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काशी में इस बार नहीं होगा रावण दहन...जाने क्यों - दशहरा पर कोरोना का ग्रहण

कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए इस साल वाराणसी में दशहरा पर्व पर रावण दहन के कार्यक्रम का आयोजन नहीं होगा. इस बात का निर्णय समाज सेवा संघ ने लिया है. बता दें कि तकरीबन 72 सालों से संघ द्वारा रावण दहन का कार्यक्रम किया जा रहा है.

समिति के अध्यक्ष से बातचीत.
समिति के अध्यक्ष से बातचीत.
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Published : Oct 21, 2020, 10:51 AM IST

वाराणसी: कोरोना के चलते धार्मिक नगरी काशी में दशहरे का रंग फीका पड़ गया है. काशी में सन् 1952 से रावण दहन की परंपरा शुरू है, लेकिन इस बार कोविड-19 के चलते इस परंपरा पर ग्रहण लग गया. इससे काशीवासियों में मायूसी छाई है. इस बार पंडालों व मूर्तियों की स्थापना भी नहीं की जा रही, जिससे रामलीला और रावण दहन पर संकट गहरा गया है. विजयादशमी पर प्रतिवर्ष असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाने वाला दशहरा पर्व इस वर्ष नहीं मनाया जाएगा.

समिति के अध्यक्ष से बातचीत.

बेनियाबाग मैदान से हुई थी शुरुआत
धार्मिक नगरी काशी में समाज सेवा संघ ने दशहरा पर्व पर रावण दहन की शुरुआत सन् 1952 में बेनियाबाग मैदान से की गई थी. उस समय बेनियाबाग मैदान में मेला लगता था और 60- 65 फीट लंबे रावण का दहन होता था. रावण दहन के कार्यक्रम को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे.

1964-2004 तक काशी विद्यापीठ में हुआ रावण दहन
बेनियाबाग मैदान से रावण दहन के कार्यक्रम को 12 साल बाद सिगरा स्थित महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के ग्राउंड में स्थानांतरित कर दिया गया. सन् 1962 से काशी विद्यापीठ के ग्राउंड में रावण दहन कार्यक्रम को भव्य तरीके से मनाना शुरू किया गया. काशी विद्यापीठ के प्रवेश द्वार तीन के बगल में स्थित ग्राउंड में रावण का विशाल पुतला दहल होता था, लेकिन 2004 के बाद इस परिसर में रावण पुतला दहन की अनुमति नहीं दी गई.

जिसके बाद शहर के मलदहिया चौराहे पर रावण के पुतले का दहन का कार्यक्रम शुरू किया गया. मलदहिया चौराहे पर सन् 2019 तक इस परंपरा का निर्वहन हो रहा. लेकिन इस बार कोरोना के चलते आयोजन समिति ने इस पुतला दहन कार्यक्रम को निरस्त कर दिया गया.

क्या कहते हैं आयोजक
समाज सेवा संघ के अध्यक्ष तिलकराज कपूर ने बताया कि पूरे विश्व में काशी को त्योहारों की काशी कहा जाता है. यहां कोई ऐसा दिन नहीं जाता, जब त्योहार न मनाया जाता है. त्योहारों की नगरी कहे जाने वाले काशी में दुर्गा पूजा, भरत मिलाप और रावण दहन का अपना विशेष महत्व है. सन् 1952 में कमेटी के अन्य सदस्यों ने देखा कि दिल्ली से लेकर अमृतसर तक और हिमांचल के अन्य जगहों पर बहुत बड़े-बड़े भव्य पुतले दहन किए जाते थे, लेकिन काशी में यह परंपरा नहीं थी.

उन्होंने कहा कि इस परंपरा को कमेटी ने शहर को बेनियाबाग मैदान से शुरू किया और काशी की जनता ने इस तरह के कार्यक्रम को खूब सराहा. सन् 2004 तक काशी विद्यापीठ के मैदान में प्रति वर्ष रावण दहन किया गया, जिसमें कई हजारों की संख्या में दूर दूर से लोग आते थे. खास बात यह है कि सन् 1952 से शुरू हुई यह परंपरा 2019 तक लगातार चलती रही, लेकिन इस वर्ष कोरोना के चलते यह परंपरा नहीं मनाई जाएगी.

यह है शासन की गाइडलाइन्स
शासन की गाइडलाइन के अनुसार, इस बार कोई भी त्योहार सार्वजनिक स्थानों पर नहीं मनाया जाएगा. अगर बंद हॉल में कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है तो उसमें कुल 50 फीसदी लोग ही हिस्सा लेंगे. ऐसे कार्यक्रमों में भी कोविड-19 के गाइडलाइन का पालन करना अनिवार्य होगा. शासन की गाइडलाइन के तहत 6-6 फीट की सोशल डिस्टेंसिंग रखना आवश्यक है. वहीं 65 साल से ज्यादा अवस्था के लोग और गर्भवती महिलाएं कार्यक्रम में नहीं शामिल हो सकती हैं.

वाराणसी: कोरोना के चलते धार्मिक नगरी काशी में दशहरे का रंग फीका पड़ गया है. काशी में सन् 1952 से रावण दहन की परंपरा शुरू है, लेकिन इस बार कोविड-19 के चलते इस परंपरा पर ग्रहण लग गया. इससे काशीवासियों में मायूसी छाई है. इस बार पंडालों व मूर्तियों की स्थापना भी नहीं की जा रही, जिससे रामलीला और रावण दहन पर संकट गहरा गया है. विजयादशमी पर प्रतिवर्ष असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाने वाला दशहरा पर्व इस वर्ष नहीं मनाया जाएगा.

समिति के अध्यक्ष से बातचीत.

बेनियाबाग मैदान से हुई थी शुरुआत
धार्मिक नगरी काशी में समाज सेवा संघ ने दशहरा पर्व पर रावण दहन की शुरुआत सन् 1952 में बेनियाबाग मैदान से की गई थी. उस समय बेनियाबाग मैदान में मेला लगता था और 60- 65 फीट लंबे रावण का दहन होता था. रावण दहन के कार्यक्रम को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे.

1964-2004 तक काशी विद्यापीठ में हुआ रावण दहन
बेनियाबाग मैदान से रावण दहन के कार्यक्रम को 12 साल बाद सिगरा स्थित महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के ग्राउंड में स्थानांतरित कर दिया गया. सन् 1962 से काशी विद्यापीठ के ग्राउंड में रावण दहन कार्यक्रम को भव्य तरीके से मनाना शुरू किया गया. काशी विद्यापीठ के प्रवेश द्वार तीन के बगल में स्थित ग्राउंड में रावण का विशाल पुतला दहल होता था, लेकिन 2004 के बाद इस परिसर में रावण पुतला दहन की अनुमति नहीं दी गई.

जिसके बाद शहर के मलदहिया चौराहे पर रावण के पुतले का दहन का कार्यक्रम शुरू किया गया. मलदहिया चौराहे पर सन् 2019 तक इस परंपरा का निर्वहन हो रहा. लेकिन इस बार कोरोना के चलते आयोजन समिति ने इस पुतला दहन कार्यक्रम को निरस्त कर दिया गया.

क्या कहते हैं आयोजक
समाज सेवा संघ के अध्यक्ष तिलकराज कपूर ने बताया कि पूरे विश्व में काशी को त्योहारों की काशी कहा जाता है. यहां कोई ऐसा दिन नहीं जाता, जब त्योहार न मनाया जाता है. त्योहारों की नगरी कहे जाने वाले काशी में दुर्गा पूजा, भरत मिलाप और रावण दहन का अपना विशेष महत्व है. सन् 1952 में कमेटी के अन्य सदस्यों ने देखा कि दिल्ली से लेकर अमृतसर तक और हिमांचल के अन्य जगहों पर बहुत बड़े-बड़े भव्य पुतले दहन किए जाते थे, लेकिन काशी में यह परंपरा नहीं थी.

उन्होंने कहा कि इस परंपरा को कमेटी ने शहर को बेनियाबाग मैदान से शुरू किया और काशी की जनता ने इस तरह के कार्यक्रम को खूब सराहा. सन् 2004 तक काशी विद्यापीठ के मैदान में प्रति वर्ष रावण दहन किया गया, जिसमें कई हजारों की संख्या में दूर दूर से लोग आते थे. खास बात यह है कि सन् 1952 से शुरू हुई यह परंपरा 2019 तक लगातार चलती रही, लेकिन इस वर्ष कोरोना के चलते यह परंपरा नहीं मनाई जाएगी.

यह है शासन की गाइडलाइन्स
शासन की गाइडलाइन के अनुसार, इस बार कोई भी त्योहार सार्वजनिक स्थानों पर नहीं मनाया जाएगा. अगर बंद हॉल में कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है तो उसमें कुल 50 फीसदी लोग ही हिस्सा लेंगे. ऐसे कार्यक्रमों में भी कोविड-19 के गाइडलाइन का पालन करना अनिवार्य होगा. शासन की गाइडलाइन के तहत 6-6 फीट की सोशल डिस्टेंसिंग रखना आवश्यक है. वहीं 65 साल से ज्यादा अवस्था के लोग और गर्भवती महिलाएं कार्यक्रम में नहीं शामिल हो सकती हैं.

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