वाराणसी: नाग पंचमी पर वैसे तो नाग देवता की पूजा होती है, लेकिन इस त्यौहार पर कुछ ऐसी परंपराएं भी हैं, जिनका निर्वहन धर्म नगरी काशी में होता आया है. अखाड़ों में कुश्ती दंगल और जोड़ी, गदा प्रतियोगिता होती है. काशी के अखाड़ों का अपना एक अलग इतिहास रहा है. तुलसीदास से लेकर कबीर और संत महात्मा भी अखाड़ों के बल पर अपने शरीर को मजबूत करने की सीख दिया करते थे. जिसकी वजह से आज भी बनारस में कुछ ऐसे पुराने अखाड़े हैं, जो इसका सबूत हैं.
तुलसीदास द्वारा स्थापित अखाड़ा आज भी काशी में स्थापित है. इसके अलावा काशी में 1936 से लेकर अब तक के कई पुरातन अखाड़े भी हैं. लेकिन समय के साथ अब इन अखाड़ों के अस्तित्व पर संकट है. एक समय जहां बनारस में 30 से 35 अखाड़े हुआ करते थे. अब इनकी संख्या सिर्फ चार से पांच रह गई है. तेजी से बदल रहे समय और युवाओं का जिम के प्रति बढ़ रहा के क्रेज अखाड़ों के अस्तित्व को संकट में डाल रहा है. वहीं, बचे हुए अखाड़ें आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं. या यूं कहें नाग पंचमी के मौके पर परंपराओं का निर्वहन करते हुए फिर खुद को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं.
भग्गू पहलवान का कहना है कि बनारस में पहले गली-गली में अखाड़े हुआ करते थे. हर गली में अखाड़ों के होने का मकसद वहां के लोगों को फिट रखने की कोशिश को आगे बढ़ाना था. युवा अपने समय से अखाड़े पहुंचते थे. रियाज मारते थे, कुश्ती दंगल लड़ते थे और अपने आप को फिट रख कर अपने शरीर को अंदर से मजबूत बनाते थे. दूध, मलाई, रबड़ी और काजू किसमिस के बल पर शरीर बना करता था, लेकिन अब यह बातें बीते समय की हो गई हैं. अब तो जिम वाले बच्चे पैदा हो रहे हैं. जिम की एक्सरसाइज करके पाउडर और इंजेक्शन से शरीर मजबूत तो बना लेते हैं, लेकिन ताकत नहीं रहती.
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भग्गू पहलवान ने बताया कि पहले पंडा जी का अखाड़ा, राजमंदिर अखाड़ा, तकिया मोहल्ला अखाड़ा, अखाड़ा शकूर खलीफा, बड़ा गणे अखाड़ा, राम सिंह अखाड़ा, जग्गू सेठ अखाड़ा, रामकुंड अखाड़ा, गया सेठ अखाड़ा, संत राम अखाड़ा, नागनाथ अखाड़ा, स्वामीनाथ अखाड़ा, वृद्धकाल अखाड़ा समेत कई अन्य अखाड़े मौजूद थे. वर्तमान समय में धीरे-धीरे इन अखाड़ों का वजूद खत्म होता जा रहा है. अब आलम यह है कि गिने-चुने चार से पांच अखाड़े बचे हैं. जहां सिर्फ नाम की ही चीजें होती हैं.
इन अखाड़ों से निकलने वाले पहलवान भी यहीं मानते हैं कि अब अखाड़े सरकारी उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं. पहले अखाड़ों की मिट्टी से दंगल कुश्ती लड़ने वाले पहलवान नेशनल इंटरनेशनल लेवल तक पहुंच जाते थे, लेकिन अब जब गद्दे वाली कुश्ती होने लगी है. तो इन अखाड़ों का वजूद खत्म हो रहा है. अब युवा इससे दूर होते जा रहे हैं. वहीं, बनारस के रामसिंह अखाड़े कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान निकाले हैं. हिंद केसरी, यूपी केसरी, बनारस केसरी जैसे सम्मान इन अखाड़ों से निकले बड़े-बड़े पहलवानों को मिल चुके हैं.
इन अखाड़ों से लक्ष्मी कांत पांडेय जिन्होंने 1952 में मेलबर्न ओलंपिक में मेडल हासिल किया था. झारखंड राय उत्तर प्रदेश केसरी का सम्मान पा चुके हैं. बनारसी पांडेय अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान हैं, जबकि अशोक यादव आज भी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर की रेसलिंग में रेफरी की भूमिका निभाते हैं. एशियाड में रजत पदक विजेता भी हैं. इसके अलावा बनारस के इन्हीं आंकड़ों से उत्तर प्रदेश केसरी के रूप में चयनित आत्माराम श्यामू पहलवान समेत कई अन्य बड़े पहलवान भी बनारस के इन्हीं अखाड़ों से निकले हैं, लेकिन अब युवा इन अखाड़ों से दूर हो रहे हैं.
अखाड़ों की देखरेख करने वाले पहलवानों का भी यही मानना है कि सरकार को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है. युवाओं को जिम के आर्टिफिशियल शरीर से बेहतर अखाड़ों के मजबूत शरीर को समझने की जरूरत है. अगर इस और समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो यह अखाड़े अपना वजूद खो देंगे और जिसके लिए बनारस जाना जाता है उसकी संस्कृति भी खत्म हो जाएगी.
बता दें कि, काशी में कहा भी जाता है. गमछा उठाया, लंगोट पहना और चल दिए अखाड़े. यह बातें उस समय बिल्कुल प्रासंगिक थी जब युवाओं के अंदर अखाड़े जाकर शरीर का पसीना निकालने का क्रेज था. सबसे बड़ी बात पुराने वक्त में जब अखाड़ों की कुश्ती दंगल और रियाज हुआ करता था. उस वक्त पेशेंस के साथ शरीर बनाने पर पूरा ध्यान दिया जाता था.
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