची जाति को लुभाने के लिए राजद ने राज्य सभा की सीट पर जीत के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार अखिलेश सिंह की मदद की जो भूमिहार उम्मीदवार थे और इसी जाति के एक अन्य नेता अमरेन्द्र धारी सिंह को भी राज्य सभा भेजा. लेकिन, राजद ने आर्थिक रूप से पिछड़ी सवर्ण जातियों को 10 फीसदी आरक्षण देने के राजग सरकार के कदम का जिस तरह से विरोध किया, राजद के लिए उनका विश्वास हासिल करना कठिन है.

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बिहार में सवर्णों ने शासन
कांग्रेस के लिए भी सवर्णों के बीच घुसपैठ करना मुश्किल है क्योंकि भाजपा ने आज तक अपनी गति बनाए रखी है. 1967 से 1972 के बीच के कुछ अंतराल को छोड़ दें जब मुख्यमंत्री दरोगा प्रसाद राय, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और भोला पासवान शास्त्री जैसे गैर सवर्ण जातियों के मुख्यमंत्री रहे तो आजादी के बाद से वर्ष 1990 तक कांग्रेस सरकार के रूप में राज्य पर सवर्णों ने शासन किया है. प्रदेश में वर्तमान सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से इन पर दावेदारी करने वालों की संख्या कई गुना बढ़ जाने से बिहार में ऊंची जातियों का महत्व बहुत बढ़ गया है.

Last Updated : Sep 28, 2020, 7:55 PM IST
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