हैदराबाद: यूपी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) को अब बामुश्किल कुछ माह शेष बचे हैं. प्रचार की रफ्तार का आलम यह है कि प्रदेश में व्याप्त संक्रमण के खतरे के बावजूद सियासी पार्टियां अपने प्रचार पर ब्रेक लगाने को तैयार नहीं हैं. हालांकि, इस बाबत चुनाव आयोग (Election commission of india) ने सर्वदलीय बैठक (all party meeting) कर सभी पार्टियों से बात भी की थी, लेकिन कोई भी पार्टी चुनाव की तारीख टालने के पक्ष में नहीं है. ऐसे में यह स्पष्ट होता है कि किसी भी सियासी पार्टी को आम लोगों की जिंदगी से अधिक सूबे की सत्ता की चिंता सता रही है.
लेकिन आज हम उस नेता की बात करेंगे, जो किसानों की फिक्रमंदी में कांग्रेस की वंशवादी सियासत (Congress dynastic politics) के खिलाफ खड़ा हुआ. जी हां, हम बात कर रहे हैं किसानों के मसीहा व देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (Former Prime Minister Chaudhary Charan Singh) की. जिन्होंने सियासत में आने से पहले खेतों में हल चलाकर किसानों के दर्द को समझा व महसूस किया था. वहीं, जब वो सक्रिय सियासत में आए तो उन्हें किसानों का भरपूर सहयोग मिला. आहिस्ते-आहिस्ते उनकी जनप्रियता प्रदेश से देश में बढ़ती चली गई और जब वो प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने किसानों के हित में कई अहम फैसले लिए. भले ही आज वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्हें आज भी किसानों के मसीहा के रूप में उन्हें याद किया जाता है.
यूपी के जनपद मेरठ में एक गरीब किसान परिवार में 23 दिसंबर, 1902 को जन्मे चौधरी चरण सिंह बड़े ही प्रतिभाशाली व समाजसेवी व्यक्तित्व थे. जिन्होंने कांग्रेस की वंशवादी सियासत के खिलाफ आवाज बुलंद किए. वहीं, गरीब परिवार से होने के बावजूद उन्होंने शिक्षा को प्राथमिकता दी. साल 1925 में स्नातक करने के उपरांत एलएलबी की और फिर गाजियाबाद में वकालत के दौरान गायत्री देवी से विवाह किया. इधर, 1929 में वो आजादी की लड़ाई में शामिल हुए और इसके बाद 1930 में गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन और *दांडी* मार्च में शरीक हुए. इतना ही नहीं 1940 में सत्याग्रह आंदोलन के दौरान जेल भी गए.
आजादी के बाद चौधरी चरण सिंह 1952 में उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार में राजस्व मंत्री बने तो किसान हित में उन्होंने जमींदारी उन्मूलन विधेयक पारित किया. वहीं, 3 अप्रैल, 1967 को पहली बार किसान नेता चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन 17 अप्रैल, 1968 को उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद हुए मध्यावधि चुनाव में उन्हें फिर सफलता मिली और वो दोबार 17 फरवरी, 1970 को सूबे के मुख्यमंत्री बने. इसके बाद उन्होंने केंद्र की सियासत में कदम रखा. उन्होंने मोरारजी देसाई की सरकार में केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की. इसी दौरान उनके व मोरारजी देसाई के बीच मतभेद हुए तो उन्होंने बगावत करते हुए जनता दल पार्टी भी छोड़ दी.
मोरारजी देसाई की सरकार गिरी तो कांग्रेस व दूसरी पार्टियों के समर्थन से चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 को देश के पांचवे प्रधानमंत्री बने. इसके बाद इंदिरा गांधी ने शर्त रखी थी कि उनकी पार्टी व उनके खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लिए जाएं, लेकिन सिद्धांतवादी चौधरी चरण सिंह ने उनकी शर्त नहीं मानी और 14 जनवरी, 1980 को प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इसी दौरान उन्होंने देश के किसानों की स्थिति सुधारने और उनके हक के लिए निरंतर काम किया. 29 मई, 1987 को चौधरी चरण सिंह ने अंतिम सांस ली.
वहीं, 1979 में जब वो देश के प्रधानमंत्री थे तो एक दिन कानून-व्यवस्था का हाल जानने के लिए काफिले को दूर खड़ा कर इटावा जिला के ऊसराहार थाने में मैला कुर्ता और धोती पहनकर पहुंच गए, जहां उन्होंने दरोगा से बैल चोरी की रिपोर्ट लिखने को कहा, लेकिन दरोगा ने बिना रिपोर्ट लिखे उन्हें चलता कर दिया. उनके जाते समय एक सिपाही ने उनसे रिपोर्ट लिखने के लिए खर्चा-पानी मांगा था. खैर आखिर में 35 रुपये में रिपोर्ट लिखना तय हुआ. मुंशी ने रिपोर्ट लिखकर कहा कि बाबा अंगूठा लगाओगे या हस्ताक्षर करेंगे. इस पर उन्होंने चौधरी चरण सिंह लिख दिया और जेब से प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया की मुहर निकालकर लगा दी. यह देखकर थाने में हड़कंप मच गया. इसके बाद उन्होंने पूरे ऊसराहार थाने को निलंबित कर दिया था.
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