लखनऊ : निकाय चुनाव के पहले चरण में अपेक्षा से काफी कम मतदान हुआ है. इसे लेकर कई राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ गई हैं और यह विश्लेषण शुरू हो गया है कि आखिर कम मतदान का नुकसान किसे होगा. नगर निगम और खास तौर पर राजधानी लखनऊ के चुनाव में काफी कम मतदान हुआ है. लोग यह समझ नहीं पा रहे कि आखिर जहां सबसे ज्यादा शिक्षित वर्ग रह रहा है और जिन्हें सबसे अधिक मतदान का महत्व समझना चाहिए आखिर वही लोग क्यों मतदान के लिए बाहर नहीं निकले. पहले चरण में 37 जिलों में हुए निकाय चुनाव के मतदान में यह आंकड़ा सामने आया है कि वर्ष 2017 के मुकाबले इनमें से 33 जिलों में मतदान प्रतिशत घटा है. बड़े शहरों की अपेक्षा छोटे शहरों में मतदान अधिक हुआ है. आंकड़े बताते हैं कि छोटी जगहों के लोग चुनाव में अपेक्षाकृत ज्यादा रुचि दिखा रहे हैं, जबकि बड़े शहरों में मतदान को लेकर उत्साह कम दिखाई दिया है.
निकाय चुनाव के पहले चरण में विगत चार मई को प्रदेश के 9 मंडलों और 10 नगर निगमों, 104 नगर पालिका परिषदों व 276 नगर पंचायतों के लिए मतदान हुआ था. इस चुनाव में 7593 पदों के लिए 44 हजार से ज्यादा उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे. यदि मतदान प्रतिशत की बात करें तो पहले चरण में 52 फ़ीसदी मतदान हुआ. जिसमें राजधानी में महज 38.62 फीसद वोट पड़े. महाराजगंज में सबसे ज्यादा मत प्रतिशत रहा. यहां 64.48 फीसद वोट पड़े. राजधानी लखनऊ के 31 लाख मतदाताओं में से सिर्फ 12 लाख वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. यदि बात सिर्फ लखनऊ नगर निगम क्षेत्र की करें तो नगर निगम के कुल आठ जोन में 36.97 फीसद वोटिंग हुई. जबकि लखनऊ नगर पंचायत में 64 फीसद वोट पड़े. राजधानी के नगर निगम क्षेत्र में 29 लाख 26 हजार मतदाता थे, जिनमें से सिर्फ 10 लाख 81 हजार नौ सौ वोटरों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. इस तरह सिर्फ राजधानी के ही आंकड़े बताते हैं कि शहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्र के मतदान में भारी अंतर दिखाई दिया है. यह स्थिति वाकई चौंकाने वाली है.
नगर निगम क्षेत्र में जहां सबसे अधिक शिक्षित और हाई प्रोफाइल के मतदाता रहते हैं, वहां इस तरह सबसे कम मतदान चिंता बढ़ा रहा है. समाज के जिस वर्ग से यह उम्मीद होती है कि वह लोकतंत्र के इस उत्सव में बढ़ चढ़कर आगे हिस्सा ले, वही वर्ग चुनाव में सबसे ज्यादा उदासीन है. हालांकि ऐसा पहले भी होता रहा है. बावजूद इसके इस बार पिछली बार के मुकाबले मतदान और भी कम हुआ है. कहा यह भी जा रहा है कि प्रथम चरण के चुनाव के दौरान लगातार चार दिन का अवकाश होने के कारण बड़ी संख्या में लोग छुट्टियां मनाने में लग गए और इसने मतदान का रंग फीका किया. हालांकि यह बहुत ही चिंता का विषय है. चुनाव में शिक्षक वर्ग को बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी निभानी चाहिए, ताकि इसका संदेश निचले पायदान तक जाए. हालांकि यहां तो छोटी जगहों के लोग यह बताने में कामयाब हुए हैं कि उन्हें मतदान का महत्व ज्यादा मालूम है. शायद इसीलिए उन्होंने मतदान में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. उधर सत्ता के गलियारों में इस बात की चर्चा भी तेज हो गई है कि जहां कम मतदान हुआ है वहां नुकसान किस पार्टी को होगा. कई विश्लेषक मान रहे हैं कि शहरी क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव ज्यादा देखा जाता रहा है. ऐसे में कम मतदान से भाजपा को ही नुकसान होगा. वहीं कुछ अन्य लोगों का कहना है कि यह नुकसान सभी वर्गों के लिए है. जिन लोगों को लगता है कि उनके मतदान से समाज और सरकार में कोई बड़ा बदलाव होने वाला नहीं है, वह भी मतदान के प्रति उदासीन हैं. स्वाभाविक है कि इसका नुकसान सभी को होगा. कम मतदान से बात एक बात तो तय ही हो गई है. तमाम सीटों पर मुकाबला बेहद रोचक होने वाला है और कई लोगों के समीकरण बदल सकते हैं. गौरतलब है कि दूसरे चरण का मतदान 11 मई को होना है. 13 मई को मतगणना होगी और चुनाव परिणाम सामने आएंगे.
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. प्रदीप यादव कहते हैं यह पहली बार नहीं है जब तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग मतदान के लिए घरों से बाहर नहीं निकला. पहले भी ऐसा देखने को मिलता रहा है. तमाम चुनावों में शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में मतदान ज्यादा होता आया है. शहरी मतदाता का यह रवैया निश्चित रूप से समाज में नकारात्मक संदेश देता है. ऐसे लोग सरकारों के कामकाज की समीक्षा, आलोचना और समालोचना तो करते रहते हैं पर जब समय उनके योगदान का आता है, तो वह घरों से बाहर नहीं निकलते. इस चुनाव में मतदाता सूची में गड़बड़ी की भी तमाम शिकायतें आई हैं. वहीं बूथ प्रबंधन को लेकर भी तमाम लोगों ने शिकायतें की हैं. कम मतदान से नतीजों में चौंकाने वाला बदलाव देखने को मिल सकता है. वहीं बागी उम्मीदवार भी दलीय उम्मीदवारों के लिए मुसीबतें खड़ी करेंगे. कम मतदान का यह ट्रेंड इस ओर भी इशारा करता है कि हमें मतदान की प्रणाली में बदलाव के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए. पत्नी के इस दौर में क्या चुनाव मतदान की कोई और व्यवस्था हो सकती है? क्या इंटरनेट और ऑनलाइन माध्यमों से मतदान नहीं कराया जा सकता? जब बैंकिंग सेवाएं बहुत ही सहज ढंग से तकनीक का उपयोग करके दी जा रही हैं, तो चुनाव में भी अधिक तकनीक का उपाय किया जाना चाहिए. ऐसे उपायों से ही मत प्रतिशत बढ़ाया जा सकेगा. हालांकि सरकार के लिए इस तरह का फैसला हाल फिलहाल संभव नहीं दिखाई देता, लेकिन भविष्य के लिए इसके बारे में विचार शुरू कर देना चाहिए.