लखनऊ. उत्तर प्रदेश में 37 साल बाद इतिहास दोहराते हुए भाजपा बैक-टू-बैक पूर्ण बहुमत की सरकार बना रही है. वहीं, समूचा विपक्ष धराशाई हो गया है. सपा की सीटें व वोट प्रतिशत तो बढ़ा है लेकिन अन्य दलों की स्थिति बेहद ही खराब हुई है. प्रियंका गांधी के सहारे सूबे में कांग्रेस में नई जान फूंकने का मंसूबा पाले गांधी परिवार ने अपना किला समेत वोट प्रतिशत भी गंवा दिया है.
प्रियंका ने उम्भा, हाथरस कांड, उन्नाव रेप केस, लखीमपुर हिंसा और कोरोना काल में अतिसक्रियता दिखाई तो पार्टी में ये आशा बनी कि यूपी में एक बार फिर कांग्रेस को उसकी जमीन वापस मिल सकती है. लेकिन राज्य की जमीन तो छोड़िए, अपने गांधी परिवार के गढ़ रायबरेली तक को नहीं बचा सकी.
पिछले 3 चुनाव से घट रहा वोट शेयर
2022 के चुनाव में कांग्रेस 7 सीट से 2 सीटों पर सिमट गई है. वहीं, उसने अपना वोट शेयर भी खो दिया है. इस चुनाव में कांग्रेस का 2.33 प्रतिशत वोट शेयर रहा है. 2017 में यही वोट शेयर 6.25 प्रतिशत था. साल 2012 के चुनाव में कांग्रेस 28 सीटें जीती थीं व 11.65 प्रतिशत वोट शेयर था.
लगातार घट रही हैं कांग्रेस की सीटें
ऐसा नहीं है कि ये 2022 के चुनाव में कांग्रेस की सीटें अचानक कम हुई हों. इसका सिलसिला 1991 से जारी है. 1985 के विधानसभा चुनाव में 269 सीट जीतकर कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी लेकिन उसके बाद कांग्रेस का प्रदर्शन गिरता गया. साल 1991 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 46, 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 22, 2012 में 28 और 2017 में महज 7 सीटें ही मिल सकीं थीं.
कांग्रेस छोड़कर जाने वाले नेता, 'नौकरों' पर प्रियंका का ज्यादा भरोसा होना हार का मानते हैं कारण
चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस छोड़कर जाने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता जीशान हैदर मानते है कि प्रियंका गांधी ने नेताओं से अधिक अपने नौकरों पर ज्यादा भरोसा कर लिया था. नतीजा ये रहा कि उन्होंने 380 सीटों पर टिकट प्रियंका के इर्द-गिर्द रहने वाले नौकरों ने पैसों के लेनदेन से टिकट दिए. यही नहीं, संगठन में भी उन्ही को जिम्मेदारी दी गयी जिन्होंने उन्हें खुश किया था. ऐसे में नेताओं की उपेक्षा कांग्रेस को ले डूबी.
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क्या कहते है राजनीतिक पंडित
पिछले 4 दशक से राजनीति को करीब से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक गोविंद पंत राजू मानते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जब प्रियंका गांधी को यूपी की जिम्मेदारी दी गयी. अब भले ही प्रियंका ने उत्तर प्रदेश के कई मुद्दों को बड़े ही जोश के साथ उठाया हो लेकिन वो टूरिस्ट नेता के तौर पर ही सीमित रही हैं. यही नहीं, संगठन को मजबूत करने के लिए भी उन्होंने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया.
वहीं, राजनीतिक विश्लेषक राघवेंद्र त्रिपाठी कहते है कि राजनीति ऐन वक्त प्रकट होकर नहीं हो सकती है. प्रियंका गांधी यूपी की राजनीति को दिल्ली से चलाना चाह रहीं थीं. यही नहीं, प्रियंका ने भले ही ये दिखाने की कोशिश की कि उनमें सराफत है लेकिन जनता सराफत का क्या करेगी. उसे तो ऐसा नेता चाहिए जो गली मोहल्ले की राजनीति करें. सड़क, नाली के मुद्दों पर उनके साथ रहे.
इस तरह का कांग्रेस में नेताओं का टोटा है. राघवेंद्र कांग्रेस की इस हालत की जिम्मेदार आपसी कलह को भी मानते है. जिस तरह संगठन के नेताओं में पूरे चुनाव के दौरान आपस में सिर फुटव्वल की नौबत रही, एक-एककर नेता उन्हें छोड़कर जाते रहे और प्रियंका दिल्ली में ही बैठी रहीं, ऐसे में कैसे कोई भी राजनीतिक दल आगे बढ़ सकेगा.
घिसे-पिटे नेताओं पर भरोसा कांग्रेस को ले डूबा
राघवेंद्र त्रिपाठी कहते हैं कि कांग्रेस की इस हाल का सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि प्रियंका ने घिसे-पिटे नेताओं पर ज्यादा भरोसा किया. ये ऐसे नेता थे जिन्होंने पिछले 30 साल से कांग्रेस के लिए कोई भी कार्य नहीं किया. जो 30 साल से एक बूथ मजबूत नहीं कर सके, उनसे चुनाव जिताने की उम्मीद रखना कांग्रेस की बुरी हालत का सबसे बड़ा कारण रहा है.
गढ़ को भूल बैठी थी कांग्रेस
वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाल कहते है कि प्रियंका गांधी ही नहीं, पूरी कांग्रेस अपने गढ़ रायबरेली व अमेठी को ही भूल बैठी थी. अमेठी व रायबरेली में राहुल गांधी और सोनिया ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया बल्कि 2022 के विधानसभा चुनाव दिखाता है कि इस बार भी इन दोनों जिलों की सीटों का वोट शेयर उनके साथ अभी भी टिका हुआ है. ऐसे में आप जब अपनी जमीन को ही भूल जाएंगे और उनके बीच जाने से कतराएंगे तो कैसे पूरे प्रदेश का भरोसा जीत सकते हैं.