लखनऊ : उत्तर प्रदेश में लगभग एक दशक से छुट्टा पशुओं की समस्या से किसान परेशान हैं. इसके लिए केंद्र और राज्य की सरकारों ने चुनावों में खूब वादे किए और अब बड़े-बड़े दावे भी किए जा रहे हैं. हालांकि स्थिति में अब भी कोई बदलाव नहीं आया है. इसके साथ ही एक नई समस्या भी दिनोंदिन गहराती जा रही है. यह है बंदरों की समस्या. प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई जिला हो, जहां बंदरों की समस्या न हो रही हो. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में हर साल सैकड़ों लोग इनके हमलों में घायल होते हैं, वहीं कई ग्रामीण इलाकों में खेती और बागवानी चौपट हो चुकी है. ऐसे में पीड़ितों की समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वह इस समस्या से कैसे निपटें.
राजधानी लखनऊ के सीमावर्ती जिले सीतापुर का ही उदाहरण लें. इस जिले में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो अच्छी खेती और बागवानी के लिए जाने जाते थे, लेकिन इन क्षेत्रों में अब बागें कटवानी पड़ रही हैं और खेती के नाम पर सिर्फ तंबाकू उगाई जाती है. क्योंकि बंदर तंबाकू या तो खाते नहीं हैं और यदि खा लेते है, तो नशे में बेसुध पड़े रहते हैं. सीतापुर जिले की तहसील सिधौली स्थित तेरवा, महेशपुर सहित दर्जनभर ऐसे गांव हैं, जहां कभी आम और अमरूद की बेहतरीन पैदावार होती थी. यहां का आम और अमरूद दूर-दूर तक भेजा जाता था, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में बंदरों का आतंक इतना बढ़ा कि आम और अमरूद की पैदावार घट कर दस प्रतिशत भी नहीं रह गई. मजबूरन लोग बागें कटवाने लगे. फूल या छोटे-छोटे फल आते ही बंदर इन्हें बर्बाद कर देते हैं. नई बागें तो लगनी बिल्कुल ही बंद हो गई हैं. पौधों की कोपलें तक बंदर बर्बाद कर डालते हैं. अब बंदर खेतों में भी उपद्रव करने लगे हैं. गेहूं की बालियां और अन्य फसलों को भी वह बुरी तरह नुकसान पहुंचाते हैं.
इसी तरह इस तहसील के बौनाभारी ग्राम पंचायत क्षेत्र स्थित समाम गांवों में अब सामान्य खेती नामुमकिन हो गई है. बंदर हर तरह की फसल का मिनटों में सफाया कर देते हैं. विकल्प के तौर पर लोगों ने यहां दशकों से तंबाकू उगाने का काम शुरू किया. इस काम में किसानों को कोई बड़ा लाभ तो नहीं मिलता पर जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होता है. तंबाकू की फसल बंदर कम बर्बाद करते हैं. कभी-कभी यह फसल खाकर वह दिन-दिन भर नशे में पड़े रहते हैं. यही हाल बाराबंकी जिले के सीतापुर से सटे इलाके का भी है. यहां भी बागवानी बंद हो चुकी है. बंदर अपने घर में खाना खा रहे लोगों की थाली तक छीन ले जाते हैं. यही नहीं कई बार बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक बंदरों के हमलों के शिकार बनाते हैं और उन्हें गंभीर चोटों का सामना करना पड़ता है. क्षेत्रीय लोगों के सामने इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं है. जिला स्तर पर लोगों ने कई बार शिकायतें भी कीं, लेकिन प्रशासनिक तंत्र के पास भी इस बीमारी का कोई इलाज नहीं हैं.
इस संबंध में वन्यजीव प्रेमी प्रेम आहूजा कहते हैं 'जिस तरह से आज आवारा पशुओं की समस्या विकट होती जा रही है, ठीक उसी तरह बंदरों की समस्या भी आने वाले दिनों में सामने आने वाली है. चिंता की बात यह है कि सरकारें तब जागती हैं, जब समस्या हद से ज्यादा बढ़ चुकी होती है. इस समस्या के लिए बाकायदा नीति बनाने की जरूरत है. बंदरों की भी अन्य पशुओं की तरह नसबंदी करानी चाहिए और इन्हें पकड़कर जंगलों में छोड़ने की पहल भी करनी चाहिए, जहां बंदरों को भी जीवन और भोजन मिल पाएगा. इसके साथ ही वन्य कर्मियों को भी प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह बंदरों को किस तरह बिना नुकसान पहुंचाए काबू कर सकें.'