मेरठः पश्चिमी यूपी में रालोद और सपा गठबंधन काफी मजबूत माना जाता है. इसके बावजूद अचानक सपा ने पश्चिमी यूपी में जाटों के सहारे खुद को मजबूत करने की नीति पर काम शुरू कर दिया है. आखिर सपा की इसके पीछे की रणनीति क्या है? अभी तक गठबंधन धर्म का पूरी निष्ठा से पालन करने वाले रालोद प्रमुख जयंत चौधरी का आगे का रुख क्या रहेगा. कहीं ये सपा मुखिया अखिलेश यादव की आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी तो नहीं. जाटलैंड पर अचानक सपा के प्रभाव बढ़ाने से कई सियासी सवाल सुलगने लगे हैं. इसे लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की अपनी-अपनी राय है.
राजनीतिक विश्लेषक हरिशंकर जोशी कहते हैं कि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के अगर पुराने रिश्ते भी देखें तो दोनों में पहले से ही काफी अच्छे रिश्ते रहे हैं. वह कहते हैं कि हालांकि कई बार ऐसा भी हुआ है कि इन दलों में दूरियां भी बढ़ीं हैं. यही वजह है कि पूर्व में राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर यह दोनों दल निकट आते रहे हैं और दूर भी होते रहे हैं.
उन्होंने कहा कि हाल में ही देखा गया है कि समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस से आए पूर्व सांसद और चार बार के विधायक रहे हरेंद्र मलिक को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. इतना ही नहीं कई ऐसे नेता भी हैं जिन्हें खासतौर से पार्टी ने जाटलैंड में बड़ी जिम्मेदारियां दी हैं. वह कहते हैं कि हालांकि सपा के साथ राजेंद्र चौधरी पहले से ही जुड़े हैं. पार्टी के नेता अखिलेश यादव के निर्णय के बाद कहीं न कहीं यह बात स्पष्ट होती है कि समाजवादी पार्टी को कहीं न कहीं कोई आशंका अपने गठबंधन के सहयोगी रालोद को लेकर है.शायद यही वजह है कि सपा जाटलैंड में खुद को बढ़ाने के प्रयाम में है.
वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर जोशी का मानना है कि समाजवादी पार्टी के नेताओं को शायद कहीं न कहीं यह डर सता रहा है कि लोकसभा चुनाव आते-आते उनका सहयोगी दल कहीं पाला न बदल दें. कोई अपना नया सहयोगी न खोज लें. इस वजह से समाजवादी पार्टी यहां अपनी जड़ मजबूत करने की कोशिश में अभी से जुट गई है. उनका मानना है कि कहीं न कहीं सपा ने जो जाटों को तरजीह देनी शुरू की है इससे अखिलेश यादव कहीं न कहीं पश्चिमी यूपी में पार्टी को कमजोर मानकर चल रहे हैं. वह कहते हैं कि रालोद के प्रभाव वाले इलाकों में सपा के पास कुछ नहीं बचता है. अखिलेश जानते हैं कि सपा जाटलैंड में अकेले काफी कमजोर है. जाटलैंड में यादव बाहुल्य सीटें कम हैं. यहां या तो दलित और मुस्लिम का कॉन्बिनेशन चलता है या फिर जाट और मुस्लिम का. जाट, मुस्लिम और दलित ही किसी प्रत्याशी की जीत तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं.
वह कहते हैं कि ऐसी स्थिति में जब सभी दल सोशल इंजीनियरिंग पर काम कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में समाजवादी पार्टी का जाटों को लुभाना यह महसूस कराता है कि कहीं न कहीं पार्टी खुद को असुरक्षित मान रही है. उनका कहना है कि राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयन्त चौधरी ने बीते साल हुए विधान सभा चुनाव में पूरी ईमानदारी से गठबंधन धर्म का निर्वहन किया है और रालोद के साथ सपा की स्थिति निश्चित तौर पर मजबूत भी हुई है.
वहीं, इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक शादाब रिजवी का कहना है कि खासकर पश्चिमी यूपी में जाटलैंड जिस क्षेत्र को बोला जाता है, वहां जाट ही राजनीति में दिशा तय करता है. वह कहते हैं कि इस वक्त अगर देखें तो बीजेपी और गठबंधन के बीच जाटों को खींचने वाली स्थिति बनी हुई है. वह कहते हैं कि जाटलैंड की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल तो है ही. इसके अलावा बीजेपी और सपा खुद की पकड़ मजबूत बनाने में जुटीं हुईं हैं.
शादाब रिजवी मानते हैं कि बीजेपी की मजबूती के आधार भी जाट हैं. यही वजह है कि बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष जाट को बनाया हुआ है. पश्चिमी यूपी के अध्यक्ष के तौर पर भी जाट नेता को ही तरजीह दी हुई है. सपा के बारे में वह कहते हैं कि अब गठबन्धन की पार्टी सपा भी इसी फॉर्मूले पर आगे बढ़कर जाटों को तरजीह दे रही है. वह कहते हैं कि जाटों को साथ जोड़कर सपा भी अपनी ताकत मजबूत करने में जुटी हुई है. पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक को सपा ने राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. उनके बेटे पंकज मलिक वर्तमान में पार्टी के विधायक हैं. उन्होंने कहा कि 2024 का लोकसभा चुनाव आते-आते काफी सियासी बदलाव देखने को मिल सकते हैं.
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