वाराणसी: बनारस शहर को भारत का धार्मिक राजधानी के रूप में माना जाता है. अपने धार्मिक वास्तुकला और ढेर सारे मंदिरों और घाटों के लिए ये शहर काफी प्रसिद्ध है, जो कि इसे और भी ज्यादा खास बना देता है. लेकिन जब इस शहर में बाबा विश्वनाथ के किसी उत्सव की तैयारी चल रही हो तो फिर क्या ही कहना. जी हां इन दिनों वाराणसी में रंगभरी एकादशी को लेकर तैयारियां चल रही है. रंगभरी एकादशी का पर्व 3 मार्च को मनाया जाएगा, जो कि माता पार्वती की विदाई यानी गौने के रूप मनाया जाता है. इसे शिवरात्रि के बाद और होली से पहले मनाने के परंपरा है. यूपी और बिहार में विवाह के बाद गौने की परंपरा को भोलेनाथ और माता पार्वती के साथ मनाया जाता है. सबसे बड़ी बात यह है इस दिन भोलेनाथ एक तरफ जहां भक्तों को अद्भुत रूप में दर्शन देते हैं तो देश भक्ति के रंग में भी रंगे नजर आते हैं. यह सुनकर आप यह जरूर सोच रहे होंगे कि भोलेनाथ आखिर में आस्था से जुड़े होने के बाद देश भक्ति के रंग में कैसे रंगते हैं. इसकी एक कहानी है, जो 1936 के बाद से काशी की इस परंपरा से जुड़ गई.
मान्यताओं के अनुसार, रंगभरी एकादशी के मौके पर भगवान भोलेनाथ की वह चल रजत प्रतिमा भक्तों को दर्शन के लिए उपलब्ध होती है. जिसका दर्शन भक्त सिर्फ और सिर्फ शिवरात्रि या फिर रंगभरी एकादशी के दिन ही कर पाते हैं. सैकड़ों साल पहले भगवान भोलेनाथ की इस चल रजत प्रतिमा की स्थापना विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार की तरफ से की गई थी, क्योंकि बाबा विश्वनाथ का यह विग्रह एक स्थान पर स्थापित है. भोलेनाथ को हमेशा से शहर भ्रमण की परंपरा निभाई जाती रही है. इसी परंपरा को निभाने के लिए इस चल प्रतिमा की स्थापना की गई थी, तभी से इस रजत प्रतिमा को रंगभरी एकादशी के दिन रजत पालकी में सवार करके महंत आवास से विश्वनाथ मंदिर तक ले जाया जाता है. भक्त जमकर होली खेलते और अपने आराध्य के साथ होली खेलने के बाद अपनी बेटी यानी माता गौरा की विदाई करते हैं. इसी की खुशी में हर काशीवासी होली के रंग में पूरी तरह से डूब जाता है.
सबसे बड़ी बात यह है कि यह परंपरा लगातार 368 सालों से निभाई जा रही है. इस बारे में श्री विश्वनाथ मंदिर के महंत डॉ कुलपति तिवारी का कहना है कि सदियों पुरानी परंपरा को इस साल भी पूरे धूमधाम के साथ मनाया जाएगा. माता पार्वती के हल्दी चंदन की रस्म होने के बाद 3 मार्च को भोलेनाथ अपनी अर्धांगिनी की विदाई करवाने के लिए आएंगे और भक्त उनके ऊपर पहला गुलाल अर्पित करके होली की शुरुआत करेंगे.
इस पुरातन परंपरा में एक अलग पहलू यह भी होता है कि भगवान भोलेनाथ को जो वस्त्र पहनाए जाते हैं. वह खादी के वस्त्र होते हैं. खादी के वस्त्र पहनाए जाने के पीछे भी एक पुरानी कहानी है, जो देश भक्ति आंदोलन से जुड़ी है. महंत कुलपति तिवारी बताते हैं कि उस वक्त उनके दादाजी इस परंपरा को निभाते थे. 1934 से 1937 के बीच पंडित जवाहरलाल नेहरु की माता जी स्वरूप रानी नेहरू काशी में भोलेनाथ का दर्शन करने आई थी. यहां रंगभरी एकादशी के दौरान उन्होंने आजादी के आंदोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए अंग्रेजी कपड़ों के बायकाट के आवाहन पर खादी के वस्त्र भगवान भोलेनाथ और उनकी अर्धांगिनी को पहनाए जाने की अपील की थी, ताकि लोगों के बीच एक मैसेज जाए और देशभक्ति का आंदोलन आगे बढ़े.
महंत कुलपति तिवारी ने कहा कि धर्म के साथ जोड़कर इस आंदोलन को आगे बढ़ाने का यह प्लान सफल हुआ. भगवान भोलेनाथ को खादी के वस्त्र उस वक्त पहनाया गया. तभी से भगवान भोलेनाथ आज तक खादी के वस्त्र पहनकर ही माता पार्वती का गौना लेकर रवाना होते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि भगवान भोलेनाथ का यह वस्त्र खादी के ही मास्टर ट्रेलर किशनलाल बीते कई सालों से तैयार कर रहे हैं.
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