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मऊ: प्रवासी कामगारों को नहीं मिल रहा रोजगार, छाया आर्थिक संकट

वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन में दूसरे राज्यों से लौटे कामगारों को इस समय काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. वे यह सोचकर गांव लौटे थे कि उन्हें यहां काम मिल ही जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. कामगारों को इस समय आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. उनके सामने जीविकोपार्जन का संकट खड़ा हो गया है.

laborers are not getting employment in mau
मऊ में प्रवासी कामगारों को नहीं मिल रहा रोजगार.
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Published : Aug 7, 2020, 9:04 AM IST

मऊ: पूर्वांचल क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर रोजगार न होने से अधिकांश ग्रामीण दिल्ली, मुंबई सहित अन्य महानगरों पर रोजगार के लिए आश्रित होते हैं. महानगरों की कमाई से ही गांव के अधिकांश लोगों का जीविकोपार्जन होता है, लेकिन कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन में महानगरों में उद्योग-धंधे बन्द हो गए. ऐसे में हताश-निराश होकर प्रवासी कामगार अपने घर लौट आए.

स्पेशल रिपोर्ट...

प्रवासी कामगारों को नहीं मिल रहा काम
प्रवासी कामगार यह सोचकर गांव आए थे कि यहां पर उन्हें रोजगार मिल ही जाएगा, लेकिन यहां आने पर भी अब वही स्थिति हो गई है. दो से तीन महीने घर आए हुए हो गए हैं, लेकिन रोजगार न मिलने से खाली बैठे हुए हैं. सरकार स्थानीय स्तर पर जो रोजगार देने के दावे की, वह केवल शोर-शराबा तक सीमित रह गया. हालात यह है कि मनरेगा से गांव में प्रवासियों को काम देने के दावे किए गए, लेकिन यह भी गिने-चुने दिन और व्यक्ति तक सीमित रह गया. ऐसे में कामगारों को कुछ सूझ नहीं रहा कि करें तो करें क्या.

laborers are not getting employment in mau
ऑटो ड्राइवर राम प्रसाद.

गांव में नहीं है रोजगार
दिल्ली, मुंबई में भी कोरोना का कहर जारी है. गांव में रोजगार नहीं है, परिवार चलाना कठिन हो गया है. अब गांव की गलियों, चौपालों पर केवल प्रवासी कामगार निराश-हताश बैठे मिल रहे हैं.

'कोई काम नहीं मिल रहा'
मऊ जिले के बस्ती गांव में मुम्बई से ऑटो चलाने वाले 55 वर्षीय राम प्रसाद लॉकडाउन में ऑटो से ही घर चले आए. ढाई महीने से घर पर बैठे हैं. ये बताते हैं कि लॉकडाउन में समस्या हुई तो मुंबई से घर चले आए. दो बेटे भी काम करते थे, वह भी घर आ गए. जो कमा कर रखा गया था, वहीं खाया गया, लेकिन एक महीना, दो महीना, तीन महीना, कब तक बगैर कमाए खाया जा सकता है. घर में पांच लोग खाने वाले, लेकिन कमाने वाला कोई नहीं. अब मजबूरी में ईंट गारे का काम किया जा रहा है. वह भी नहीं मिल रहा है.

'कैसे भरेंगे गाड़ी का लोन'
मनरेगा से काम मिला, यह पूछने पर बताया कि प्रधान के पास गया तो बोला- आपका कार्ड नहीं बना है. फिर बारिश से यह भी बन्द हो गया. सरकार यहां कोई काम की व्यवस्था की नहीं है. जो एक हजार रुपये मिल रहे हैं, उसका भी फॉर्म भरा था, नहीं मिला. घर बैठे हैं, चिन्ता सता रही है. गाड़ी का डेढ़ लाख लोन हैं. 6500 हर महीने की क़िस्त है, कैसे भरा जाएगा. कोरोना बढ़ता जा रहा है, मुंबई में लॉकडाउन ही है, अभी जा सकते नहीं, क्या किया जाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा.

laborers are not getting employment in mau
कब मिलेगा रोजगार...

'पैसे नहीं हैं, पत्नी का इलाज कैसे कराएं'
राम प्रसाद के पड़ोसी सामदेव का भी दर्द यही है. 70 वर्षीय सामदेव गांव में ही रहकर खेती करते हैं, लेकिन इनके तीन बेटे बाहर रहते हैं. दो मुंबई में और एक सऊदी अरब में. वहीं सामदेव बताते हैं कि कोरोना ने सब तबाह कर दिया है. तीन बेटे कमाते थे, सभी की कमाई बन्द है. दो मुंबई से आकर घर बैठे हैं, जो सऊदी में रहते हैं, उनका भी काम बंद ही चल रहा है. घर पर पत्नी बीमार रहती है. बाहर से पैसा आता है तो घर का खर्च और इलाज चलता है, लेकिन कोरोना ने सब बन्द कर दिया है.

आर्थिक संकट से जूझ रहे कामगार
बस्ती गांव के 30 लोग सूरत में हीरा फैक्ट्री में काम करते हैं. यहां अच्छी कमाई होने से इन लोगों की आर्थिक संपन्नता हुई, लेकिन सभी लॉकडाउन में घर आकर बैठे हुए हैं. साथ ही भगवान से जल्द से जल्द कोरोना खत्म करने की गुहार लगा रहे हैं. 30 वर्षीय ब्रजेश मौर्या सूरत में हीरा घिसने का काम करते हैं, जिससे महीने की 20 से 25 हजार की कमाई कर लेते हैं, लेकिन लॉकडाउन में काम बंद हो गया तो घर चले आए. अब दो महीने से घर पर बैठे हैं. कोई रोजगार न होने से आर्थिक संकट से जूझ रहें हैं.

'सोचा था गांव में काम मिलेगा, लेकिन यहां भी काम नहीं मिला '

बृजेश मौर्या बताते हैं कि लॉकडाउन में काम बंद हो गया. जो कमा कर रखे थे, उसे खाए, लेकिन जब आगे उम्मीद नहीं दिखी तो घर चले आए. घर यह सोचकर आए थे कि गांव में ही कुछ काम किया जाएगा, लेकिन यहां भी काम नहीं मिल रहा है. 6 लोगों का परिवार है. हम दो भाई कमाने वाले थे. मैं भी घर बैठा हूं. एक भाई पुणे में काम करता था, वह भी घर पर ही है.

स्थानीय स्तर पर नहीं मिल रहा रोजगार
कोरोना काल में सभी गांव की कहानी यही है. जिले में कोई कल कारखाना है नहीं कि लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सके. इसके चलते युवा मजबूर होकर महानगरों की ओर पलायन करते हैं. मऊ जिले में 40 हजार के लगभग प्रवासी कामगार लॉकडाउन में महानगरों से वापस आए हैं. इनके रोजगार के लिए स्थानीय स्तर पर काम के नाम पर मात्र मनरेगा ही रहा है.

खोखले साबित हो रहे जिला प्रशासन के दावे
जिला प्रशासन के अनुसार, 16 हजार लोगों को मनरेगा से काम दिया गया, लेकिन इसकी हकीकत यह है कि किसी गांव में 10 दिन तो कहीं 1 महीना मजदूरों को काम दिया गया. जून महीने से बारिश होने लगी तो मनरेगा का काम भी पूरी तरह से बन्द हो गया.

ये भी पढ़ें: मऊ: दुग्ध उत्पादन से बढ़ी आर्थिक आत्मनिर्भरता

कोरोना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ी चोट
ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में महानगरों का विशेष योगदान रहा. स्थानीय स्तर पर रोजगार न मिलने से युवा वर्ग ने तेजी के साथ दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जैसे महानगरों का रुख किया. यहां पर वे अच्छी कमाई कर रहे थे. उनके रहन-सहन में भी बदलाव आया, लेकिन अब कोरोना की महामारी ने पूरा अर्थचक्र तोड़कर रख दिया है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भारी चोट पड़ रही है. गांव के लोगों को खाने के लिए राशन की समस्या तो नहीं है, लेकिन जीवन केवल राशन से ही नहीं चलने वाला है.

मऊ: पूर्वांचल क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर रोजगार न होने से अधिकांश ग्रामीण दिल्ली, मुंबई सहित अन्य महानगरों पर रोजगार के लिए आश्रित होते हैं. महानगरों की कमाई से ही गांव के अधिकांश लोगों का जीविकोपार्जन होता है, लेकिन कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन में महानगरों में उद्योग-धंधे बन्द हो गए. ऐसे में हताश-निराश होकर प्रवासी कामगार अपने घर लौट आए.

स्पेशल रिपोर्ट...

प्रवासी कामगारों को नहीं मिल रहा काम
प्रवासी कामगार यह सोचकर गांव आए थे कि यहां पर उन्हें रोजगार मिल ही जाएगा, लेकिन यहां आने पर भी अब वही स्थिति हो गई है. दो से तीन महीने घर आए हुए हो गए हैं, लेकिन रोजगार न मिलने से खाली बैठे हुए हैं. सरकार स्थानीय स्तर पर जो रोजगार देने के दावे की, वह केवल शोर-शराबा तक सीमित रह गया. हालात यह है कि मनरेगा से गांव में प्रवासियों को काम देने के दावे किए गए, लेकिन यह भी गिने-चुने दिन और व्यक्ति तक सीमित रह गया. ऐसे में कामगारों को कुछ सूझ नहीं रहा कि करें तो करें क्या.

laborers are not getting employment in mau
ऑटो ड्राइवर राम प्रसाद.

गांव में नहीं है रोजगार
दिल्ली, मुंबई में भी कोरोना का कहर जारी है. गांव में रोजगार नहीं है, परिवार चलाना कठिन हो गया है. अब गांव की गलियों, चौपालों पर केवल प्रवासी कामगार निराश-हताश बैठे मिल रहे हैं.

'कोई काम नहीं मिल रहा'
मऊ जिले के बस्ती गांव में मुम्बई से ऑटो चलाने वाले 55 वर्षीय राम प्रसाद लॉकडाउन में ऑटो से ही घर चले आए. ढाई महीने से घर पर बैठे हैं. ये बताते हैं कि लॉकडाउन में समस्या हुई तो मुंबई से घर चले आए. दो बेटे भी काम करते थे, वह भी घर आ गए. जो कमा कर रखा गया था, वहीं खाया गया, लेकिन एक महीना, दो महीना, तीन महीना, कब तक बगैर कमाए खाया जा सकता है. घर में पांच लोग खाने वाले, लेकिन कमाने वाला कोई नहीं. अब मजबूरी में ईंट गारे का काम किया जा रहा है. वह भी नहीं मिल रहा है.

'कैसे भरेंगे गाड़ी का लोन'
मनरेगा से काम मिला, यह पूछने पर बताया कि प्रधान के पास गया तो बोला- आपका कार्ड नहीं बना है. फिर बारिश से यह भी बन्द हो गया. सरकार यहां कोई काम की व्यवस्था की नहीं है. जो एक हजार रुपये मिल रहे हैं, उसका भी फॉर्म भरा था, नहीं मिला. घर बैठे हैं, चिन्ता सता रही है. गाड़ी का डेढ़ लाख लोन हैं. 6500 हर महीने की क़िस्त है, कैसे भरा जाएगा. कोरोना बढ़ता जा रहा है, मुंबई में लॉकडाउन ही है, अभी जा सकते नहीं, क्या किया जाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा.

laborers are not getting employment in mau
कब मिलेगा रोजगार...

'पैसे नहीं हैं, पत्नी का इलाज कैसे कराएं'
राम प्रसाद के पड़ोसी सामदेव का भी दर्द यही है. 70 वर्षीय सामदेव गांव में ही रहकर खेती करते हैं, लेकिन इनके तीन बेटे बाहर रहते हैं. दो मुंबई में और एक सऊदी अरब में. वहीं सामदेव बताते हैं कि कोरोना ने सब तबाह कर दिया है. तीन बेटे कमाते थे, सभी की कमाई बन्द है. दो मुंबई से आकर घर बैठे हैं, जो सऊदी में रहते हैं, उनका भी काम बंद ही चल रहा है. घर पर पत्नी बीमार रहती है. बाहर से पैसा आता है तो घर का खर्च और इलाज चलता है, लेकिन कोरोना ने सब बन्द कर दिया है.

आर्थिक संकट से जूझ रहे कामगार
बस्ती गांव के 30 लोग सूरत में हीरा फैक्ट्री में काम करते हैं. यहां अच्छी कमाई होने से इन लोगों की आर्थिक संपन्नता हुई, लेकिन सभी लॉकडाउन में घर आकर बैठे हुए हैं. साथ ही भगवान से जल्द से जल्द कोरोना खत्म करने की गुहार लगा रहे हैं. 30 वर्षीय ब्रजेश मौर्या सूरत में हीरा घिसने का काम करते हैं, जिससे महीने की 20 से 25 हजार की कमाई कर लेते हैं, लेकिन लॉकडाउन में काम बंद हो गया तो घर चले आए. अब दो महीने से घर पर बैठे हैं. कोई रोजगार न होने से आर्थिक संकट से जूझ रहें हैं.

'सोचा था गांव में काम मिलेगा, लेकिन यहां भी काम नहीं मिला '

बृजेश मौर्या बताते हैं कि लॉकडाउन में काम बंद हो गया. जो कमा कर रखे थे, उसे खाए, लेकिन जब आगे उम्मीद नहीं दिखी तो घर चले आए. घर यह सोचकर आए थे कि गांव में ही कुछ काम किया जाएगा, लेकिन यहां भी काम नहीं मिल रहा है. 6 लोगों का परिवार है. हम दो भाई कमाने वाले थे. मैं भी घर बैठा हूं. एक भाई पुणे में काम करता था, वह भी घर पर ही है.

स्थानीय स्तर पर नहीं मिल रहा रोजगार
कोरोना काल में सभी गांव की कहानी यही है. जिले में कोई कल कारखाना है नहीं कि लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सके. इसके चलते युवा मजबूर होकर महानगरों की ओर पलायन करते हैं. मऊ जिले में 40 हजार के लगभग प्रवासी कामगार लॉकडाउन में महानगरों से वापस आए हैं. इनके रोजगार के लिए स्थानीय स्तर पर काम के नाम पर मात्र मनरेगा ही रहा है.

खोखले साबित हो रहे जिला प्रशासन के दावे
जिला प्रशासन के अनुसार, 16 हजार लोगों को मनरेगा से काम दिया गया, लेकिन इसकी हकीकत यह है कि किसी गांव में 10 दिन तो कहीं 1 महीना मजदूरों को काम दिया गया. जून महीने से बारिश होने लगी तो मनरेगा का काम भी पूरी तरह से बन्द हो गया.

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कोरोना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ी चोट
ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में महानगरों का विशेष योगदान रहा. स्थानीय स्तर पर रोजगार न मिलने से युवा वर्ग ने तेजी के साथ दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जैसे महानगरों का रुख किया. यहां पर वे अच्छी कमाई कर रहे थे. उनके रहन-सहन में भी बदलाव आया, लेकिन अब कोरोना की महामारी ने पूरा अर्थचक्र तोड़कर रख दिया है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भारी चोट पड़ रही है. गांव के लोगों को खाने के लिए राशन की समस्या तो नहीं है, लेकिन जीवन केवल राशन से ही नहीं चलने वाला है.

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