वाराणसी: मेरी जिंदगी एक मुसल्सल सफर है, जो मंजिल को देखी तो मंजिल पर पहुंची. ये लाइन भले ही अपने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर ने कही थी. मगर ये लाइनें आज मेहनतकश मजदूरों के अल्फाज हैं, जो मजबूरीवश लॉकडाउन के दौर में निकल पड़े हैं, अपनी मंजिल की ओर. वह भी बस इसी उम्मीद में कि वे अपने घर पहुंच सकें. इन मजदूरों ने अपने दिल में ठान लिया है कि इनको अपनी मंजिल को पाकर ही रहना है, चाहे कितनी भी कठिनाइयों से क्यों न होकर गुजरना पड़े. चिलचिलाती धूप हो या फिर पैरों में पड़ने वाले छाले, कोई भी दर्द इन मजदूरों के हौसले को डिगा पाने में नामुमकिन है.
लॉकडाउन की मार ने मजदूरों को पलायन के लिए किया मजबूर
अपनों से मिलने की आस और पापी पेट के लिए ये मजदूर सैकड़ों हजारों किलोमीटर का सफर तय करके अपने घरों की ओर जाने के लिए निकल पड़े हैं. कोरोना वायरस के कारण जारी लॉकडाउन के दौर ने मजदूरों की जिंदगी को बदलकर रख दिया है. अपनों की खुशियों को पूरा करने के साथ ही दो वक्त की रोटी और कुछ पैसे कमाने के लिए ये मजदूर अपनी मिट्टी को छोड़कर दूसरे राज्यों में रहते थे, लेकिन लॉकडाउन ने इन्हें इतना बेबस किया कि इन्हें वहां से पलायन करना पड़ रहा है.
भूख ने बढ़ाई मासूमों की तड़प
बात बीती रात करीब 8:30 बजे की है, जब मजदूरों का एक जत्था वाराणसी के डाफी बाईपास पर देखा गया. इनकी बेबसी को देखकर पल भर के लिए ऐसा लगा मानों समाज से मानवता ही खत्म सी हो गई है. जब इन मजदूरों से बातचीत की गई तो मजदूरों ने अपने दर्द को बयां किया. इन मजदूरों के जत्थे में दो गर्भवती महिलाओं संग छोटे-छोटे मासूम बच्चे भी शामिल थे, जो खाना और पानी के लिए तड़प रहे थे.
सुनवाई न होने पर खुद पर जताया भरोसा
ईटीवी भारत की टीम से बातचीत में मजदूरों ने कहा कि सरकार सिर्फ दिखावा कर रही है. कहने को ट्रेन और बस की सुविधा दी जा रही है, लेकिन इन मजदूरों को इस लॉरी में ठूंस-ठूंसकर भर दिया गया. मजदूरों ने बताया कि वे बिहार के आरा जिले के रहने वाले हैं और हरियाणा में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं. लॉकडाउन के दौरान उन्होंने कई दिन सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाए कि प्रशासन उनके खाने-पीने का बंदोबस्त करे या उन्हें घर भिजवा दे, लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी. थक-हारकर वे पैदल ही निकल पड़े.
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नहीं मिला खाना-पानी
100 किलोमीटर चलकर वे मजदूर पुलिस बूथ के पास पहुंचे तो वहां के प्रशासन ने उन्हें बिना कुछ खाना-पानी दिए जबरदस्ती एक छोटे से लॉरी में बैठा दिया और रवाना कर दिया. वहीं न ही उनकी कोई थर्मल स्कैनिंग कराई गई और न ही कोई दवा उपलब्ध कराई गई. उन्होंने बताया कि वे जिस गाड़ी से जा रहे हैं, वह सीएनजी से चलने वाली गाड़ी है. मजदूरों ने बताया कि उन सबने मिलकर पैसे जमा किए और गाड़ी में सीएनजी भरवाकर बनारस तक पहुंचे, लेकिन यहां सीएनजी दोपहर 2 बजे तक ही मिलती है, जिसके कारण इन्हें सीएनजी नहीं मिल पाई. वहीं मजदूरों का कहना है कि अब इन लोगों को यहां से आरा पैदल ही जाना पड़ेगा.
शासन-प्रशासन नहीं समझ रहे दर्द
वहीं गर्भवती महिलाओं से जब बातचीत की गई तो उन्होंने अपने दर्द को साझा करते हुए कहा कि अब उनसे पैदल चलते नहीं बनेगा. वह 100 किलोमीटर पैदल चलकर पहले ही थक गई हैं, लेकिन अब उनमें हिम्मत नहीं है, क्योंकि वह पेट से हैं और उनके साथ छोटे-छोटे बच्चे हैं. उनका कहना था कि इस वायरस ने तो मानों उनकी दुनिया ही छीन ली हो. यहां खाने-पीने के लाले पड़े थे और रास्ते में भी वह मानों घुट-घुट के मर रहे हैं. ऐसी सरकार और ऐसे प्रशासन का वह क्या करें जो उन मजदूरों के दर्द को समझ न सके.
चिलचिलाती धूप में परेशान मजदूर
बता दें कि छोटी लॉरी थी, जो एक दिन पहले ही हरियाणा से चली थी, जिसमें 27 मजदूरों और 10 बच्चों को बैठाया गया था. ऊपर से छत खुली हुई थी. इस चिलचिलाती धूप में गर्भवती महिलाओं और श्रमिकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. इन मजदूरों के दर्द को सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है कि सबका घर बनाने वाले मजदूर आज खुद बेघर, पैदल, भूखे-प्यासे अपने गांवों की ओर लौटने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके पास जिंदगी चलाने के लिए दो पैसे भी नहीं है. इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात ये है कि सत्ता पर बैठे हुक्मरान इनके दर्द को भर नहीं रहे, बल्कि अपने झूठे वादों से इनके दर्द को और बढ़ाने का काम कर रहे हैं और इन सबके बीच इन मजदूरों की जिंदगी ऐसी हो गई है, मानों जैसे सरकारी बाबू के टेबल पर पड़ी हुई कोई पुरानी सरकारी फाइलों का गट्ठर, जो काफी समय से धूल फांक रही हो.