लखनऊ : प्रदेश में छोटी नदियां लगातार अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं. यही कारण है कि गंगा की सहायक गोमती जैसी नदियां भी सिकुड़ने लगी हैं. यदि छोटी नदियों का प्रवाह लौटाने में सफलता मिले, तो ही बड़ी नदियों का प्रवाह भी लंबे समय तक निर्बाध बना रहेगा. समस्या यह है कि इस ओर गंभीरता से विचार कर जरूरी कदम नहीं उठाए जाते. ऐसा नहीं है कि सरकारें इस ओर से एकदम अनजान हैं. उन्हें समय-समय पर वैज्ञानिक और उनसे जुड़ी संस्थाएं इस संकट से अवगत कराते रहते हैं, बावजूद इसके अब तक जरूरी कदम नहीं उठाए जा सके हैं. इस समस्या को लेकर भूजल विशेषज्ञ और ग्राउंडवाटर एक्शन ग्रुप के संयोजक डॉ आरएस सिन्हा से बातचीत.
छोटी नदियों का प्राकृतिक प्रवाह क्यों बाधित हुआ है और यह समस्या कितनी बड़ी चुनौती है? इस सवाल पर डॉ सिन्हा कहते हैं 'मेरी याद में 1970 और उसके बाद तकरीबन एक दशक तक प्रदेश में छोटी-बड़ी नदियों में जो नैसर्गिक जल प्रवाह रहता था, वह हमने बेलगाम भूजल दोहन के फलस्वरूप आज काफी हद तक खो दिया है. प्रदेश की तमाम नदियां, विशेषकर छोटी और सहायक नदियां, दम तोड़ चुकी हैं. मुख्य रूप से भूजल स्रोतों से पोषित इन नदियों के प्रवाह को पुनर्स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है, हालांकि कुकरैल नदी को पुनर्जीवित करने की दिशा में मुख्यमंत्री के हालिया हस्तक्षेप से काफी उम्मीद बंधी है.'
वह कहते हैं 'गंगा बेसिन में स्थित उत्तर प्रदेश राज्य के मैदानी क्षेत्र की भूगर्भीय स्थिति पर नजर डालें, तो पाएंगे कि खासकर छोटी नदियां, जो एक ओर बड़ी नदियों के प्रवाह को संतुलित करने के लिए जिम्मेदार मानी जाती हैं. वहीं इनकी उत्पत्ति भूगर्भीय जलाशयों से होने के साथ प्रकृति द्वारा प्रदत्त व्यवस्था के अंतर्गत इनका जल प्रवाह भी नदी मार्ग में भूजल स्रोतों से ही पोषित होता है. रिमोट सेंसिंग तकनीक से यह पुष्टि की जा चुकी है कि बेसिन क्षेत्र और उनमें सैकड़ों छोटी और सहायक नदियों से पटे इस मैदानी क्षेत्र में नदी तंत्र के पुराने अवशेष (पेलियो चैनल) बड़ी संख्या में जमीन में दबे हुए हैं, जो जल समृद्धता का वैज्ञानिक प्रमाण हैं. जरूरत है कि नदियों को पुनर्जीवित करने की योजना में इन पेलियो-चैनल्स की उपग्रही तस्वीरों के माध्यम से मैपिंग करके संरक्षित करने की शुरुआत की जाए, जिससे प्राकृतिक जल प्रणाली पुनर्स्थापित हो सके.'
डॉ आरएस सिन्हा बताते हैं कि 'भूवैज्ञानिक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि कालांतर में नदियों का प्रवाह भूजल स्रोतों से मिलने वाले प्राकृतिक डिस्चार्ज से रिचार्ज होता रहता था, परंतु विगत तीन दशकों में अधाधुंध भूजल दोहन से भूजल स्तर नीचे जाने के परिणाम स्वरूप इस अधोसतही रिसाव (बेस फ्लो) में भारी कमी आई है, जो इन नदियों के सिकुड़ चुके जल प्रवाह से परिलक्षित होता है. इस वैज्ञानिक निष्कर्ष की पुष्टि गोमती बेसिन में राज्य जल संसाधन अभिकरण द्वारा वर्ष 2009 में किए गए अध्ययन से हुई है, जिसमें 1984 से 2007 के मध्य भूजल स्तर के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया था. इसमें पाया गया कि भूजल स्तर में इस दरमियान 10 से 18 मीटर की औसत गिरावट हुई है. वर्तमान में इस गिरावट में और वृद्धि हुई है. इस निरंतर जलस्तर गिरावट की वजह से ही गोमती नदी और भूजल स्रोतों के मध्य रिश्ता लगभग समाप्त होने से इसका सीधा असर गोमती तथा उसकी सहायक नदियों (सरायन, बेहटा, कल्याणी, रेठ, कुकरैल, सई आदि) के घटते जल प्रवाह पर देखने को मिला है.'
डॉ सिन्हा ने बताया कि 'ग्राउंड वाटर एक्शन ग्रुप ने प्रदेश सरकार को सिफारिश भेजी है कि छोटी व बड़ी नदियों के दोनों तटों पर एक किलोमीटर के दायरे में भूजल दोहन, विशेष रूप से उथले नलकूपों, जो 80-100 मीटर तक के प्रथम एक्यूफर समूह में लगे हैं, पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए. इससे भूजल की उपलब्धता बढ़ने व जलस्तर में सुधार के साथ नदियों को भूजल का बेसफ्लो पुनः मिलने से नदी जलप्रवाह में प्रभावी वृद्धि हो सकेगी. साथ ही नदियों के फ्लड प्लेन की मैपिंग करके उनको संरक्षित क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया जाए.'
वह कहते हैं कि 'वर्तमान में गोमती बेसिन में लगभग 0.8 बिलियन क्यूबिक मीटर भूगर्भ जल, बेसफ्लो के रूप में इस बेसिन क्षेत्र की नदी व जलाशयों में प्रति वर्ष पहुंचने का आकलन किया गया है, जिसमें विगत वर्षों में अपेक्षाकृत काफी कमी आई है, जबकि इस समूचे बेसिन में कृषि और पेयजल आपूर्ति में होने वाला भूजल दोहन लगभग सात बिलियन क्यूबिक मीटर आका गया है. अगर शहरी, औद्योगिक व व्यावसायिक गतिविधियों और निर्माण कार्यों में भूजल के उपयोग व दोहन को जोड़ लिया जाए, तो यह भूजल दोहन का यह आंकड़ा 12 बिलियन क्यूबिक मीटर होगा, जो गोमती बेसिन के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करने में एक बड़ी चुनौती है.'