वाराणसी: ज्ञानवापी मन्दिर-मस्जिद मामले में सिविल जज (सीनियर डिवीजन फास्ट ट्रैक) कोर्ट में सोमवार को स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती की तरफ से वाद पक्षकार बनाएं जाने को लेकर दिए गए प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया गया. इस संबंध में बात करते हुए स्वयंभू ज्योर्तिलिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी ने बताया कि आज स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के द्वारा वाद संख्या 610 सन 1991 में प्राचीन मूर्ति स्वयंभू लार्ड विश्वेश्वर के वाद मित्र की हैसियत से मैं विजय शंकर रस्तोगी और एक अन्य पक्षकार हरिहर पाण्डेय इस केस को प्रोसीड कर रहे है.
उन्होंने कहा कि इसमें प्रतिवादी पक्ष अंजुमन इंतजामिया मसाजिद और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड लखनऊ है. इस वाद में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने वाद पक्षकार बनने के लिए प्रार्थना पत्र दिया था. यह भी कहा था कि इनके पास अनेक साक्ष्य हैं. इनके पास साक्ष्य, पांडुलिपियां, हिस्टोरिकल किताबें इत्यादि हैं. इनको ये न्यायालय में प्रस्तुत करना चाहते हैं और वर्तमान वाद में पक्षकार बनना चाहते हैं. इनके द्वारा यह भी कहा गया कि रामजन्मभूमि आयोध्या केस में भी ये पक्षकार रहे हैं. केस में साक्ष्य वगैरह देकर उच्चतम न्यायालय में उस केस में निर्णय कराने में सफल रहे हैं
'30 सालों के बाद उपस्थित हुए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद'
उन्होंने कहा कि वादी पक्ष की तरफ से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का कोर्ट में पुरजोर विरोध किया गया और कहा गया कि ये हिन्दुओं के विरुद्ध कार्य करते है. उन्होंने कहा कि जो वाद चल रहा है उसमें बाधा उत्पन्न करने के लिए 30 सालों के पश्चात उपस्थित हुए हैं. जबकि वादीगण पुरजोर 30 साल से अपने परिश्रम और धन के साथ इस केस को प्रोसीड कर रहे हैं. कोर्ट में यह भी तर्क दिया गया कि ये किसी भी जगह अयोध्या केस में पक्षकार नहीं थे. इसका सबूत भी न्यायालय में दिया गया. वहीं, उन्होंने कहा कि कोर्ट में ये भी कहा गया कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद इस वाद में किसी भी तरह से सुविधापूर्वक न्याय निर्णयन में कही से भी किसी प्रकार की मदद करने में आवश्यक पक्षकार नहीं है. इनके न होते हुए भी ये वाद निर्णीत किया जा सकता है. इनके पास अगर कोई साक्ष्य हो, तो ये वाद मित्र को देकर मदद कर सकते हैं. इसके लिए इनको वाद पक्षकार बनने की आवश्यकता नहीं है.
यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने प्रस्तुत की थी आपत्ति
अंजुमन इंतजामिया मसाजिद और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड लखनऊ द्वारा भी आपत्ति प्रस्तुत की गई थी. उनके द्वारा भी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का पुरजोर विरोध किया गया कि ये जनप्रतिनिधित्व वाद है और जनप्रतिनिधित्व वाद में वादी पक्ष के बिना स्वीकृति के कोई भी पक्ष पक्षकार नहीं बन सकता. क्योंकि जिस समय ये वाद दाखिल हुआ था, उस समय न्यायालय के द्वारा 1991 में राष्ट्रीय समाचार पत्रों में नोटिस प्रकाशन करके और उसकी अवधि नियत करके उनके द्वारा समय दिया गया था. कोई भी व्यक्ति आ करके इस वाद में पक्षकार, वादी या प्रतिवादी बन सकता है, लेकिन प्रकाशन होने के बाद कोई भी व्यक्ति नहीं आया और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी नहीं आए.
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'नहीं मान सकते कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को जानकारी नहीं'
वादमित्र ने कहा कि न्यायालय ने यह कहा कि ये बिल्कुल नहीं माना जा सकता कि 30 वर्षों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को इस वाद की जानकारी नहीं है. हर कार्यवाही को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और समाचार पत्रों में देश भर में प्रकाशित किया जाता है. सभी को इसकी जानकारी है. ये आश्चर्य की बात है कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को इसकी जानकारी क्यों नहीं है. वहीं, इन्होंने अपने प्रार्थना पत्र में कोई भी वजह नहीं बताई है कि ये 30 वर्षों से क्या कर रहे थे. वादमित्र ने कहा कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के अधिवक्ता के दिए गए तर्कों को न्यायालय ने खारिज कर दिया और न्यायालय ने कहा कि इनके पास जो भी साक्ष्य है, वह न्यायालय में दे सकते हैं या न्यायालय आवश्यक समझेगी तो इनसे ले भी लेगी. इस वाद में न्याय निर्णय के लिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद की उपस्थिति आवश्यक नहीं है. यह कहते हुए न्यायालय ने स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया.