लखनऊ: अयोध्या, काशी-मथुरा और अब ताजमहल. धर्मस्थलों और ऐतिहासिक इमारतों को लेकर विवाद नई बात नहीं है. हाल ही में आगरा के विश्व प्रसिद्ध ताजमहल में बंद कमरों को खोलकर देखने की बात हो या ज्ञानवापी मस्जिद स्थित श्रृंगार गौरी का मामला. अयोध्या में राम मंदिर प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद ऐसे अन्य विवादित स्थलों को लेकर बहस तेज हो गई है और हर पक्ष सच्चाई जानने के लिए कोर्ट की शरण में जा रहा है. श्रृंगार गौरी और ताजमहल प्रकरण इन दिनों सबसे ज्यादा सुर्खियों में हैं. ऐसे में हमने इतिहासकार का नजरिया जानने की कोशिश की. पेश है दोनों प्रकरणों में इतिहासकार की राय.
इतिहासकार रवि भट्ट कहते हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर बहुत पुराना है. भारत में जो मंदिर होते हैं, उनका टाइम पता लगाना बहुत मुश्किल होता है. कहीं पर भी लोग पत्थर रखकर प्राण प्रतिष्ठा कर दें तो वहां पूजा आरंभ हो जाती है. सभी जानते हैं कि वाराणसी दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है. दावा है कि जब शहर इतना पुराना हो तो मंदिर भी इतना ही पुराना होगा. वह बताते हैं कि सन 1194 के आसपास इस मंदिर को कुतुबुद्दीन ऐबक ने लूटा और क्षतिग्रस्त किया था. इसके बाद एक गुजराती व्यापारी ने इसका पुनर्निर्माण कराया था. इसके बाद पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में सिकंदर लोधी ने मंदिर को फिर क्षति पहुंचाई. अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दक्षिण भारतीय ब्राह्मण नारायण भट्ट की देख-रेख में दोबारा बनवाया था.
1669 में औरंगजेब ने मंदिर को फिर तुड़वाया था. इसके बाद में 1698 में एक हिंदू राजा ने आसपास की जमीन खरीद कर मंदिर का पुराना स्वरूप लौटाने की कोशिश की, लेकिन वह फेल हो गया. रवि भट्ट कहते हैं कि सन 1700 के आसपास जयपुर राज परिवार ने इसे ठीक कराने की कोशिश की. 1748 के आसपास मालवा के नरेश ने भी यह मंदिर ठीक कराने का प्रयास किया. अंतत: 1780 में अहिल्याबाई ने मंदिर का स्वरूप लौटाने का काम किया. वह कहते हैं कि आप देख सकते हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर पर कितने आक्रमण हुए. अभी जो मुद्दा सामने आ रहा है कि मंदिर के ही एक हिस्से के अंदर मस्जिद बना दी गई. यह ऐतिहासिक तथ्य है और इसमें कोई छिपी हुई बात भी नहीं है. अभी जो न्यायालय का निर्णय आया है वह बहुत अच्छा है. न्यायालय ने कहा है कि वीडियोग्राफी करा के वास्तविकता को देखा जाए. वह कहते हैं कि उनके विचार से वास्तविकता सामने आने के बाद इस प्रकरण से विवाद ठीक उसी तरह समाप्त हो जाएगा, जैसे अयोध्या प्रकरण से समाप्त हो गया था.
वहीं ताज महल प्रकरण में इतिहासकार रवि भट्ट कहते हैं कि दुनिया में तमाम लड़ाइयां दो कारणों से हुई हैं. पहला कारण आर्थिक है तो दूसरा अहम. चाहे ताजमहल हो या ज्ञानवापी प्रकरण, हर जगह अलग-अलग धर्मगुरुओं के अहम के कारण मुद्दों का समाधान नहीं निकल पा रहा है. जहां तक ताजमहल की बात है, एक इतिहासकार हुए हैं, जिनका नाम था पुरुषोत्तम नागेश ओक. उन्होंने एक किताब लिखी थी, जिसका नाम था 'ताज द ट्रू स्टोरी'. इस किताब में ताज को एक हिंदू मंदिर बताया गया है, जिसके ऊपर शाहजहां ने ताजमहल बनवा दिया. इसका नतीजा यह निकला कि हिंदू विचारधारा के घोर समर्थकों ने इसे बिना समझे स्वीकार कर लिया.
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वहीं, दूसरा समुदाय कहता है कि यहां मंदिर कतई नहीं था. अब मंदिर और मकबरे का झगड़ा छोड़कर यदि ताजमहल जाकर देखें तो साफ पता चलता है कि इसे एक मकबरे के तौर पर ही बनाया गया था. इस स्थान पर पहले राजा जय सिंह की एक हवेली हुआ करती थी. शाहजहां ने उनसे यह जमीन खरीदी थी. उसी हवेली के स्थान पर ताजमहल बना था. वहां जो बाइस कमरे बंद करके रखे गए हैं, पता नहीं क्यों खोले नहीं जा रहे हैं. ऐसा भी माना जाता है कि एक समय में इन कमरों में बहुत ही बहुमूल्य चीजें रखी हुई थीं, जिन्हें गायब कर दिया गया और वहां सुरक्षा कारण बताकर ताला लगा दिया गया, जिससे कि उनकी चोरी का पता सदियों बाद चले और वह न पकड़े जाएं.
रवि भट्ट कहते हैं कि दूसरा अनुमान यह है कि जब हवेली के स्थान पर ताजमहल बन रहा था तो उस दौरान तमाम हिंदू मजदूर जो काम कर रहे थे, उन्हें कुछ मूर्तियां मिली थीं. क्योंकि हवेली में मंदिर और पूजा स्थल भी होते थे. ऐसे में मजदूरों ने उन मूर्तियों को वहां के कमरों में सहेज दिया हो और सुरक्षा कारण बताकर कमरे नहीं खोले जा रहे हों. वह कहते हैं कि एक इतिहासकार के नजरिए से उन कमरों को खोलकर देख लेने की आवश्यकता है. इससे किसी भी पक्ष को दिक्कत भी नहीं होनी चाहिए. मना करने से दावा करने वाले पक्ष की धारणा और पक्की हो जाती है. हाईकोर्ट का निर्णय अच्छा है, लेकिन इन कमरों को खोलकर देखने के लिए यदि न्यायालय और शेष दोनों पक्ष तैयार हो जाएं तो इसमें कोई हर्ज नहीं है.
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