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जब बिना चुनावी प्रक्रिया के हाथ उठाकर बन जाता था ग्राम प्रधान, जानिए पूरी कहानी - मेरठ में पंचायत चुनाव

उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव होने वाले हैं. लेकिन पहले ज्यादातर गांवों में सर्वसम्मति से ही गांव का प्रधान चुना जाता था. गांव कि जिम्मेदार लोग पंचायत घर, मंदिर प्रांगण या फिर सरकारी स्कूल में इक्कठे होकर सर्वसंमत्ती से प्रधान यानी सरपंच का चुनाव कर देते थे. इस दौरान तहसील एवं विकास खण्ड से एक अधिकारी भी मौजूद रहता था, जो ग्रामीणों द्वारा बताए गए व्यक्ति को प्रधानी का सर्टिफिकेट देकर सरकारी मुहर लगा देता था.

पंचायत चुनाव 2021
पंचायत चुनाव 2021
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Published : Feb 24, 2021, 2:40 PM IST

मेरठ: एक ओर जहां त्रिस्तरीय चुनाव को लेकर तमाम तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं, वहीं सरकार को न सिर्फ परिसीमन, मतदाता सूची, पोलिंग बूथ, पोलिंग टीम समेत कई तरह के डाटा तैयार करने पड़ रहे हैं. लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब बिना चुनावी प्रक्रिया के ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य का चुनाव किया जाता था. उस वक्त ना तो सरकार का कोई पैसा खर्च होता था और ना ही वोटों के लिए प्रत्याशियों को लाखों रुपये खर्च करने पड़ते थे.

मेरठ से स्पेशल रिपोर्ट

राज्य निर्वाचन आयोग के गठन से पहले इसी तरह ग्राम प्रधान का चयन किया जाता था. ज्यादातर गांवों में सर्वसम्मति से किसी भी बुजुर्ग को प्रधान ( सरपंच ) नियुक्त कर दिया जाता था. तहसील या ब्लॉक के अधिकारी ग्रामीणों की सहमति से प्रमाण पत्र देकर सरकारी मुहर लगाते थे. गांव में जिला परिषद बोर्ड की ओर से विकास कार्य कराए जाते थे. प्रधान केवल विकास कार्य की देखरेख करते थे.

सर्वसम्मति से चुना जाता था प्रधान

1995 से पहले उत्तर प्रदेश में ग्राम प्रधानों का चयन ग्रामीणों की सर्वसहमति से किया जाता था. गांव कि जिम्मेदार लोग पंचायत घर, मंदिर प्रांगण या फिर सरकारी स्कूल में इक्कठे होकर सर्वसंमत्ती से प्रधान यानी सरपंच का चुनाव कर देते थे. इस दौरान तहसील एवं विकास खण्ड से एक अधिकारी भी मौजूद रहता था, जो ग्रामीणों द्वारा बताए गए व्यक्ति को प्रधानी का सर्टिफिकेट देकर सरकारी मुहर लगा देता था. उस वक्त प्रधान को सरकारी निधि तो दूर कोई भत्ता भी नहीं मिलता था.

70 के दशक में प्रधान बनने को भी तैयार नहीं होते थे ग्रामीण

ETV भारत की टीम त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव से पहले 26 साल पहले की चुनावी प्रक्रिया को जानने के लिए गांव का रुख किया. ETV भारत की टीम मेरठ के गांव रजपुरा पहुंची, जहां हमने गांव के बुजुर्ग लोगों से 1995 से पहले ग्राम पंचायत चुनाव को लेकर बात की. बुजुर्ग ग्रामीणों ने ETV भारत से बातचीत में बताया कि उस वक्त न तो प्रधान को कोई तनख्वाह मिलती थी और ना ही किसी तरह का कोई बजट आता था. 70 के दशक में तो ग्राम प्रधान बनने को भी कोई तैयार नहीं होता था. गांव के बुजुर्ग को सबकी सहमति से जबरन प्रधान बना दिया जाता था.

हाथ उठाकर चुनते थे प्रधान

गांव के बुजुर्गों ने बताया कि धीरे धीरे समय बदला तो लोग भी जागरूक हो गए, जिसके चलते 2-3 व्यक्ति ही प्रधान बनने की इच्छा जताते थे. ग्रामीणों का प्रयास रहता था कि दो व्यक्तियों को समझा कर किसी एक को सर्वसम्मति से प्रधान बनाया जाता था. कई बार प्रधानी के लिए 2 से ज्यादा व्यक्ति तैयार होते थे तो गांव के सभी लोग स्कूल या मंदिर प्रांगण में बड़ी पंचायत करते थे. इस दौरान सभी दावेदारों को समर्थकों के साथ अलग अलग बिठा दिया जाता था, जिसके बाद गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति सभी दावेदारों के नाम से ग्रामीणों के हाथ उठवाते थे, जिस दावेदार के पक्ष में सबसे ज्यादा हाथ उठते थे उसी व्यक्ति को गांव का प्रधान बना दिया जाता था. ग्रामीणों की रजामंदी से तहसील एवं ब्लॉक से आए अधिकारी न सिर्फ चुनाव अधिकारी की भूमिका निभाते थे, बल्कि हाथ से लिखा प्रमाण पत्र देकर सरकारी मुहर लगा देते थे.

जिला परिषद बोर्ड द्वारा होते थे विकास कार्य

गांव के बुजुर्गों ने ETV भारत से बातचीत में बताया कि उस दौरान गांव में न तो विधायक निधि आती थी और ना ही प्रधान को कोई निधि मिलती थी. गांव में होने वाले विकास कार्यों का जिम्मा जिला परिषद बोर्ड पर रहता था. गांव में स्कूल और मुख्य गलियां जिला परिषद बोर्ड द्वारा कराया जाता था, जबकि गांव की छोटी गलियों में चंदे के पैसे से खंडजा लगाया जाता था. तहसील और ब्लॉक के अधिकारी अपने स्तर से ही गांव में विकास कार्य कराते थे, जिसके चलते कई बार गांवों को विकास कार्यों के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था.

बिजनेस बन गया प्रधानी चुनाव

ग्रामीण बुजुर्गों ने बताया कि 1995 से पहले की चुनावी प्रक्रिया अब से बेहतर थी. क्योंकि उस वक्त न तो प्रधानी के लिए कोई खर्च होता था और ना ही कोई आमदनी होती थी. प्रधान के पास केवल अधिकारी और दारोगा आते रहते थे, लेकिन जब से प्रधान निधि लागू की गई है तब से प्रधानी चुनाव को बिजनेस का रूप दे दिया गया है. प्रधानी चुनाव में एक प्रत्याशी 10 से 15 लाख रुपये खर्च कर देता है. नामांकन से पहले ही ग़ांव में दावतें और शराब शुरू हो जाती है. मोटी रकम खर्च करने के बाद चुना गया प्रधान विकास कार्य कराए न कराए, लेकिन सबसे पहले अपने खर्च को पूरा करता है. यही वजह है कि अब प्रधानी के चुनाव में युवा वर्ग भी बढ़ चढ़ कर दावेदारी कर रहे हैं.

1995 में राज्य निर्वाचन आयोग का हुआ गठन

धीरे-धीरे समय के साथ सब कुछ बदलता चला गया. पंचायत चुनाव की प्रक्रिया भी बदल गई. साल 1995 में 73वां संविधान संशोधन किया गया, जिसमें पंचायत चुनाव कराने के लिए उत्तर प्रदेश में राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया. जिला पंचायत राज अधिकाकारी आलोक कुमार सिंह ने बताया कि राज्य निर्वाचन आयोग के गठन के बाद पंचायत चुनाव प्रक्रिया का वैधानिक रूप सामने आया था, जिससे एक नियमावली बनाकर ग्राम पंचायत चुनाव के लिए पोलिंग पार्टियों का गठन करने के नीर्देश दिये गए, जिस तरह विधायक सांसदों के चुनाव कराए जाते हैं, उसी प्रकार ग्राम पंचायत चुनाव कराए जा रहे हैं. 1995 से पहले ग्राम पंचायत चुनाव के लिए वैधानिक नियम लागू नहीं हुए थे, जिसके चलते उस वक्त हाथ उठाकर प्रधान का चयन कर दिया जाता था.

मेरठ: एक ओर जहां त्रिस्तरीय चुनाव को लेकर तमाम तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं, वहीं सरकार को न सिर्फ परिसीमन, मतदाता सूची, पोलिंग बूथ, पोलिंग टीम समेत कई तरह के डाटा तैयार करने पड़ रहे हैं. लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब बिना चुनावी प्रक्रिया के ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य का चुनाव किया जाता था. उस वक्त ना तो सरकार का कोई पैसा खर्च होता था और ना ही वोटों के लिए प्रत्याशियों को लाखों रुपये खर्च करने पड़ते थे.

मेरठ से स्पेशल रिपोर्ट

राज्य निर्वाचन आयोग के गठन से पहले इसी तरह ग्राम प्रधान का चयन किया जाता था. ज्यादातर गांवों में सर्वसम्मति से किसी भी बुजुर्ग को प्रधान ( सरपंच ) नियुक्त कर दिया जाता था. तहसील या ब्लॉक के अधिकारी ग्रामीणों की सहमति से प्रमाण पत्र देकर सरकारी मुहर लगाते थे. गांव में जिला परिषद बोर्ड की ओर से विकास कार्य कराए जाते थे. प्रधान केवल विकास कार्य की देखरेख करते थे.

सर्वसम्मति से चुना जाता था प्रधान

1995 से पहले उत्तर प्रदेश में ग्राम प्रधानों का चयन ग्रामीणों की सर्वसहमति से किया जाता था. गांव कि जिम्मेदार लोग पंचायत घर, मंदिर प्रांगण या फिर सरकारी स्कूल में इक्कठे होकर सर्वसंमत्ती से प्रधान यानी सरपंच का चुनाव कर देते थे. इस दौरान तहसील एवं विकास खण्ड से एक अधिकारी भी मौजूद रहता था, जो ग्रामीणों द्वारा बताए गए व्यक्ति को प्रधानी का सर्टिफिकेट देकर सरकारी मुहर लगा देता था. उस वक्त प्रधान को सरकारी निधि तो दूर कोई भत्ता भी नहीं मिलता था.

70 के दशक में प्रधान बनने को भी तैयार नहीं होते थे ग्रामीण

ETV भारत की टीम त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव से पहले 26 साल पहले की चुनावी प्रक्रिया को जानने के लिए गांव का रुख किया. ETV भारत की टीम मेरठ के गांव रजपुरा पहुंची, जहां हमने गांव के बुजुर्ग लोगों से 1995 से पहले ग्राम पंचायत चुनाव को लेकर बात की. बुजुर्ग ग्रामीणों ने ETV भारत से बातचीत में बताया कि उस वक्त न तो प्रधान को कोई तनख्वाह मिलती थी और ना ही किसी तरह का कोई बजट आता था. 70 के दशक में तो ग्राम प्रधान बनने को भी कोई तैयार नहीं होता था. गांव के बुजुर्ग को सबकी सहमति से जबरन प्रधान बना दिया जाता था.

हाथ उठाकर चुनते थे प्रधान

गांव के बुजुर्गों ने बताया कि धीरे धीरे समय बदला तो लोग भी जागरूक हो गए, जिसके चलते 2-3 व्यक्ति ही प्रधान बनने की इच्छा जताते थे. ग्रामीणों का प्रयास रहता था कि दो व्यक्तियों को समझा कर किसी एक को सर्वसम्मति से प्रधान बनाया जाता था. कई बार प्रधानी के लिए 2 से ज्यादा व्यक्ति तैयार होते थे तो गांव के सभी लोग स्कूल या मंदिर प्रांगण में बड़ी पंचायत करते थे. इस दौरान सभी दावेदारों को समर्थकों के साथ अलग अलग बिठा दिया जाता था, जिसके बाद गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति सभी दावेदारों के नाम से ग्रामीणों के हाथ उठवाते थे, जिस दावेदार के पक्ष में सबसे ज्यादा हाथ उठते थे उसी व्यक्ति को गांव का प्रधान बना दिया जाता था. ग्रामीणों की रजामंदी से तहसील एवं ब्लॉक से आए अधिकारी न सिर्फ चुनाव अधिकारी की भूमिका निभाते थे, बल्कि हाथ से लिखा प्रमाण पत्र देकर सरकारी मुहर लगा देते थे.

जिला परिषद बोर्ड द्वारा होते थे विकास कार्य

गांव के बुजुर्गों ने ETV भारत से बातचीत में बताया कि उस दौरान गांव में न तो विधायक निधि आती थी और ना ही प्रधान को कोई निधि मिलती थी. गांव में होने वाले विकास कार्यों का जिम्मा जिला परिषद बोर्ड पर रहता था. गांव में स्कूल और मुख्य गलियां जिला परिषद बोर्ड द्वारा कराया जाता था, जबकि गांव की छोटी गलियों में चंदे के पैसे से खंडजा लगाया जाता था. तहसील और ब्लॉक के अधिकारी अपने स्तर से ही गांव में विकास कार्य कराते थे, जिसके चलते कई बार गांवों को विकास कार्यों के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था.

बिजनेस बन गया प्रधानी चुनाव

ग्रामीण बुजुर्गों ने बताया कि 1995 से पहले की चुनावी प्रक्रिया अब से बेहतर थी. क्योंकि उस वक्त न तो प्रधानी के लिए कोई खर्च होता था और ना ही कोई आमदनी होती थी. प्रधान के पास केवल अधिकारी और दारोगा आते रहते थे, लेकिन जब से प्रधान निधि लागू की गई है तब से प्रधानी चुनाव को बिजनेस का रूप दे दिया गया है. प्रधानी चुनाव में एक प्रत्याशी 10 से 15 लाख रुपये खर्च कर देता है. नामांकन से पहले ही ग़ांव में दावतें और शराब शुरू हो जाती है. मोटी रकम खर्च करने के बाद चुना गया प्रधान विकास कार्य कराए न कराए, लेकिन सबसे पहले अपने खर्च को पूरा करता है. यही वजह है कि अब प्रधानी के चुनाव में युवा वर्ग भी बढ़ चढ़ कर दावेदारी कर रहे हैं.

1995 में राज्य निर्वाचन आयोग का हुआ गठन

धीरे-धीरे समय के साथ सब कुछ बदलता चला गया. पंचायत चुनाव की प्रक्रिया भी बदल गई. साल 1995 में 73वां संविधान संशोधन किया गया, जिसमें पंचायत चुनाव कराने के लिए उत्तर प्रदेश में राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया. जिला पंचायत राज अधिकाकारी आलोक कुमार सिंह ने बताया कि राज्य निर्वाचन आयोग के गठन के बाद पंचायत चुनाव प्रक्रिया का वैधानिक रूप सामने आया था, जिससे एक नियमावली बनाकर ग्राम पंचायत चुनाव के लिए पोलिंग पार्टियों का गठन करने के नीर्देश दिये गए, जिस तरह विधायक सांसदों के चुनाव कराए जाते हैं, उसी प्रकार ग्राम पंचायत चुनाव कराए जा रहे हैं. 1995 से पहले ग्राम पंचायत चुनाव के लिए वैधानिक नियम लागू नहीं हुए थे, जिसके चलते उस वक्त हाथ उठाकर प्रधान का चयन कर दिया जाता था.

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