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जब कल्याण और भाजपा में ठनी, दोनों को हुआ एक-दूसरे की ताकत का एहसास

कभी यूपी में कल्याण मतलब भाजपा और भाजपा मतलब कल्याण समझा जाता था. लेकिन, एक वक्त ऐसा भी आया जब कल्याण और बीजेपी की राहें अलग हो गईं. इसके बाद यूपी की सियासत में कल्याण सिंह और बीजेपी दोनों हासिए पर चले गए.

कल्याण और भाजपा में रार.
कल्याण और भाजपा में रार.
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Published : Aug 21, 2021, 10:48 PM IST

Updated : Aug 21, 2021, 11:00 PM IST

लखनऊ: एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश में भाजपा का मतलब कल्याण और कल्याण का मतलब भाजपा समझा जाता था, लेकिन साल 1999 में ऐसा भी दौर आया जब एक-दूसरे के पूरक रहे कल्याण सिंह और भाजपा धुरविरोधी बन गए. ऐसे भी घटनाक्रम हुए जिससे कल्याण को पार्टी से बाहर जाना पड़ा. 2012 के विधानसभा में कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी चुनाव में उतरी तो भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया और भाजपा 1991 के बाद अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई. उस चुनाव में भाजपा को महज 47 सीटें मिलीं. उधर, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी इस चुनाव में सिर्फ वोट कटवा पार्टी बनकर रह गई. इसके बाद कल्याण और भाजपा को एक दूसरे की ताकत का एहसास हुआ.

ऐसे में साल 2013 में भाजपा नेतृत्व, खासकर नरेंद्र मोदी के पीएम पद की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद तत्कालीन बीजेपी के यूपी प्रभारी अमित शाह की पहल पर कल्याण की एक बार फिर पार्टी में वापसी हुई. जिसके बाद 2014 के चुनाव में बीजेपी ने यूपी के राजनीतिक इतिहास में वो करिश्मा कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर पाया है. बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल ने 2014 के चुनाव में यूपी की 80 लोकसभा सीटों में 73 सीट जीती. जिसमें से बीजेपी ने अकेले 71 सीटों पर जीत दर्ज की. जिसके बाद 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी. इसके बाद 2017 के चुनाव में भी बीजेपी ने बड़ा करिश्मा करके दिखाया.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

जब टूटा भाजपा और कल्याण का भ्रम


राजनीतिक विश्लेषक विजय शंकर पंकज कहते हैं कि राम मंदिर आंदोलन से कल्याण का कद इतना बड़ा हो गया था कि उन्हें अपने आगे सारे नेताओं का कद बौना लगने लगा था. मायावती के भाजपा को सत्ता हस्तांतरित नहीं करने और जोड़तोड़ कर भाजपा की सरकार बनने के बीच कल्याण की अपनी ही पार्टी के कई नेताओं से दूरियां बढ़ गयी थीं. केंद्रीय नेताओं से तल्खियां इतनी बढ़ीं कि कल्याण को भाजपा से बाहर होना पड़ा. विजय शंकर पंकज कहते हैं कि कल्याण को यह भ्रम था कि पार्टी उनसे है. दूसरी तरफ यह भ्रम पार्टी के कुछ अन्य नेताओं को भी रहा. इस घटनाक्रम से भाजपा और कल्याण दोनों को ही नुकसान हुआ. केंद्रीय नेतृत्व से तल्खी बढ़ने के बाद कल्याण सिंह ने एक बार तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में यहां तक कह दिया कि, वे सिर्फ पार्टी का मुखौटा हैं.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.


2002 में कल्याण की पार्टी को मिलीं 4 सीटें

बीजेपी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद कल्याण सिंह ने जनक्रांति पार्टी बनाई. उनकी पार्टी 2002 के यूपी विधानसभा चुनाव में उतरी. कल्याण की पार्टी को केवल चार सीटें मिलीं. इस चुनाव में भाजपा को 88 सीटें, सपा को 143, बसपा को 98, कांग्रेस को 25 और रालोद को 14 सीटें मिलीं थीं. इस चुनाव में भाजपा को भारी नुकसान हुआ. इसके बाद कल्याण सिंह भाजपा वापस आ गए. कल्याण सिंह के भाजपा में रहते हुए 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए. लेकिन, कल्याण के वापस आने से भाजपा के अंदर कलह बढ़ गयी. दरसल, कल्याण सिंह खुद को पुराना वाला कल्याण ही समझ रहे थे और वह अपने हिसाब से भाजपा को चलाने की कोशिश कर रहे थे. दूसरी तरफ पार्टी के कई कद्दावर नेता उन्हें बाहरी का दर्जा दे रहे थे. चुनाव तो किसी तरह से हो गए, लेकिन पार्टी को इस चुनाव में भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली. भारतीय जनता पार्टी घटकर 51 सीटों पर पहुंच गई. इस चुनाव में बसपा अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के साथ अपने दम पर बहुतम का आंकड़ा पार करने में सफल रही और मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. इसके बाद कल्याण सिंह और भाजपा की राह एक फिर अलग हो गई.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

जब गले मिले कल्याण-मुलायम

इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह ने मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया. इस चुनाव में कल्याण सिंह एटा से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. लेकिन, मुलायम सिंह के साथ सपा के लिए प्रचार करते नजर आए. लेकिन, कल्याण सिंह से दोस्ती सपा को भारी पड़ गई और सपा को महज 24 सीटें मिलीं. जिसके बाद मुलायम सिंह यादव ने मुलायम ने कल्याण से किनारा कर लिया. इस चुनाव में बीजेपी को भी भारी नुकसान हुआ.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

कल्याण से अलग होने का भाजपा को लगी सबसे बड़ी चोट

भाजपा की तो सबसे बदतर स्थिति 2012 के विधानसभा चुनाव में पहुंची जब कल्याण सिंह ने भाजपा के खिलाफ मजबूत मोर्चा खोल दिया कल्याण की जनक्रांति पार्टी के 200 से अधिक उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे दिए. इस बार कल्याण सिंह की पार्टी को कोई सफलता नहीं मिली. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी 50 के नीचे भी जा पहुंची. भाजपा को 47 सीटों पर संतुष्ट होना पड़ा. 1991 के बाद भाजपा अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई. इस बार प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को अपना आशीर्वाद दिया और प्रचंड बहुमत के साथ अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कल्याण के अलग होने के बाद भाजपा के लिए यह सबसे बड़ी चोट थी.

जब भाजपा-कल्याण का टूटा भ्रम
वरिष्ठ पत्रकार राजनीतिक विश्लेषक पीएन द्विवेदी कहते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह और भारतीय जनता पार्टी, दोनों का ही भ्रम टूट गया. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कल्याण भाजपा आ गए. भले ही यह महज संयोग रहा हो लेकिन, भाजपा तब से लगातार बढ़त बनाये हुए है. कल्याण को सियासी दुनिया में जाति से ऊपर उठकर देखा गया. लेकिन, एक सच्चाई यह भी है कि कल्याण जिस लोध बिरादरी से आते हैं, यूपी में उसकी तादात काफी है. लोध समाज के लोग उन्हें अपना नेता मानते थे.

लखनऊ: एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश में भाजपा का मतलब कल्याण और कल्याण का मतलब भाजपा समझा जाता था, लेकिन साल 1999 में ऐसा भी दौर आया जब एक-दूसरे के पूरक रहे कल्याण सिंह और भाजपा धुरविरोधी बन गए. ऐसे भी घटनाक्रम हुए जिससे कल्याण को पार्टी से बाहर जाना पड़ा. 2012 के विधानसभा में कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी चुनाव में उतरी तो भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया और भाजपा 1991 के बाद अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई. उस चुनाव में भाजपा को महज 47 सीटें मिलीं. उधर, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी इस चुनाव में सिर्फ वोट कटवा पार्टी बनकर रह गई. इसके बाद कल्याण और भाजपा को एक दूसरे की ताकत का एहसास हुआ.

ऐसे में साल 2013 में भाजपा नेतृत्व, खासकर नरेंद्र मोदी के पीएम पद की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद तत्कालीन बीजेपी के यूपी प्रभारी अमित शाह की पहल पर कल्याण की एक बार फिर पार्टी में वापसी हुई. जिसके बाद 2014 के चुनाव में बीजेपी ने यूपी के राजनीतिक इतिहास में वो करिश्मा कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर पाया है. बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल ने 2014 के चुनाव में यूपी की 80 लोकसभा सीटों में 73 सीट जीती. जिसमें से बीजेपी ने अकेले 71 सीटों पर जीत दर्ज की. जिसके बाद 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी. इसके बाद 2017 के चुनाव में भी बीजेपी ने बड़ा करिश्मा करके दिखाया.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

जब टूटा भाजपा और कल्याण का भ्रम


राजनीतिक विश्लेषक विजय शंकर पंकज कहते हैं कि राम मंदिर आंदोलन से कल्याण का कद इतना बड़ा हो गया था कि उन्हें अपने आगे सारे नेताओं का कद बौना लगने लगा था. मायावती के भाजपा को सत्ता हस्तांतरित नहीं करने और जोड़तोड़ कर भाजपा की सरकार बनने के बीच कल्याण की अपनी ही पार्टी के कई नेताओं से दूरियां बढ़ गयी थीं. केंद्रीय नेताओं से तल्खियां इतनी बढ़ीं कि कल्याण को भाजपा से बाहर होना पड़ा. विजय शंकर पंकज कहते हैं कि कल्याण को यह भ्रम था कि पार्टी उनसे है. दूसरी तरफ यह भ्रम पार्टी के कुछ अन्य नेताओं को भी रहा. इस घटनाक्रम से भाजपा और कल्याण दोनों को ही नुकसान हुआ. केंद्रीय नेतृत्व से तल्खी बढ़ने के बाद कल्याण सिंह ने एक बार तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में यहां तक कह दिया कि, वे सिर्फ पार्टी का मुखौटा हैं.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.


2002 में कल्याण की पार्टी को मिलीं 4 सीटें

बीजेपी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद कल्याण सिंह ने जनक्रांति पार्टी बनाई. उनकी पार्टी 2002 के यूपी विधानसभा चुनाव में उतरी. कल्याण की पार्टी को केवल चार सीटें मिलीं. इस चुनाव में भाजपा को 88 सीटें, सपा को 143, बसपा को 98, कांग्रेस को 25 और रालोद को 14 सीटें मिलीं थीं. इस चुनाव में भाजपा को भारी नुकसान हुआ. इसके बाद कल्याण सिंह भाजपा वापस आ गए. कल्याण सिंह के भाजपा में रहते हुए 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए. लेकिन, कल्याण के वापस आने से भाजपा के अंदर कलह बढ़ गयी. दरसल, कल्याण सिंह खुद को पुराना वाला कल्याण ही समझ रहे थे और वह अपने हिसाब से भाजपा को चलाने की कोशिश कर रहे थे. दूसरी तरफ पार्टी के कई कद्दावर नेता उन्हें बाहरी का दर्जा दे रहे थे. चुनाव तो किसी तरह से हो गए, लेकिन पार्टी को इस चुनाव में भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली. भारतीय जनता पार्टी घटकर 51 सीटों पर पहुंच गई. इस चुनाव में बसपा अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के साथ अपने दम पर बहुतम का आंकड़ा पार करने में सफल रही और मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. इसके बाद कल्याण सिंह और भाजपा की राह एक फिर अलग हो गई.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

जब गले मिले कल्याण-मुलायम

इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह ने मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया. इस चुनाव में कल्याण सिंह एटा से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. लेकिन, मुलायम सिंह के साथ सपा के लिए प्रचार करते नजर आए. लेकिन, कल्याण सिंह से दोस्ती सपा को भारी पड़ गई और सपा को महज 24 सीटें मिलीं. जिसके बाद मुलायम सिंह यादव ने मुलायम ने कल्याण से किनारा कर लिया. इस चुनाव में बीजेपी को भी भारी नुकसान हुआ.

जब कल्याण और भाजपा में ठनी
जब कल्याण और भाजपा में ठनी.

कल्याण से अलग होने का भाजपा को लगी सबसे बड़ी चोट

भाजपा की तो सबसे बदतर स्थिति 2012 के विधानसभा चुनाव में पहुंची जब कल्याण सिंह ने भाजपा के खिलाफ मजबूत मोर्चा खोल दिया कल्याण की जनक्रांति पार्टी के 200 से अधिक उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे दिए. इस बार कल्याण सिंह की पार्टी को कोई सफलता नहीं मिली. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी 50 के नीचे भी जा पहुंची. भाजपा को 47 सीटों पर संतुष्ट होना पड़ा. 1991 के बाद भाजपा अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई. इस बार प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को अपना आशीर्वाद दिया और प्रचंड बहुमत के साथ अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कल्याण के अलग होने के बाद भाजपा के लिए यह सबसे बड़ी चोट थी.

जब भाजपा-कल्याण का टूटा भ्रम
वरिष्ठ पत्रकार राजनीतिक विश्लेषक पीएन द्विवेदी कहते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह और भारतीय जनता पार्टी, दोनों का ही भ्रम टूट गया. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कल्याण भाजपा आ गए. भले ही यह महज संयोग रहा हो लेकिन, भाजपा तब से लगातार बढ़त बनाये हुए है. कल्याण को सियासी दुनिया में जाति से ऊपर उठकर देखा गया. लेकिन, एक सच्चाई यह भी है कि कल्याण जिस लोध बिरादरी से आते हैं, यूपी में उसकी तादात काफी है. लोध समाज के लोग उन्हें अपना नेता मानते थे.
Last Updated : Aug 21, 2021, 11:00 PM IST
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