लखनऊ: विधानसभा चुनाव 2022 में सत्ता की सियासी कुर्सी पर काबिज न हो पाने के बावजूद समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव पुराने घटनाक्रमों से सबक नहीं ले रहे हैं. अखिलेश के करीबियों का कहना है कि वह नासमझी कर रहे हैं और उनका ईगो उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है. इसके अलावा उनके इसी ईगो और नासमझी भरे राजनीतिक कदमों से गठबंधन दलों के साथ ही भी दूर हो रहे हैं. वहीं, राष्ट्रपति चुनाव से पहले ही अखिलेश को तगड़ा झटका लग रहा है. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और सपा से विधायक शिवपाल सिंह यादव एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का साथ देते हुए नजर आ रहे हैं. सीएम आवास में हुए डिनर में भी यह लोग शामिल हुए. लोकसभा चुनाव 2024 से पहले भाजपा इन दलों को अपने साथ लेकर आगे की चुनावी लड़ाई को और अपने पक्ष में करने की चाल चल रही है. जिससे सबसे ज्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी को होने की संभावना है.
धीरे-धीरे बिखर रहा अखिलेश यादव का गठबंधन
गौरलतब है कि विधानसभा चुनावों के पहले अखिलेश यादव ने जातीय आधार वाले छोटे-छोटे दलों को जोड़कर मजबूत गठबंधन बनाया था. चुनाव में जीत नहीं हुई और गठबंधन वाले दलों को एमएलसी चुनाव में प्रतिनिधित्व न होने के चलते नाराजगी बढ़ रही है. चुनाव के दौरान बना गठबंधन अब वो धीरे-धीरे बिखरता नजर आ रहा है. सबसे पहले अखिलेश यादव के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव नाराज हुए. इसके बाद महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने सपा से नाता तोड़ लिया है. अब सुभासपा के प्रमुख पूर्व मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने भी सपा से अलग होने के संकेत दे दिए हैं. राजभर ने अखिलेश को जमीन पर उतरने की सलाह दी, जो उन्हें नागवार गुजरी. अब राष्ट्रपति चुनाव के बीच में ही बाद ओमप्रकाश राजभर ने द्रोपदी मुर्मू के डिनर में सीएम आवास पर शामिल होकर सबको चौंका दिया है.
एमएलसी चुनाव से शुरू हुई बगावत
विधानसभा चुनावों परिणाम आते ही सपा-सुभासपा के बीच मनमुटाव साफ साफ दिखने लगा था और एमएलसी चुनाव के दौरान यह खुल कर सामने आ गया था. ओमप्रकाश राजभर चाहते थे कि एमएलसी की चार सीटों में कम से कम एक सीट गठबंधन साथी के रूप में उन्हें मिले, जिससे उनका बेटा अरविंद्र एमएलसी बन सके. लेकिन अखिलेश यादव ने उनकी बात नहीं मानी और उनसे संतोषजनक बात तक नहीं की. अखिलेश यादव के इस मनमाने फैसले से ओमप्रकाश राजभर बेहद आहत हुए थे. सार्वजनिक रूप से राजभर ने कहा था कि 34 सीट पर चुनाव लड़कर 8 जीतने वाले को रालोद को राज्यसभा का इनाम दिया गया है. जबकि 16 सीटों में छह सीट जीतने वाले की अनदेखी की जा रही है. कुछ समय बाद सपा के गढ़ आजमगढ़ व रामपुर लोकसभा उपचुनाव में प्रचार से दूर रहने और बाद में चुनाव हारने पर ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव पर बड़ी टिप्पणी की. उन्होंने कहा था कि अखिलेश यादव यदि आजमगढ़ और रामपुर में में चुनाव प्रचार के लिए गए होते तो सपा उम्मीदवार चुनाव जीत जाते. हम लोग धूप में प्रचार कर रहे थे और अखिलेश यादव एसी में बैठे रहकर राजनीति करते रहे. यह भी कहा था कि उन्हे एसी छोड़कर जमीन पर उतरना होगा. ओमप्रकाश ने यह भी कहा कि बहुत बार विरासत में प्रॉपर्टी पाने वाले उसे बेचकर खा जाते हैं.
अखिलेश यादव ओमप्रकाश को मनाने के मूड में नहीं
यहीं नहीं कुछ दिनों बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजभर की यह सार्वजनिक टिप्पणी अखिलेश यादव को काफी नाराज कर गई. राजभर की इन बातों से नाराज अखिलेश यादव ने कहा कि सपा को किसी की सलाह की जरूरत नहीं है. इसके बाद अखिलेश यादव की रणनीति तब और फेल हो गई जब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के लखनऊ आने पर सपा कार्यालय में विधायकों की बैठक बुलाई. रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को सपा कार्यालय में बुलाया गया लेकिन ओमप्रकाश और शिवपाल सिंह यादव को नहीं बुलाया गया. यहीं नहीं राजभर की पार्टी के सभी 6 विधायक लखनऊ में बुलावे का इंतजार कर रहे थे. समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान हुए ताजा घटनाक्रम के बाद से सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर बेहद नाराज हैं. वहीं दूसरी तरफ अपने ईगो को आगे रखकर राजनीति कर रहे अखिलेश यादव भी ओमप्रकाश को मनाने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं.
क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक देवराज सिंह कहते हैं कि अखिलेश यादव को गठबंधन धर्म निभाना ठीक से नहीं आता है. यही कारण है कि वह जब-जब जिससे गठबंधन करते हैं उसके साथ उनके रिश्ते खराब हो जाते हैं. ओमप्रकाश राजभर के साथ भी उनके रिश्ते खराब हो रहे हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ भी उनके खराब हो चुके हैं. अखिलेश यादव को स्थाई गठबंधन वाले सहयोगी दलों को साथ में रखकर राजनीति करनी होगी. अगर वह लंबी राजनीति करना चाहते हैं तो उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव से सीखना चाहिए कि वह किस प्रकार से गठबंधन धर्म का पालन करते रहे हैं. सिर्फ अपने व्यवहार और ईगो को आगे रखकर नासमझी भरे फैसले करने से कुछ नहीं होगा.
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