लखनऊ: कारगिल युद्ध के दौरान अनेकों भारतीय जांबाजों ने अपनी जान की बाजी लगा दी, जिससे भारत दोबारा अपने उस हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर पाया, जहां पाकिस्तानी घुसपैठियों ने धोखे से कब्जा जमा लिया था. कारगिल के युद्ध मे उत्तर प्रदेश के अमर सपूत कैप्टन मनोज पांडेय ने अपनी जान की परवाह न करते हुए देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए. वह कारगिल युद्ध के ऐसे हीरो थे, जिनके बलिदान से इस युद्ध की इबारत लिखी गई थी. अमर शहीद कैप्टन मनोज पांडेय की अलग ही कहानी है. अपनी वीरता से उन्होंने दुश्मन सेना के छक्के छुड़ा दिए. परमवीर चक्र विजेता (मरणोपरांत) मनोज पांडेय को आज देश याद कर रहा है. परमवीर चक्र विजेता मनोज पांडेय के पिता गोपीचंद्र पांडेय ने ईटीवी भारत से जांबाज मनोज से जुड़ी यादें साझा कीं.
सैनिक स्कूल से सेना में भर्ती होने का देखा था ख्वाब : मनोज के पिता गोपीचंद्र पांडेय बताते हैं कि, मनोज की शिक्षा लखनऊ में हुई थी. उनका सेना में जाने का मन उस वक्त बना जब यूपी सैनिक स्कूल में दाखिला हुआ. वहां पर उन्होंने अपना शिक्षण कार्य शुरू किया तो मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्हें प्रेरणा मिली. फिर, उन्होंने सेना में जाने का अपना पूरा मन बनाया. उस समय बनारस में 67 बच्चों का इंटरव्यू हुआ था. यह विधि का विधान है कि मनोज अकेले उन 67 बच्चों में पास हुए. उसी समय सेना के अधिकारियों ने उनसे पूछा कि सेना में क्यों भर्ती होना चाह रहे हो? मनोज ने कहा कि उनका उद्देश्य परमवीर चक्र पाना है. आज उसी सैनिक स्कूल को कैप्टन मनोज पाण्डेय के नाम से जाना जाता है.
मनोज ने अपने दम पर तबाह कर दिए थे चार बंकर : पांच मई 1999 से कारगिल युद्ध में मनोज शामिल हुए. दो माह तक लगातार लड़ने के बाद एक हफ्ते पहले उनको टारगेट दिया गया था कि खालूबार चोटी जो सात किलोमीटर लंबी है उस पर 47 पाकिस्तानी कब्जा जमाए बैठे हुए हैं, जिनसे हमारी सेना को बहुत नुकसान पहुंचा है. जो भी सैनिक दिन में निकलता था उसको वह मार गिराते थे. यह सेना के सामने बड़ा अहम सवाल था. ऊपर जाकर 18000 फुट की ऊंचाई पर उन पाकिस्तानियों से टक्कर लेना आसान नहीं था. उस मुश्किल कार्य को मनोज ने करने का बीड़ा उठाया. उस समय मनोज पांडेय से अधिकारियों ने कहा कि मनोज तुम दो महीने से लगातार लड़ रहे हो. कुछ वक्त के लिए तुम आराम कर लो. ये बात सुनकर मनोज अपने अधिकारी से भिड़ गए.मनोज ने अपने दम पर तबाह कर दिए थे चार बंकर
पांच मई 1999 से कारगिल युद्ध में मनोज शामिल हुए. दो माह तक लगातार लड़ने के बाद एक हफ्ते पहले उनको टारगेट दिया गया था कि खालूबार चोटी जो सात किलोमीटर लंबी है उस पर 47 पाकिस्तानी कब्जा जमाए बैठे हुए हैं, जिनसे हमारी सेना को बहुत नुकसान पहुंचा है. जो भी सैनिक दिन में निकलता था उसको वह मार गिराते थे. यह सेना के सामने बड़ा अहम सवाल था.ऊपर जाकर 18000 फुट की ऊंचाई पर उन पाकिस्तानियों से टक्कर लेना आसान नहीं था. उस मुश्किल कार्य को मनोज ने करने का बीड़ा उठाया. उस समय मनोज पांडेय से अधिकारियों ने कहा कि मनोज तुम दो महीने से लगातार लड़ रहे हो. कुछ वक्त के लिए तुम आराम कर लो. ये बात सुनकर मनोज अपने अधिकारी से भिड़ गए. उन्होंने कहा कि मुझमें क्या कमी है? मैं ही इस जंग को फतह करूंगा. उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया.
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दो जुलाई को रात भर उन्होंने चढ़ाई की और सुबह पहला बंकर तबाह कर किया. दूसरा बंकर सुबह नौ बजे नेस्तनाबूद किया. तीसरा बंकर सुबह 11 बजे नष्ट कर दिया. तीसरे बंकर को नष्ट करते समय ही ऊपर चौथे बंकर से उन पर गोली चलाई गई, जो सीधे उनके सिर में लगी. जान की परवाह न करते हुए मनोज ने जवानों को ललकारते हुए चौथे बंकर पर खून से लथपथ होने के बावजूद कब्जा कर मिट्टी में मिला दिया. पिता बताते हैं कि मनोज के पास कारतूस नहीं बचे थे, एक ग्रेनाइड रह गया था. उसको उन्होंने चौथे बंकर में दाग दिया. उनके पास एक खुखरी थी. खुखरी से पाकिस्तानियों का गला काट कर फिर चौथे बंकर से बाहर आए और कारगिल पर जीत दर्ज की. गोली लगने से घायल होने के चलते खून ज्यादा निकल गया था. कारगिल फतह कर वो फिर उठ नहीं पाए और वीरगति को प्राप्त हुए.
शहादत से पहले लिया था मां से आशीर्वाद : अमर सपूत मनोज के पिता गोपीचंद्र पांडेय बताते हैं कि, 25 जून को मनोज का एक फोन आया था उस समय वह कारगिल ऑपरेशन में ही थे. उन्होंने अपनी मां से आखिरी बार बात की थी. कहा था कि मां आप टीवी पर देख रही होंगी. यहां के हालात बिल्कुल ठीक नहीं हैं, लेकिन मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने मकसद में कामयाब हो जाऊं और फोन काट दिया.शहीद बेटे कैप्टन मनोज पांडेय पर पिता को गर्व है. हालांकि, उनके न रहने से पिता को बहुत कष्ट है. उनका कहना है कि वह पूरे देश के बेटे थे, पूरे समाज के बेटे थे. उन्होंने मेरे पुत्र होने का और पूरे देश के पुत्र होने का फर्ज निभाया. वे कहते हैं कि मुझे इस बात की खुशी है कि मनोज जिस उद्देश्य के लिए सेना में गए थे, उसमें कामयाब हुए. दुख इस बात का है कि वह अगर जीवित होते तो कुछ और ही बात होती.आज वह हमारे बीच में नहीं हैं. उनकी इस बहादुरी पर पूरे देश को गुमान है.
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