लखनऊः उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भले ही अभी 6 महीने से ज्यादा का वक्त हो, लेकिन राजनीतिक पार्टियां चुनावी गणित सुलझाने में जुट गई हैं. भाजपा अपनी सरकार के कामकाज, तो सपा और बसपा योगी सरकार की कमियां गिनाकर अपने वोट बैंक को मजबूत करने में जुटी हैं. वहीं, यूपी के सियासी मैदान में पिछले 32 वर्षों से अपनी खोई जमीन तलाशने में जुटी कांग्रेस पार्टी सत्ता के साथ विपक्ष पर भी हमलावर है. राजनीति के जानकार इसे कांग्रेस का M-D (मुस्लिम-दलित) समीकरण मान रहे हैं, जो कभी एकतरफा कांग्रेस का वोटबैंक माना जाता था और उसी की बदौलत देश की आजादी के बाद कई वर्षों तक यूपी के तख्त पर राज करती रही.
राजनीतिक विशेषज्ञ प्रो. रविकांत कहते हैं यूपी में अभी दलित 21 और मुस्लिम वोटर 19 प्रतिशत हैं. कांग्रेस पार्टी यदि इस वोटबैंक में सेंध लगाने में सफल हो जाती है तो उसे विधानसभा में विपक्ष की कुर्सी हासिल हो सकती है. क्योंकि ओबीसी वोटर 41 प्रतिशत है, जिसका वोट प्रतिशत अनेक दलों के बीच बंटता ही है. वैसे भी कांग्रेस पार्टी यूपी में इतनी मजबूत नहीं कि सत्ता में आने के लिए चुनाव लड़े. इसका अंदाजा आप वर्ष 2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव से भी लगा सकते हैं. जिसमें कांग्रेस पार्टी ने ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए दिल्ली की तीन बार मुख्यमंत्री रहीं स्वर्गीय शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री को चेहरा बनाया था. लेकिन बीच में ही कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया और और शीला दीक्षित चर्चा से ही गायब कर दी गईं.
सपा के वोटबैंक पर कांग्रेस की नजर
रविकांत कहते हैं कि मेरा मानना है कि वर्ष 2017 में मिली करारी हार के बाद सपा और कांग्रेस पार्टी इस बार गठबंधन तो करने से रहीं. कांग्रेस की नजर सपा के वोटबैंक खासकर मुस्लिम वोटरों पर है. मुस्लिम वोटरों को वापस अपनी तरफ खींचने की कोशिश कांग्रेस के बड़े नेता कर रहे हैं, इसीलिए वे भाजपा के साथ सपा पर भी हमलावर हैं. प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू हों या फिर अल्पसंख्यक कांग्रेस के चेयरमैन शाहनवाज आलम, दोनों समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को जमकर कोस रहे हैं.
मुस्लिमों को खींचने का प्रयास
राजनीति के जानकार बताते हैं कि 1989 तक मुस्लिम वोटर एकतरफा कांग्रेस की तरफ था, लेकिन धीरे-धीरे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ अपने को जोड़ने लगे और कांग्रेस के लिए सत्ता के रास्ते बंद कर दिए. उत्तर प्रदेश में तकरीबन 143 सीटों पर मुस्लिम अपना असर रखते हैं. इनमें से 70 सीटों पर 20 से 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. वहीं, तीन दर्जन ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में है.
बन जाए बात, इसलिए जारी है जतन
मुस्लिमों को लुभाने के लिए यूपी में अल्पसंख्यक कांग्रेस मुस्लिमों से लगातार संपर्क स्थापित कर रही है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद और उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के चेयरमैन शाहनवाज आलम मुस्लिमों के अलग-अलग वर्ग की समस्याएं नोट कर राष्ट्रीय महासचिव व यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी को भेज रहे हैं. मुस्लिमों को ये विश्वास दिलाया जा रहा है कि उनकी सच्ची हितैषी कांग्रेस पार्टी ही है और वह वापस कांग्रेस के साथ आएं. पार्टी ने मुस्लिमों को लुभाने के लिए खुलकर सीएए और एनआरसी का विरोध किया. कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के समर्थन में पूरी तरह से खड़ी नजर आईं.
कांग्रेस नेता के दावा मुस्लिम साथ आएं तो बन जाए बात
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के चेयरमैन शाहनवाज आलम बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में 10 से 12 प्रतिशत कांग्रेस का वोट है. 19:5 पर्सेंट मुस्लिम वोटर हैं. अगर यही मुस्लिम कांग्रेस पार्टी को सपोर्ट कर दें तो पार्टी मजबूत हो जाएगी. 8 से 10 प्रतिशत वोटर अलग-अलग जाति वर्ग से कांग्रेस को वोट करेंगे ही, निश्चित तौर पर हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में कामयाब होंगे. कांग्रेस पार्टी लगातार इसके लिए प्रयासरत है.
सपा से खिसक रहे यादव, मुस्लिमों को समझ आ रही चाल
अल्पसंख्यक कांग्रेस के चेयरमैन शहनवाज आलम कहते हैं कि अब तो समाजवादी पार्टी को अपना सजातीय वोट भी नहीं मिल रहा है. यादव समाजवादी पार्टी से खिसक रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन लोकसभा और विधानसभा चुनाव के आंकड़े इसे पुष्ट करते हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में 73 प्रतिशत सजातीय वोट समाजवादी पार्टी को मिला था. 2014 में 53 प्रतिशत रह गया और 2019 में जब सपा-बसपा का गठबंधन हुआ तो सिर्फ 29 प्रतिशत यादव वोट ही समाजवादी पार्टी को मिला. इसी तरह विधानसभा चुनाव 2007 में 72 प्रतिशत यादव वोट मिले. 2012 में 66 और 2017 में 40 प्रतिशत ही वोट मिले. यह साबित करता है कि अब अखिलेश यादव के पास अपनी बिरादरी का सिर्फ 40 प्रतिशत वोट ही बचा हुआ है. यह बात मुसलमानों को समझ आ रही है कि जहां-जहां भी सपा के गठबंधन से प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं वहां उनका सजातीय वोट भारतीय जनता पार्टी को चला जाता है.
यहां से यूपी में गिरने लगा कांग्रेस का ग्राफ
बता दें कि कांग्रेस के सर्वमान्य नेता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई और 1991 में कुर्सी पर नरसिम्हा राव ने सवारी कर ली. केंद्र की कुर्सी नरसिम्हा राव के हाथ जाते ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत खस्ता होना शुरू हो गई. यूपी के बड़े नेता एनडी तिवारी ने विरोध स्वरूप कुछ वक्त के लिए 'कांग्रेस तिवारी' के नाम से पार्टी खड़ी की. हालांकि कुछ ही समय बाद एनडी तिवारी ने कांग्रेस तिवारी को वापस कांग्रेस में विलय कर दिया. इधर, उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए. लेकिन बाबरी विध्वंस बाद महज 18 महीने ही कल्याण सिंह की सरकार चली गई.
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मुलायम के साथ खड़े हो गए मुस्लिम
उधर, साल 2002 में बीजेपी ने बीएसपी के साथ मिलकर एक बार फिर गठबंधन किया. मायावती ने प्रदेश की कुर्सी संभाली, लेकिन जब छह माह बाद भाजपा को सत्ता सौंपने की बारी आई तो मायावती ने कदम खींच लिए. इसके बाद कांग्रेस और बसपा से टूटे लोकतांत्रिक कांग्रेस और जनतांत्रिक बसपा ने मुलायम सिंह को 2003 में समर्थन देकर सरकार बनवा दी. कांग्रेस ने इसी बीच अरुण सिंह मुन्ना और जगदंबिका पाल को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी दी.
मुसलमान को कांग्रेस में नहीं मिला पाए सलमान
साल 2004 में केंद्र में कांग्रेस ने फिर वापसी की. डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी और सलमान खुर्शीद को उत्तर प्रदेश भेजा गया, लेकिन सलमान मुसलमान को अपनी तरफ खींच नहीं पाए. 2007 में मुलायम सिंह की सरकार जाने के बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता की कुर्सी पर मायावती सवार हो गईं. कांग्रेस ने भी प्रदेश नेतृत्व में परिवर्तन करते हुए रीता बहुगुणा जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. अपने कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस को फिर से कुछ हद तक वापसी कराई लेकिन उम्मीदों पर वह भी खरी नहीं उतर पाईं. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि इस बार कांग्रेस पार्टी यूपी में अपनी सियासी जमीन कितना मजबबूत कर पाएगी.