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यूपी की सियासी जमीन से रालोद के सूखे हैंडपंप को इस बार भी पानी की आस....पढ़िए पूरी खबर

यूपी की सियासी जमीन से इस बार भी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के सूखे हैंडपंप को पानी की आस है. इस बार रालोद की उम्मीद बने हैं सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव. रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को उम्मीद है ये यराना कोई न कोई चमत्कार जरूर करेगा. चलिए जानते हैं इसके बारे में.

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यूपी की सियासी जमीन से रालोद के सूखे हैंडपंप को इस बार भी पानी की आस.
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Published : Jan 14, 2022, 6:14 PM IST

Updated : Jan 14, 2022, 6:36 PM IST

हैदराबादः यूपी की सियासी जमीन से इस बार भी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के सूखे हैंडपंप को पानी की आस है. इस बार रालोद की उम्मीद बने हैं सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव. रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को उम्मीद है कि ये सियासी यराना कोई न कोई चमत्कार जरूर दिखाएगा. इसी के चलते इस सप्ताह ही दोनों ही दलों ने संयुक्त रूप से 29 प्रत्याशियों की सूची भी जारी की है. इनमें 10 सपा के और 19 रालोद के उम्मीदवार है. अभी कई सीटों पर और प्रत्याशी घोषित किए जाने हैं. चलिए जानते हैं जाट लैंड यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कभी दिग्गज पार्टी रही रालोद का सूरज आखिर क्यों और किस वजह से ढला.

रालोद का इतिहास काफी पुराना है. किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी. 1974 में उन्‍होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया था. फिर कई विलय और पार्टी के नाम बदलाव के बाद रालोद के सफर की शुरुआत 1998 में हुई, जब चौधरी चरण सिंह की विचारधारा पर चलने वाले इस दल का नाम उनके पुत्र चौ. अजित सिंह ने बदलकर राष्ट्रीय लोकदल कर दिया.

इन जिलों में कभी था जनाधार

मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, गौतमबुद्धनगर, बागपत, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, आगरा, अलीगढ़, मथुरा, फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, बरेली, बदायूं, पीलीभीत और शाहजहांपुर जैसे जिलों में कभी रालोद का डंका बजता था. अब यह प्रभाव काफी घट गया है.

चौधरी चरण सिंह के संग मुलायम सिंह यादव ने की थी शुरुआत

मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत ही चौधरी चरण सिंह के साथ की थी. 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जीतने के बाद 1969 में वह चौधरी चरण सिंह से जुड़ गए थे. चौधरी चरण सिंह ने जब लोकदल का गठन किया तो मुलायम सिंह यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई. 1987-88 में जनता दल के गठन के बाद मुलायम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली. इसमें चौधरी अजित सिंह भी साथ थे.

किसानों के मुद्दे और जाट आरक्षण की मांग उठाई

किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह की पार्टी में हमेशा किसानों के मुद्दे ही प्राथमिकता पर रहे. गन्ना किसानों के भुगतान मामले में चीनी मिले इस पार्टी के निशाने पर रही हैं. जाटों को लेकर भी पार्टी आबादी व आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करती रही है.

बीजेपी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया

साल 2014 और 2017 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की धमक का सबसे ज़्यादा नुकसान राष्ट्रीय लोकदल को ही उठाना पड़ा. पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के 16 जिलों में कुल 136 विधानसभा सीटें हैं, 2017 चुनाव में बीजेपी इनमें से 27 हार गई थी. बाकी सीटें बीजेपी की झोली में आ गईं थीं. इसमें सबसे ज्यादा नुकसान रालोद को उठाना पड़ा था. चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में पार्टी सिर्फ एक सीट बचा पाई और वह भी बागपत जिले की छपरौली सीट जहां चौधरी चरण सिंह का गांव था.

ये भी पढ़ेंः Up Election 2022: स्वामी प्रसाद मौर्य सहित भाजपा के ये नेता सपा में हुए शामिल

रालोद का राजनीतिक सफर ये रहा

  • 1998 को रालोद के गठन के बाद साल 2002 की बसपा सरकार में आरएलडी को दो कैबिनेट मंत्री पद हासिल हुए थे.
  • साल 2004 के चुनाव में आरएलडी ने तीन लोकसभा सीटें हासिल कीं. इसके 10 साल बाद 2014 में आरएलडी ने यूपीए के झंडे तले सारी सीटें गंवा दीं.
  • 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने सिर्फ 1 सीट जीती.

इस बार की उम्मीद

रालोद को इस बार उम्मीद है कि सपा का गठबंधन उसको फल सकता है. एम-वाई फैक्टर के साथ ही जाटों और अन्य जातियों का समर्थन उसे मिल सकता है, इससे इस बार पार्टी का ग्राफ फिर से चढ़ सकता है. रालोद का सूखा हैंडपंप फिर से चल सकता है. अब ये तो आने वाले वक्त बताएगा कि पार्टी को इस गठबंधन से कितना फायदा होगा.

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हैदराबादः यूपी की सियासी जमीन से इस बार भी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के सूखे हैंडपंप को पानी की आस है. इस बार रालोद की उम्मीद बने हैं सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव. रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को उम्मीद है कि ये सियासी यराना कोई न कोई चमत्कार जरूर दिखाएगा. इसी के चलते इस सप्ताह ही दोनों ही दलों ने संयुक्त रूप से 29 प्रत्याशियों की सूची भी जारी की है. इनमें 10 सपा के और 19 रालोद के उम्मीदवार है. अभी कई सीटों पर और प्रत्याशी घोषित किए जाने हैं. चलिए जानते हैं जाट लैंड यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कभी दिग्गज पार्टी रही रालोद का सूरज आखिर क्यों और किस वजह से ढला.

रालोद का इतिहास काफी पुराना है. किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी. 1974 में उन्‍होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया था. फिर कई विलय और पार्टी के नाम बदलाव के बाद रालोद के सफर की शुरुआत 1998 में हुई, जब चौधरी चरण सिंह की विचारधारा पर चलने वाले इस दल का नाम उनके पुत्र चौ. अजित सिंह ने बदलकर राष्ट्रीय लोकदल कर दिया.

इन जिलों में कभी था जनाधार

मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, गौतमबुद्धनगर, बागपत, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, आगरा, अलीगढ़, मथुरा, फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, बरेली, बदायूं, पीलीभीत और शाहजहांपुर जैसे जिलों में कभी रालोद का डंका बजता था. अब यह प्रभाव काफी घट गया है.

चौधरी चरण सिंह के संग मुलायम सिंह यादव ने की थी शुरुआत

मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत ही चौधरी चरण सिंह के साथ की थी. 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जीतने के बाद 1969 में वह चौधरी चरण सिंह से जुड़ गए थे. चौधरी चरण सिंह ने जब लोकदल का गठन किया तो मुलायम सिंह यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई. 1987-88 में जनता दल के गठन के बाद मुलायम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली. इसमें चौधरी अजित सिंह भी साथ थे.

किसानों के मुद्दे और जाट आरक्षण की मांग उठाई

किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह की पार्टी में हमेशा किसानों के मुद्दे ही प्राथमिकता पर रहे. गन्ना किसानों के भुगतान मामले में चीनी मिले इस पार्टी के निशाने पर रही हैं. जाटों को लेकर भी पार्टी आबादी व आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करती रही है.

बीजेपी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया

साल 2014 और 2017 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की धमक का सबसे ज़्यादा नुकसान राष्ट्रीय लोकदल को ही उठाना पड़ा. पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के 16 जिलों में कुल 136 विधानसभा सीटें हैं, 2017 चुनाव में बीजेपी इनमें से 27 हार गई थी. बाकी सीटें बीजेपी की झोली में आ गईं थीं. इसमें सबसे ज्यादा नुकसान रालोद को उठाना पड़ा था. चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में पार्टी सिर्फ एक सीट बचा पाई और वह भी बागपत जिले की छपरौली सीट जहां चौधरी चरण सिंह का गांव था.

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रालोद का राजनीतिक सफर ये रहा

  • 1998 को रालोद के गठन के बाद साल 2002 की बसपा सरकार में आरएलडी को दो कैबिनेट मंत्री पद हासिल हुए थे.
  • साल 2004 के चुनाव में आरएलडी ने तीन लोकसभा सीटें हासिल कीं. इसके 10 साल बाद 2014 में आरएलडी ने यूपीए के झंडे तले सारी सीटें गंवा दीं.
  • 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने सिर्फ 1 सीट जीती.

इस बार की उम्मीद

रालोद को इस बार उम्मीद है कि सपा का गठबंधन उसको फल सकता है. एम-वाई फैक्टर के साथ ही जाटों और अन्य जातियों का समर्थन उसे मिल सकता है, इससे इस बार पार्टी का ग्राफ फिर से चढ़ सकता है. रालोद का सूखा हैंडपंप फिर से चल सकता है. अब ये तो आने वाले वक्त बताएगा कि पार्टी को इस गठबंधन से कितना फायदा होगा.

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Last Updated : Jan 14, 2022, 6:36 PM IST
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