छिंदवाड़ा: हाथों में पत्थर, जुबां पर चंडी का नाम और एक-दूसरे को जख्मी करने का जुनून. कुछ ऐसा ही है गोटमार मेला. जिसमें दो गांवों के लोग परंपरा के नाम पर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्ना गांव और सावर गांव के बीच हर साल ये खूनी खेल खेला जाता है. जिसमें हजारों लोग घायल होते हैं. फिर भी परंपरा के नाम पर कई दशकों से ये पागलपन जारी है.
पांर्ढुना में हर साल भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष में, पोला त्योहार के दूसरे दिन पांर्ढुना और सावर गांव के बीच बहने वाली जाम नदी के दोनों किनारों से दोनों गांव के लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाकर इस परंपरा को निभाते हैं. गोटमार मेले की परंपरा बहुत पुरानी बताई जाती है. ये मेला कब शुरू हुआ इसका किसी को ठीक से अंदाजा नहीं है. हालांकि इसके पीछे लोग एक कहानी जरूर बताते हैं.
बताया जाता है कि पांढुर्ना गांव के एक लड़के का दिल सावर गांव की एक लड़की पर आ गया. फिर दोनों का इश्क परवान चढ़ा और दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया. एक दिन पांढुर्ना गांव का लड़का अपने दोस्तों के साथ सावर गांव पहुंचा और अपनी प्रेमिका को भगाकर ले जा रहा था. जब दोनों जाम नदी को पार कर रहे थे. तभी सावर गांव के लोग वहां पहुंच गए और फिर भीड़ ने दोनों का लैला-मजनू जैसा हस्र कर दिया.
इस बात की जानकारी जब पांढुर्ना गांव के लोगों को लगी तो वे भी पत्थर का जबाव पत्थर से देने पहुंच गये. जिसके बाद पांर्ढुना और सावर गांव के बीच बहती नदी के दोनों किनारों से बदले के पत्थर पत्थर बरसाने लगे, जिसमें नदी के बीच ही प्रेमी जोड़े की मौत हो गयी.
दोनों की मौत के बाद पांढुर्ना और सावर गांव के लोगों को अपनी गलती का एहसास हुआ. लिहाजा दोनों गांव के लोगों ने प्रेमी-प्रेमिका का शव ले जाकर मां चंडी के मंदिर में रखा और पूजा-पाठ के बाद उनका अंतिम संस्कार कर दिया. इसके बाद से ही परंपरा के नाम पर ये खूनी खेल शुरु हो गया. जो अब तक चल रहा है.
गोटमार मेला हर साल आयोजित होता है, परंपरा के नाम पर पांढुर्ना और सावरगांव के लोग एक दूसरे का खून बहाते हैं. जहां सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक पत्थर ही पत्थर बरसते हैं. इस मेले में घायल हुए न जाने कितने लोग मौत की आगोश में समा जाते हैं. हर साल इस मेले में सैंकड़ों लोग घायल होते हैं, लेकिन जो अस्पताल पहुंचते हैं. उसे ही आधिकारिक आंकड़ा माना जाता है.
खास बात ये है कि परंपरा के नाम पर होने वाला ये खूनी संघर्ष हर साल खाकी के साये में होता है, लेकिन प्रशासन के सामने भी इस पागलपन को रोकने की मजबूरी है क्योंकि इसे रोकने का मतलब आस्था की आग को भड़काना है, लिहाजा प्रशासन भी फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है.