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जयंती विशेष: आगरा से लेकर दिल्ली तक मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में सबकुछ जानिए

आज मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की 222वीं जयंती है. ग़ालिब का जन्म आगरा में हुआ, लेकिन उनका ज्यादातर वक्त दिल्ली में बीता. आइए आज उनकी जयंती पर उनके बारे में जानते हैं.

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आगरा से लेकर दिल्ली तक मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में सबकुछ जानिए
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Published : Dec 27, 2019, 3:08 PM IST

नई दिल्ली: तारीख थी 27 दिसंबर. साल था 1797. जगह थी आगरा का काला महल. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग की बेगम इज़्ज़त-उत-निसा ने अपने घर में एक बच्चे को जन्म दिया. नाम रखा गया- मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ 'ग़ालिब'.

ग़ालिब का बचपन इतना आसान नहीं था. कम उम्र में ही पिता का देहांत हो गया. 13 साल की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्श खान की बेटी उमराव बेगम से हुआ.अब तक ग़ालिब शे'र-ओ-शायरी करने लगे थे.

आगरा के बाद ग़ालिब दिल्ली कूच कर गए. आगरा के पास बेइंतहां खूबसूरत ताजमहल था. मुग़लों की बनाईं मेहराबों वाली ऐतिहासिक इमारतें थीं. शहर के बीचों-बीच से निकलती हुई खूबसूरत यमुना थी. इतना सबकुछ था, लेकिन ग़ालिब नहीं थे. ग़ालिब को दिल्ली ने अपने में बसा लिया था.

ग़ालिब दिल्ली आए तो मुग़लों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में कवि बन गए. लोग ग़ालिब पर तंज कसते थे. 'दरबारी कवि' कहते थे. तब ग़ालिब ने ख़ुद ही लिखा-

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है

ग़ालिब ने अपने शे'र और शायरी के जरिए प्रेम और दर्शन के नए पैमाने तय कर दिए. लेकिन वक़्त के थपेड़े उनकी ज़िंदगी को आसान नहीं बनने दे रहे थे. ग़ालिब की सात संताने हुईं लेकिन एक भी जीवित नहीं रही. ये दर्द ग़ालिब के कितने ही शे'रों में दिखता है.

ग़ालिब ने अपनी वेदना को अपने शे'रों में बदल दिया. अथाह दु:ख में डूबे हुए ग़ालिब के ये शे'र सालों से करोड़ों लोगों की ज़ुबान पर हैं. हिज्र में या विसाल में. प्रेम के अधूरे रह जाने पर या मुक़म्मल हो जाने पर. खीझ आने पर या ख़ुद को तसल्ली देने पर.

कुछ शे'र देखिए-

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान मगर फिर भी कम निकले

लिखना मानसिक क्रिया तो है ही, लेकिन साथ ही यांत्रिक भी. अथाह दुख और पीड़ाओं का समंदर जब इंसान के दिमाग से नैसर्गिक तौर पर कुछ लिखवाता है तो वो अद्भुत होता है. ग़ालिब ऐसे ही थे. उनका लिखा हुआ आम जन को सीधे-सीधे छूता है. जैसे-

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

ग़ालिब को लेकर कितने ही ऐसे किस्से हैं जिन्हें लोग आजतक बेहिसाब तसल्ली और मोहब्बत से सुनते हैं. एक किस्सा सुनिए-

एक बार की बात है. ग़ालिब ने उधार लेकर शराब पी थी, लेकिन कीमत नहीं चुका सके. दुकानदार ने उन पर मुकदमा कर दिया. अदालत में जब सवाल-जवाब हुए तो उन्होंने एक शे'र पढ़ दिया-

कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन

फारसी के दौर में उन्होंने उर्दू और हिंदी का इस्तेमाल किया. इससे ग़जल और शायरी आम लोगों की जुबान पर चढ़ने लगी. इस तरह ग़ालिब हर घर के शायर हो गए. आम लोगों के शायर हो गए.

ग़ालिब ने जिंदगी को कैसे देखा कोई भी साफ-साफ नहीं कह सकता. कभी लगता है मानो उनके लिए जिंदगी एक स्लेट थी जिस पर वो उम्र भर खुशी और सुकूं लिखना चाहते थे. इससे इतर कभी-कभी लगता है मानो ग़ालिब के लिए जिंदगी एक कोरा कागज थी जिस पर वो ताउम्र अपने दर्द और दुख को लिखते रहना चाहते थे.

और एक दिन दिल्ली के आसमान में धुंध उड़ने लगी. हवाएं उस धुंध को बल्लीमारान की तरफ लेकर जा रही थीं. हवाएं अब गली कासिम जान में पहुंच गई थीं. किसी षड्यंत्र की गंध पूरे बल्लीमारान में महसूस की जा सकती थी.

तारीख थी 15 फरवरी. साल था 1869. अब दिल्ली में ग़ालिब नहीं थे. अब आगरा में भी ग़ालिब नहीं थे. अब दुनिया में कहीं भी ग़ालिब नहीं थे.

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

नई दिल्ली: तारीख थी 27 दिसंबर. साल था 1797. जगह थी आगरा का काला महल. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग की बेगम इज़्ज़त-उत-निसा ने अपने घर में एक बच्चे को जन्म दिया. नाम रखा गया- मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ 'ग़ालिब'.

ग़ालिब का बचपन इतना आसान नहीं था. कम उम्र में ही पिता का देहांत हो गया. 13 साल की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्श खान की बेटी उमराव बेगम से हुआ.अब तक ग़ालिब शे'र-ओ-शायरी करने लगे थे.

आगरा के बाद ग़ालिब दिल्ली कूच कर गए. आगरा के पास बेइंतहां खूबसूरत ताजमहल था. मुग़लों की बनाईं मेहराबों वाली ऐतिहासिक इमारतें थीं. शहर के बीचों-बीच से निकलती हुई खूबसूरत यमुना थी. इतना सबकुछ था, लेकिन ग़ालिब नहीं थे. ग़ालिब को दिल्ली ने अपने में बसा लिया था.

ग़ालिब दिल्ली आए तो मुग़लों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में कवि बन गए. लोग ग़ालिब पर तंज कसते थे. 'दरबारी कवि' कहते थे. तब ग़ालिब ने ख़ुद ही लिखा-

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है

ग़ालिब ने अपने शे'र और शायरी के जरिए प्रेम और दर्शन के नए पैमाने तय कर दिए. लेकिन वक़्त के थपेड़े उनकी ज़िंदगी को आसान नहीं बनने दे रहे थे. ग़ालिब की सात संताने हुईं लेकिन एक भी जीवित नहीं रही. ये दर्द ग़ालिब के कितने ही शे'रों में दिखता है.

ग़ालिब ने अपनी वेदना को अपने शे'रों में बदल दिया. अथाह दु:ख में डूबे हुए ग़ालिब के ये शे'र सालों से करोड़ों लोगों की ज़ुबान पर हैं. हिज्र में या विसाल में. प्रेम के अधूरे रह जाने पर या मुक़म्मल हो जाने पर. खीझ आने पर या ख़ुद को तसल्ली देने पर.

कुछ शे'र देखिए-

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान मगर फिर भी कम निकले

लिखना मानसिक क्रिया तो है ही, लेकिन साथ ही यांत्रिक भी. अथाह दुख और पीड़ाओं का समंदर जब इंसान के दिमाग से नैसर्गिक तौर पर कुछ लिखवाता है तो वो अद्भुत होता है. ग़ालिब ऐसे ही थे. उनका लिखा हुआ आम जन को सीधे-सीधे छूता है. जैसे-

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

ग़ालिब को लेकर कितने ही ऐसे किस्से हैं जिन्हें लोग आजतक बेहिसाब तसल्ली और मोहब्बत से सुनते हैं. एक किस्सा सुनिए-

एक बार की बात है. ग़ालिब ने उधार लेकर शराब पी थी, लेकिन कीमत नहीं चुका सके. दुकानदार ने उन पर मुकदमा कर दिया. अदालत में जब सवाल-जवाब हुए तो उन्होंने एक शे'र पढ़ दिया-

कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन

फारसी के दौर में उन्होंने उर्दू और हिंदी का इस्तेमाल किया. इससे ग़जल और शायरी आम लोगों की जुबान पर चढ़ने लगी. इस तरह ग़ालिब हर घर के शायर हो गए. आम लोगों के शायर हो गए.

ग़ालिब ने जिंदगी को कैसे देखा कोई भी साफ-साफ नहीं कह सकता. कभी लगता है मानो उनके लिए जिंदगी एक स्लेट थी जिस पर वो उम्र भर खुशी और सुकूं लिखना चाहते थे. इससे इतर कभी-कभी लगता है मानो ग़ालिब के लिए जिंदगी एक कोरा कागज थी जिस पर वो ताउम्र अपने दर्द और दुख को लिखते रहना चाहते थे.

और एक दिन दिल्ली के आसमान में धुंध उड़ने लगी. हवाएं उस धुंध को बल्लीमारान की तरफ लेकर जा रही थीं. हवाएं अब गली कासिम जान में पहुंच गई थीं. किसी षड्यंत्र की गंध पूरे बल्लीमारान में महसूस की जा सकती थी.

तारीख थी 15 फरवरी. साल था 1869. अब दिल्ली में ग़ालिब नहीं थे. अब आगरा में भी ग़ालिब नहीं थे. अब दुनिया में कहीं भी ग़ालिब नहीं थे.

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

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