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जानें सत्ता पाने और गंवाने में यूपी की आरक्षित सीटों की भूमिका...

यूपी के पिछले कई विधानसभा चुनाव परिणामों को देखे तो पता चलेगा कि सूबे में सत्ता पाने और गंवाने के लिहाज से आरक्षित सीटें किसी भी सियासी पार्टी के लिए काफी अहम होती हैं. यही कारण है कि आरक्षित सीटों के लिए पार्टियों की रणनीति सामान्य विधानसभा सीटों से पृथक होती है.

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Published : Feb 4, 2022, 8:07 AM IST

हैदराबाद: यूपी विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर जिस पार्टी को सफलता मिली, सरकार उसी की बनती है. वहीं, बीते कई विधानसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो ये आरक्षित सीटें किसी भी पार्टी के लिए सत्ता पाने या गंवाने के लिहाज से काफी अहमियत रखती हैं. इस चुनाव में भी इन आरक्षित सीटों पर सभी पार्टियां अपने समीकरण तय करने में जुटी हैं. हालांकि अबकी हालात कुछ भिन्न हैं, फिर भी सवाल जस के तस बरकरार हैं कि क्या आरक्षित सीटों के परिणामों का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा या अबकी कुछ नया देखने को मिलेगा ? असल में 403 विधानसभा सीटों वाले यूपी में अबकी कुल 86 आरक्षित सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों की हैं तो वहीं, दो अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं. ये दोनों सीटें प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी जनपद सोनभद्र में दुद्धी और ओबरा हैं. वहीं, इन सीटों के लिए अब तक करीब सभी पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों के नामों का एलान भी कर दिया है.

इन सीटों पर दलों का दांव

सूबे में दलितों और पिछड़ों की सियासत करने वाली बसपा अबकी आरक्षित सीटों पर खासा ध्यान दे रही है. इधर, बसपा सुप्रीमो मायावती पूरी कोशिश में हैं कि अनुसूचित जाति के वोटों के साथ ही वो अगड़ी जाति के खासकर ब्राह्मण समुदाय के मतदाताओं को भी अपनी ओर आकर्षित कर सके और यही कारण है कि उन्होंने अपनी पुरानी सियासी स्ट्रैटजी में काफी फेरबदल किए हैं. हालांकि समाजवादी पार्टी भी इन सीटों पर अपने 2012 का इतिहास दोहराने की पूरी कोशिश कर रही है. इन सीटों का एक रोचक तथ्य यह भी है कि हर विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर सरकार विरोधी लहर रही है. ऐसे में समाजवादी पार्टी अपने हाथ से यह मौका गंवाना नहीं चाहती है तो भाजपा भी इन सीटों पर जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर प्रत्याशियों के चयन से लेकर दूसरी जातियों के मतदाताओं को लामबंद करने तक पूरी तैयारी में जुटी है. खैर, हिंदू-मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण में कहीं अनुसूचित जाति के वोट छिटक न जाएं इस पर पार्टी की नजर है.

जानें आरक्षित सीटों का समीकरण
जानें आरक्षित सीटों का समीकरण

इसे भी पढ़ें - ओवैसी के काफिले पर हमला, लोकसभा में भी गूंजा मुद्दा

जानें आरक्षित सीटों का समीकरण

ऐसे तो हर राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सीटों की संख्या को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1950 की धारा 7 के तहत तय किया गया है. निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश, 1976 के मुताबिक साल 2004 में अनुसूचित जातियों के लिए यूपी में 89 विधानसभा सीटें आरक्षित की गई थीं. लेकिन परिसीमन आदेश, 2008 से यह संख्या घटकर 85 हो गई. वहीं, साल 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद संसद में अध्यादेश के माध्यम से परिसीमन आदेश में संशोधन हुए और फिर सूबे में अनुसूचित जातियों के लिए 84 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 2 सीटें तय की गई.

अब 2022 के चुनाव में कुछ ही दिन शेष बचे हैं. ऐसे में आरक्षित सीटों पर मुकाबले के लिए सभी पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति बना रही हैं. खास तौर पर आरक्षित सीटों पर पार्टियों की रणनीति सामान्य सीटों से पृथक होती है, क्योंकि इन सीटों पर प्रत्याशी भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार सभी जातियों के वोट से तय होती है. ऐसे में आरक्षित सीटों पर गैर अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है. वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का भी खासतौर पर ध्यान रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है.

समझें आंकड़ों का गणित

पिछले तीन विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों के परिणामों ने सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई है. साल 2007 में सूबे की 89 आरक्षित विधानसभा सीटों में से 61 पर बसपा ने जीत दर्ज की थी और प्रदेश की कुल 403 सीटों में से बसपा ने तब 206 सीटों पर कब्जा किया था. वहीं, साल 2012 के चुनाव में भी यही देखने को मिला था. लेकिन इस बार सपा जीत के मुहाने पर खड़ी थी. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कुल 85 आरक्षित सीटों में से 58 पर जीत दर्ज की थी. साथ ही कुल 224 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत पाते हुए सपा ने सूबे की सत्ता पर कब्जा कर लिया था.

लेकिन 2017 विधानसभा चुनावों को देखें तो इन सीटों ने तब भी इतिहास दोहराया और इस बार बाजी भाजपा के पक्ष में गई. 2017 में भाजपा ने राज्य की कुल 86 आरक्षित सीटों में से 70 सीटों पर जीत दर्ज की थी और सूबे में अकेले 309 सीटों पर विजयी होने के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई थी.

इन सीटों पर नहीं चला महिला प्रत्याशियों का जादू

आरक्षित सीटों के इतिहास में एक अहम बात यह भी है कि इन सीटों पर महिला प्रत्याशियों के पक्ष में नतीजे बेहद कम रहे हैं. पिछले तीन चुनावों पर नजर डालें तो आरक्षित सीटों पर साल 2007 में 8 महिलाओं ने सफलता हासिल की. वहीं, 2012 में 12 और 2017 के चुनाव में 11 महिलाओं ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह आरक्षित सीटों पर जीत हासिल करने वाले करीब 90 फीसद प्रत्याशी पुरुष रहे. हालांकि इसका बहुत बड़ा कारण पितृसत्ता और लैंगिग भेदभाव भी रहा है.

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हैदराबाद: यूपी विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर जिस पार्टी को सफलता मिली, सरकार उसी की बनती है. वहीं, बीते कई विधानसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो ये आरक्षित सीटें किसी भी पार्टी के लिए सत्ता पाने या गंवाने के लिहाज से काफी अहमियत रखती हैं. इस चुनाव में भी इन आरक्षित सीटों पर सभी पार्टियां अपने समीकरण तय करने में जुटी हैं. हालांकि अबकी हालात कुछ भिन्न हैं, फिर भी सवाल जस के तस बरकरार हैं कि क्या आरक्षित सीटों के परिणामों का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा या अबकी कुछ नया देखने को मिलेगा ? असल में 403 विधानसभा सीटों वाले यूपी में अबकी कुल 86 आरक्षित सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों की हैं तो वहीं, दो अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं. ये दोनों सीटें प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी जनपद सोनभद्र में दुद्धी और ओबरा हैं. वहीं, इन सीटों के लिए अब तक करीब सभी पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों के नामों का एलान भी कर दिया है.

इन सीटों पर दलों का दांव

सूबे में दलितों और पिछड़ों की सियासत करने वाली बसपा अबकी आरक्षित सीटों पर खासा ध्यान दे रही है. इधर, बसपा सुप्रीमो मायावती पूरी कोशिश में हैं कि अनुसूचित जाति के वोटों के साथ ही वो अगड़ी जाति के खासकर ब्राह्मण समुदाय के मतदाताओं को भी अपनी ओर आकर्षित कर सके और यही कारण है कि उन्होंने अपनी पुरानी सियासी स्ट्रैटजी में काफी फेरबदल किए हैं. हालांकि समाजवादी पार्टी भी इन सीटों पर अपने 2012 का इतिहास दोहराने की पूरी कोशिश कर रही है. इन सीटों का एक रोचक तथ्य यह भी है कि हर विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर सरकार विरोधी लहर रही है. ऐसे में समाजवादी पार्टी अपने हाथ से यह मौका गंवाना नहीं चाहती है तो भाजपा भी इन सीटों पर जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर प्रत्याशियों के चयन से लेकर दूसरी जातियों के मतदाताओं को लामबंद करने तक पूरी तैयारी में जुटी है. खैर, हिंदू-मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण में कहीं अनुसूचित जाति के वोट छिटक न जाएं इस पर पार्टी की नजर है.

जानें आरक्षित सीटों का समीकरण
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जानें आरक्षित सीटों का समीकरण

ऐसे तो हर राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सीटों की संख्या को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1950 की धारा 7 के तहत तय किया गया है. निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश, 1976 के मुताबिक साल 2004 में अनुसूचित जातियों के लिए यूपी में 89 विधानसभा सीटें आरक्षित की गई थीं. लेकिन परिसीमन आदेश, 2008 से यह संख्या घटकर 85 हो गई. वहीं, साल 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद संसद में अध्यादेश के माध्यम से परिसीमन आदेश में संशोधन हुए और फिर सूबे में अनुसूचित जातियों के लिए 84 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 2 सीटें तय की गई.

अब 2022 के चुनाव में कुछ ही दिन शेष बचे हैं. ऐसे में आरक्षित सीटों पर मुकाबले के लिए सभी पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति बना रही हैं. खास तौर पर आरक्षित सीटों पर पार्टियों की रणनीति सामान्य सीटों से पृथक होती है, क्योंकि इन सीटों पर प्रत्याशी भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार सभी जातियों के वोट से तय होती है. ऐसे में आरक्षित सीटों पर गैर अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है. वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का भी खासतौर पर ध्यान रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है.

समझें आंकड़ों का गणित

पिछले तीन विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों के परिणामों ने सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई है. साल 2007 में सूबे की 89 आरक्षित विधानसभा सीटों में से 61 पर बसपा ने जीत दर्ज की थी और प्रदेश की कुल 403 सीटों में से बसपा ने तब 206 सीटों पर कब्जा किया था. वहीं, साल 2012 के चुनाव में भी यही देखने को मिला था. लेकिन इस बार सपा जीत के मुहाने पर खड़ी थी. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कुल 85 आरक्षित सीटों में से 58 पर जीत दर्ज की थी. साथ ही कुल 224 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत पाते हुए सपा ने सूबे की सत्ता पर कब्जा कर लिया था.

लेकिन 2017 विधानसभा चुनावों को देखें तो इन सीटों ने तब भी इतिहास दोहराया और इस बार बाजी भाजपा के पक्ष में गई. 2017 में भाजपा ने राज्य की कुल 86 आरक्षित सीटों में से 70 सीटों पर जीत दर्ज की थी और सूबे में अकेले 309 सीटों पर विजयी होने के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई थी.

इन सीटों पर नहीं चला महिला प्रत्याशियों का जादू

आरक्षित सीटों के इतिहास में एक अहम बात यह भी है कि इन सीटों पर महिला प्रत्याशियों के पक्ष में नतीजे बेहद कम रहे हैं. पिछले तीन चुनावों पर नजर डालें तो आरक्षित सीटों पर साल 2007 में 8 महिलाओं ने सफलता हासिल की. वहीं, 2012 में 12 और 2017 के चुनाव में 11 महिलाओं ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह आरक्षित सीटों पर जीत हासिल करने वाले करीब 90 फीसद प्रत्याशी पुरुष रहे. हालांकि इसका बहुत बड़ा कारण पितृसत्ता और लैंगिग भेदभाव भी रहा है.

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