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संगम के तीर्थ पुरोहितों को लाये थे हनुमान, त्रेतायुग से चली आ रही यह परंपरा - महाकुंभ प्रयागराज

संगम नगरी प्रयागराज में हर वर्ष माघ मेला लगता है. महाकुंभ और कुंभ में यहां करोड़ों की संख्या में लोग पहुंचते हैं. लेकिन क्या आप को पता है कि संगम के तीर्थ पुरोहितों को हनुमान जी अयोध्या से लाए थे. आइये हम आप को इस स्पेशल स्टोरी में बताते हैं, तेत्रायुग से चली आ रही उस परंपरा और पुरोहितों की सच्चाई के बारे में.

संगम के तीर्थ पुरोहितों को लाये थे हनुमान
संगम के तीर्थ पुरोहितों को लाये थे हनुमान
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Published : Jan 13, 2021, 1:18 PM IST

प्रयागराज : गंगा और यमुना नदी के तट पर संगम नगरी बसी है. सरस्वती नदी यहां गुप्त रूप से संगम में मिलती हैं. संगम तट पर महाकुंभ और माघ मेले का बड़ा धार्मिक आयोजन होता है. यहां पर लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध, अस्थि विसर्जन करने आते हैं. यहां के तीर्थ पुरोहित लोगों के पूर्वजों का श्राद्ध कराते हैं. लेकिन आप को बता दें कि इतने बड़े संगम क्षेत्र में भी लोग अपने तीर्थ पुरोहितों को, झंडे के निशान से पहचान कर सही स्थान पर पहुंच जाते हैं. यही नहीं, यह परंपरा त्रेतायुग से चली आ रही है. लोग अपने ही पुरोहित से श्राद्ध कराते हैं.

त्रेतायुग में ही संगम किनारे आए थे पुरोहित.

झंडे के निशान से अपने पुरोहित के पास पहुंच जाते हैं श्रद्धालु

संगम तीर्थ स्थान प्राचीन काल से प्रसिद्ध है. सभी तीर्थों में प्रयाग का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है. प्रयागराज भारद्वाज और दुर्वासा ऋषि की धरती है. हर वर्ष लगने वाले माघ मेला, 12 वर्ष पर लगने वाले महाकुंभ में श्रद्धालु करोड़ों की संख्या में यहां आते हैं. संगम स्नान कर लोग अपने आप को भाग्यशाली समझते हैं. लेकिन ऐसी मान्यता है कि संगम क्षेत्र तीर्थ पुरोहितों के बिना अधूरा है. यहां रोजाना कोई न कोई अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन व श्राद्ध करने आता है. तीर्थ पुरोहित ही विधि-विधान से आए हुए लोगों के पूर्वजों का श्राद्ध कराते हैं. इन पुरोहितों की संख्या 1484 है. इसलिए प्रत्येक पंडे का कोई न कोई झंडे का निशान होता है, जिससे यहां पर आने वाले श्रद्धालु झंडे के निशान को पहचान कर अपने पुरोहितों के पास पहुंच जाते हैं.

अयोध्या से आए थे संगम के तीर्थ पुरोहित

दरअसल, मान्यता के अनुसार पुरोहितों की परंपरा त्रेतायुग में ही शुरू हुई थी. लंका में रावण का वध कर भगवान राम पुष्पक विमान से नल-निल, अंगद, हनुमान, लक्ष्मण और सीता सहित पुष्पक विमान से अयोध्या जाते समय संगम क्षेत्र में उतरे थे. भगवान राम ने सीता जी से मां गंगा को प्रणाम करने को कहा. फिर भगवान राम की इच्छा हुई कि यहां ब्राह्मणों को दान करें. लेकिन उस समय संगम किनारे ब्राह्मण नहीं थे. तब भगवान राम भारद्वाज आश्रम गए और भारद्वाज ऋषि से प्रार्थना किया कि वे संगम चलें और हम लोगों द्वारा दान स्वीकार करें. तब भारद्वाज ऋषि ने कहा कि वो तो मुनि हैं, वो दान कैसे ले सकते हैं. भारद्वाज ऋषि ने राय दी कि अयोध्या से पुरोहितों को लाया जा सकता है. फिर हनुमान अयोध्या पहुंचे वहां से 3 ब्राह्मणों को संगम क्षेत्र में लाया गया. पुरोहितों ने भगवान राम, सीता और लक्ष्मण से दान लिया. फिर 3 से 13 हुए और 13 से 1484 हो गए. यह परंपरा अभी भी दोहराई जाती है. जब विजयदशमी में एकादशी को विभिन्न कमेटियों द्वारा राम-लक्ष्मण-सीता का मंचन करने वाले भगवान, संगम तट पर आते हैं, तो स्नान-ध्यान करने के बाद पुरोहितों को दान देते हैं. एक यह भी इसका जीता-जागता उदाहरण है.

झंडे से होती है अपने पुरोहित की पहचान

संगम क्षेत्र के तीर्थ पुरोहितों का कहना है कि आने वाले श्रद्धालु भले ही पंडों का नाम भूल जाएं, लेकिन झंडे के निशान को वो कभी नहीं भूलते. उनका कहना है कि झंडे का नाम भी भूलने वाला नहीं होता है. जैसे सोने का नारियल, 5 सिपाही तलवार दार, लाल कटार, कढ़ाई वाले, घोड़ा, हाथी आदि अनोखे नाम शामिल होते हैं. यहां आने वाले श्रद्धालुओं का कहना है कि उनके पूर्वजों ने इन झंडों के निशान वाले पुरोहित के पास अपना सारा बहीखाता रखते थे, जिससे लोगों के पहुंचने पर वह विधि-विधान से श्राद्ध करा सकें. आप को बता दें कि भले ही यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह झंडा पहचान हो, लेकिन संगम क्षेत्र में लहराते ये झंडे यहां की शोभा भी बढ़ाते हैं.

प्रयागराज : गंगा और यमुना नदी के तट पर संगम नगरी बसी है. सरस्वती नदी यहां गुप्त रूप से संगम में मिलती हैं. संगम तट पर महाकुंभ और माघ मेले का बड़ा धार्मिक आयोजन होता है. यहां पर लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध, अस्थि विसर्जन करने आते हैं. यहां के तीर्थ पुरोहित लोगों के पूर्वजों का श्राद्ध कराते हैं. लेकिन आप को बता दें कि इतने बड़े संगम क्षेत्र में भी लोग अपने तीर्थ पुरोहितों को, झंडे के निशान से पहचान कर सही स्थान पर पहुंच जाते हैं. यही नहीं, यह परंपरा त्रेतायुग से चली आ रही है. लोग अपने ही पुरोहित से श्राद्ध कराते हैं.

त्रेतायुग में ही संगम किनारे आए थे पुरोहित.

झंडे के निशान से अपने पुरोहित के पास पहुंच जाते हैं श्रद्धालु

संगम तीर्थ स्थान प्राचीन काल से प्रसिद्ध है. सभी तीर्थों में प्रयाग का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है. प्रयागराज भारद्वाज और दुर्वासा ऋषि की धरती है. हर वर्ष लगने वाले माघ मेला, 12 वर्ष पर लगने वाले महाकुंभ में श्रद्धालु करोड़ों की संख्या में यहां आते हैं. संगम स्नान कर लोग अपने आप को भाग्यशाली समझते हैं. लेकिन ऐसी मान्यता है कि संगम क्षेत्र तीर्थ पुरोहितों के बिना अधूरा है. यहां रोजाना कोई न कोई अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन व श्राद्ध करने आता है. तीर्थ पुरोहित ही विधि-विधान से आए हुए लोगों के पूर्वजों का श्राद्ध कराते हैं. इन पुरोहितों की संख्या 1484 है. इसलिए प्रत्येक पंडे का कोई न कोई झंडे का निशान होता है, जिससे यहां पर आने वाले श्रद्धालु झंडे के निशान को पहचान कर अपने पुरोहितों के पास पहुंच जाते हैं.

अयोध्या से आए थे संगम के तीर्थ पुरोहित

दरअसल, मान्यता के अनुसार पुरोहितों की परंपरा त्रेतायुग में ही शुरू हुई थी. लंका में रावण का वध कर भगवान राम पुष्पक विमान से नल-निल, अंगद, हनुमान, लक्ष्मण और सीता सहित पुष्पक विमान से अयोध्या जाते समय संगम क्षेत्र में उतरे थे. भगवान राम ने सीता जी से मां गंगा को प्रणाम करने को कहा. फिर भगवान राम की इच्छा हुई कि यहां ब्राह्मणों को दान करें. लेकिन उस समय संगम किनारे ब्राह्मण नहीं थे. तब भगवान राम भारद्वाज आश्रम गए और भारद्वाज ऋषि से प्रार्थना किया कि वे संगम चलें और हम लोगों द्वारा दान स्वीकार करें. तब भारद्वाज ऋषि ने कहा कि वो तो मुनि हैं, वो दान कैसे ले सकते हैं. भारद्वाज ऋषि ने राय दी कि अयोध्या से पुरोहितों को लाया जा सकता है. फिर हनुमान अयोध्या पहुंचे वहां से 3 ब्राह्मणों को संगम क्षेत्र में लाया गया. पुरोहितों ने भगवान राम, सीता और लक्ष्मण से दान लिया. फिर 3 से 13 हुए और 13 से 1484 हो गए. यह परंपरा अभी भी दोहराई जाती है. जब विजयदशमी में एकादशी को विभिन्न कमेटियों द्वारा राम-लक्ष्मण-सीता का मंचन करने वाले भगवान, संगम तट पर आते हैं, तो स्नान-ध्यान करने के बाद पुरोहितों को दान देते हैं. एक यह भी इसका जीता-जागता उदाहरण है.

झंडे से होती है अपने पुरोहित की पहचान

संगम क्षेत्र के तीर्थ पुरोहितों का कहना है कि आने वाले श्रद्धालु भले ही पंडों का नाम भूल जाएं, लेकिन झंडे के निशान को वो कभी नहीं भूलते. उनका कहना है कि झंडे का नाम भी भूलने वाला नहीं होता है. जैसे सोने का नारियल, 5 सिपाही तलवार दार, लाल कटार, कढ़ाई वाले, घोड़ा, हाथी आदि अनोखे नाम शामिल होते हैं. यहां आने वाले श्रद्धालुओं का कहना है कि उनके पूर्वजों ने इन झंडों के निशान वाले पुरोहित के पास अपना सारा बहीखाता रखते थे, जिससे लोगों के पहुंचने पर वह विधि-विधान से श्राद्ध करा सकें. आप को बता दें कि भले ही यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह झंडा पहचान हो, लेकिन संगम क्षेत्र में लहराते ये झंडे यहां की शोभा भी बढ़ाते हैं.

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