लखनऊ: यूपी में मिलने वाले लावरिस शवों की पहचान करने के लिए सोशल मीडिया से लेकर यूपी कॉप एप्लिकेशन तक मुहैया कराई गई है. बावजूद इसके पुलिस शवों की शिनाख्त करने में फिसड्डी ही साबित होती है. सिर्फ राजधानी में ही दर्जनों ऐसे शव मिल चुकी हैं. जिनकी शिनाख्त न हो पाने पर उनकी मौत की असल वजह तक पुलिस कभी पहुंच ही नहीं पाई. राजधानी के सुशांत गोल्फ सिटी थाना में बीते दिनो एक सिर कटी युवक की लाश मिली थी. युवक की हत्या की गई और पहचान छिपाने के लिए धड़ से सिर काट दिया गया था. पुलिस उसकी शिनाख्त नहीं कर सकी. 21 मार्च को 2022 को ठाकुरगंज में एक अधजली लाश मिली अब तक पुलिस उस महिला की शिनाख्त ही नहीं कर सकी है. 22 जनवरी 2019 में भी इकाना स्टेडियम के पास एक ट्राली बैैंग में युवती की लाश मिली थी. पहचान उसकी भी नहीं हो सकी थी. असल में लखनऊ में ज्यादातर लावारिस लाशों की पहचान नहीं हो पाती है. उत्तर प्रदेश में लावारिस लाशों की पहचान के लिए यूपी कॉप एप में एक कालम दिया गया है. जिसे गुमशुदगी व लावारिस लाश दोनों कालम को एक साथ भी जोड़ गया है. इस कालम में थाने स्तर पर मिलने वाली लाश की फोटो व अन्य पहचान उसमें अपलोड किया जाता है. हालांकि इससे पहचान बहुत कम ही हो पाती है.
किन किन तरीकों से होनी चाहिए शिनाख्त : लावारिस लाशों की शिनाख्त में कोई गड़बड़ी न हो, इसके लिए उनका डीएनए मैचिंग प्रोफाइल तैयार करने का नियम है. पंचनामा से फोरेंसिक टीम लाश के बाल, दांत, नाखूनों के नमूने सुरक्षित करें, ताकि जरूरत पड़ने पर परिजन शिनाख्त कर सकें. डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक एसिड (डीएनए) टेस्ट के जरिए भी शिनाख्त की जा सकती है. इंसान के शरीर का एक ऐसा एसिड, जो जिंदगी के कई रहस्यों को समेटे रहता है. हर इंसान में डीएनए का एक खास पैटर्न होता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी एक से दूसरे जेनरेशन में ट्रांसफर होता है.
लावारिस शव मिलने पर पुलिस प्रक्रिया : लावरिस लाश मिलने पर पुलिस सबसे पहले एफआईआर दर्ज करती है और शव की तस्वीर ली जाती है. फोटो खींचकर न्यूज पेपर में विज्ञापन देने का नियम है. वाट्सएप चैट ग्रुप में भी फोटो और जो भी लाश ने पहने हुए होते है उनके संबंधी डीटेल शेयर की जानी चाहिए. पोस्ट्मॉर्टम के दौरान मृत्यु की वजह के साथ-साथ मृतक के शरीर पर जन्म से मौजूद कोई निशान, शरीर पर कोई चोट, कोई टैटू की शिनाख्त की जाती है. कई बार इससे ऐसी जानकारी मिलती है, जिससे मृतक की पहचान हो जाती है.
72 घंटे बाद होता है पीएम : इस दौरान थानों में दर्ज गुमशुदगी की रिपोर्ट या गुमशुदगी के विज्ञापनों से मिलान करके देखा जाता है कि क्या कोई पहचान साबित हो रही है. इसके बाद लाश को 36-72 घंटे मुर्दाघर में रखा जाता है. लावारिस लाशों की पहचान में आधार कार्ड मददगार साबित होता है. फॉरेंसिक एक्सपर्ट डॉ विश्वजीत (Forensic Expert Dr. Vishwajit) की राय है कि लावारिस लाशों की पहचान के अब तक जितने तरीके हैं वे फेल हैं और 72 घंटे में पहचान अमूमन नहीं ही हो पाती है. डॉक्टरों का कहना है कि आधार के बायोमीट्रिक सिस्टम से लावारिस लाश की पहचान एक मिनट में हो सकती है. पुलिस को एक पोर्टेबल बायोमीट्रिक सिस्टम दे दिया जाए तो लावारिस बॉडी का अंगूठा टच कराते ही सारी जानकारी मिल जाएगी. पुलिस को शहर में रहने वाले बेघर लोगों की पूरी डिटेल रखनी चाहिए. शव के पास मिली चीजों के आधार पर आसपास के जिलों में पहचान की कोशिश करनी चाहिए. सोशल मीडिया पर फोटो, कपड़े और चीजों को डाला जाए और पूरी सूचना लिखी जानी चाहिए.
यहां होती ही पुलिस से चूक : शवों के फिंगर प्रिंट नहीं लेते, मीडिया में विज्ञापन देने की जगह खबर प्रकाशित करने पर फोकस,अधिकतर शवों के डीएनए सैंपल नहीं लेते. कपड़े तक संभाल कर नहीं रखे जाते, सीआईडी सीबी शाखा को सूचना नहीं दी जाती. केवल जिपनेट के भरोसे काम चलता है. ऐसे शवों के फोटो व अन्य जानकारी के पंपलेट छपवाकर स्टेशन व आसपास के राज्यों में नहीं भेजे जाते.
वहीं लखनऊ पुलिस की प्रवक्ता व डीसीपी सेंट्रल अपर्णा रजत कौशिक (Lucknow Police spokesperson and DCP Central Aparna Rajat Kaushik) के मुताबिक जब भी कोई लावरिस लाश मिलती है तो उसकी पहचान के लिए कई तरह के काम की जाते हैं. एनसीआरबी हर चीज का डाटा शेयर करने के साथ-साथ स्पॉट के चारों दिशा के एरिया में भी उसकी पहचान के लिए टीम छानबीन करती है. यही नहीं गुमशुदगी के विज्ञापन व सोशल मीडिया के माध्यम से भी पहचान के प्रयास किए जाते हैं.
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