लखनऊ : प्रदेश कांग्रेस को नया अध्यक्ष तो मिल गया है, लेकिन पार्टी को फिर मुकाबले में लाने के लिए अभी कई कदम उठाए जाने बाकी हैं. पार्टी में स्थानीय स्तर पर काफी सुधार की जरूरत है. पार्टी के तमाम नेता सीधे शीर्ष नेतृत्व से आदेश लेते हैं और वहीं रिपोर्ट भी करते हैं, वहीं राज्य स्तर पर भी भीतरी राजनीति पार्टी को कमजोर करती है. दस माह पहले पार्टी ने ब्रजलाल खाबरी के रूप में दलित चेहरे पर दांव लगाया था, लेकिन इसी अंतर्कलह के कारण ही वह कोई खास काम नहीं कर पाए. यहां तक कि दस महीनों में पार्टी के राज्य संगठन का भी विस्तार नहीं हो पाया. यदि इस बार भी खाबरी के कार्यकाल जैसी स्थिति रही, तो अजय राय बहुत कुछ कर पाएंगे कहना कठिन है.
अक्टूबर 2022 में जब ब्रजलाल खाबरी को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और उनके साथ छह प्रांतीय अध्यक्षों नसीमुद्दीन सिद्दीकी, अजय राय, वीरेंद्र चौधरी, नकुल दुबे, अनिल यादव और योगेश दीक्षित के नामों की घोषणा की गई, लोगों को उम्मीद जगी थी कि पार्टी फिर उठ खड़ी होगी, हालांकि कुछ माह बाद ही समझ में आने लगा था कि ब्रजलाल खाबरी बहुत कुछ कर पाने में सक्षम नहीं हैं और उन्हें हर निर्णय के लिए शीर्ष नेतृत्व का मुंह देखना पड़ता था. पार्टी के कई बड़े नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के सीधे संपर्क में थे और वह प्रदेश नेतृत्व को खास तवज्जो नहीं देते थे. ऐसे में पार्टी का संगठन कैसे तैयार हो पाता. सभी जानते हैं कि पिछले कई दशक से प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति सबसे कमजोर दलों की है. पार्टी का जमीनी स्तर पर कोई आधार और बूथ स्तर पर कार्यकर्ता शेष नहीं रह गए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए नए सिरे से संगठन खड़ा करने की चुनौती है.
अजय राय पार्टी के कद्दावर नेता हैं. उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि पार्टी नेतृत्व उन्हें कितना अधिकार देता है. यदि वह स्वतंत्र रूप से अपने निर्णय ले पाए, तो निश्चित रूप से यह पार्टी को आगे बढ़ाने का अच्छा समय साबित हो सकता है. पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं का नेटवर्क तैयार करने की है. दूसरा विषय है कि पार्टी और संगठन के विस्तार में सभी नेताओं का मिलकर साथ काम करना. जब तक आपसी खींचतान रहेगी संगठन और कार्यकर्ता खांचों में बटे रहेंगे और यदि एक होकर सकारात्मक ऊर्जा के साथ आगे बढ़ेंगे, तो उसके परिणाम भी देखने को मिलेंगे. पूर्वांचल में तो अजय राय का अच्छा प्रभाव है, लेकिन प्रदेश के अन्य हिस्सों में पार्टी को खड़ा करने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी.
राजनीति विश्लेषक डॉ प्रदीप यादव कहते हैं 'पिछले दो दशक से देश और खास तौर पर उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है. एक 2007 से 2022 तक लगातार बहुमत के साथ राज्य सरकारें बनी हैं, जिससे राजनीतिक स्थिरता आई है और जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार पर काफी हद तक विराम लगा है. बार-बार होने वाले चुनावों पर बर्बाद होने वाला पैसा भी बचा है. यही कारण है कि प्रदेश में काफी विकास के काम हो पाए हैं. दूसरी बात जनता चेहरा देखकर पार्टी के लिए वोट कर रही है. यही कारण है कि 2012 में प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, लेकिन दो साल बाद ही लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश में रिकॉर्ड सीटें हासिल कीं और केंद्र में अपनी सरकार बनाई. 2019 में भी मोदी के नाम पर वोट पड़े और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से भी भाजपा ने अच्छी सफलता हासिल की. यही कारण है कि विधानसभा चुनावों में परिणाम अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग देखने को मिले, इसलिए आगामी लोकसभा चुनावों में भी यही ट्रेंड रहने की उम्मीद है. अब देखना होगा कि नरेंद्र मोदी का जादू कायम रहता है या नहीं. यदि विपक्षी गठबंधन प्रधानमंत्री पद के लिए कोई मोदी की टक्कर का चेहरा पेश कर सका, तो कांग्रेस की सूरत भी बदलनी तय है. अन्यथा मान लेना चाहिए कि कांग्रेस के लिए अभी और संघर्ष का रास्ता तय करना बाकी है.'