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किसानों के मुद्दे पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिड़ा रहा सियासी संग्राम, जानें क्या रही जमीनी हकीकत

किसान आंदोलन के बाद पश्चिम में जाट और मुस्लिम वोटरों का एक साथ आना भाजपा के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं था. हालांकि विपक्ष की इस थ्योरी में कोई खास दम नहीं थी फिर भी ऐसे किसी सामाजिक गठबंधन को होने से रोकने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया.

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किसानों के मुद्दे पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिड़ा रहा सियासी संग्राम
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Published : Mar 9, 2022, 8:26 PM IST

लखनऊ : पश्चिमी उत्तर प्रदेश दो चरणों के अंतर्गत 113 सीटों पर चुनाव हुआ. इस दौरान तमाम सियासी समीकरणों के साथ ही इस जाट लैंड में तीन कृषि कानून और किसान आंदोलन की भी गहरी छाप देखी गई. लखीमपुर खीरी के तिकोनिया में हुए किसान और भाजपा के केंद्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्र के साथ किसानों की झड़प और चार किसानों और चार भाजपा कार्यकर्ताओं की मौत के बाद मामला और गरमा गया.

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किसानों के मुद्दे पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिड़ा रहा सियासी संग्राम

यह एक ऐसा मुद्दा था जिसे विपक्षी दलों ने भी लपकने में देर नहीं की. चुनाव के पहले ही किसान आंदोलन, इस आंदोलन में कथित तौर पर जान गवांने वाले 700 किसानों और तिकोनिया कांड के नाम पर विपक्षी दलों ने भाजपा के खिलाफ लामबंद होने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. इसी बीच राष्ट्रीय लोकदल के चौ. अजीत सिंह की मौत ने इस दल के लिए किसानों खासकर जाटलैंड के जाटों के मन में एक सहानुभूति भर दी. लोगों की सहानुभूति को देखते हुए अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने भी उनकी याद में बड़े किसान नेताओं को बुलाकर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया.

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इस एक घटना ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण ही बदल दिया. इस आयोजन में अजीत सिंह के कद के अनुरूप बड़ी संख्या में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक से जाट नेता आए और जयंत चौधरी के साथ अपनी सहानुभूति को व्यक्त किया. इसी बीच रालोद की बढ़ती ताकत देख समाजवादी पार्टी भी उससे हाथ मिलाने जा पहुंची. अखिलेश और जयंत चौधरी के बीच गठबंधन हो गया. इसके साथ ही किसान आंदोलन के नाम पर जाट लैंड में नए सियासी समीकरण साधने की गणित भी शुरू हो गई.

विधानसभा के पूर्व पंचायत चुनाव में उठाना पड़ा नुकसान

किसान आंदोलन ने पश्चिमी यूपी के राजनीतिक समीकरण को बदलकर रख दिया. इसी बीच यूपी में पंचायत चुनाव हुए जिसमें बीजेपी को सत्ता में रहते हुए राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा. किसान आंदोलन के चलते पश्चिम यूपी में बीजेपी नेताओं के गांव में घुसते ही उनका विरोध शुरू हो जा रहा था. बीजेपी तमाम जतन के बाद भी यूपी में किसानों के बीच अपने पुराने विश्वास को स्थापित नहीं कर पा रही थी. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी और बसपा सुप्रीमो मायावती तक किसानों के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में जुटे दिखे. वहीं, बीजेपी यूपी की सत्ता को अपने हाथों से किसी भी सूरत में जाने नहीं देना चाहती थी.

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किसान आंदोलन के नाम पर जाट-मुस्लिम को साथ लाने की कोशिश

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन की वजह से ताकतवर जाट और मुस्लिम समुदायों के हाथ मिलाने की बात कही गई. इस समुदाय के एसपी-रालोद गठबंधन को अपना समर्थन देने की बात भी सामने आई. जानकार बताते हैं कि इस तरह यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि सारा जाट और मुस्लिम समाज एक होकर भारतीय जनता पार्टी के विरोध में चला गया है. साथ ही सपा और रालोद गठबंधन पश्चिमी यूपी से भाजपा को साफ करने जा रहा है.

वहीं, भारतीय जनता पार्टी भी विपक्षी दलों की इस 'भूमिका' और 'कहानी' को गलत साबित करने में लग गई. पिछले तीन चुनावों के दौरान प्राप्त जनाधार को बरकरार रखने के मद्देनज़र भाजपा ने एक बार फिर 'मुजफ्फरनगर मॉडल' और 'कैराना पलायन' जैसे मुद्दे को जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया. यह भाजपा की ऐसी रणनीति थी जिसने किसान आंदोलन के नाम पर एक हुए जाट और मुस्लिमों को दोबारा से राजनीति से परे मूल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया.

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भाजपा के लिए थी खतरे की घंटी

किसान आंदोलन के बाद पश्चिम में जाट और मुस्लिम वोटरों का एक साथ आना भाजपा के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं था. हालांकि विपक्ष की इस थ्योरी में कोई खास दम नहीं थी फिर भी ऐसे किसी सामाजिक गठबंधन को होने से रोकने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया. गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और स्वयं योगी सहित पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता काफी हद तक पिछली सपा सरकार के दौरान कानून और व्यवस्था की दयनीय हालात के मुद्दों को उठाते और भाजपा के पारंपरिक वोटरों को बचाने की जुगत में जुटते नजर आए. मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में लोगों को बार-बार याद दिलाना, उनके भाषणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया. बीजेपी के स्टार प्रचारकों ने दंगा व पलायन के अलावा सपा सरकार में उत्पीड़न और गुंडई जैसे आरोपों को लगाकर भी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश की. भाजपा लगातार हिंदू वोटरों के अपने ध्रुवीकरण अभियान में लगी रही. हालांकि एसपी-आरएलडी गठबंधन के नेताओं ने विकास, रोजगार, भाईचारा, किसान के मुद्दों को उठाया और ध्रुवीकरण की धार को कम करने की पुरजोर कोशिश की. वैसे एसपी-आरएलडी गठबंधन के पास पहले चरण में खोने को बहुत ज्यादा नहीं था और पाने के लिए सब कुछ था. वहीं बीजेपी के सामने अपनी 2017 की जमीन को बचाकर रखने की चुनौती रही.

सपा ने भी किया पलटवार

किसान आंदोलन के बाद मुस्लिम जाट का एक साथ आना और इस पर भाजपा का ध्रुवीकरण अभियान शुरू करना विपक्षी दलों सपा-रालोद के कान खड़े कर गया. खासकर कैरान और मुजफ्फरनगर दंगे की बात उठाकर भाजपा ने बड़ी ही सफाई से जाट-मुस्लिमों के बीच पट रही खाईं को दोबारा से पहले से भी अधिक गहरा कर दिया. इसे लेकर सपा और रालोद ने भी नए सिरे से जाट-मुस्लिम समुदाय को एकजुट बनाए रखने की रणनीति पर काम शुरु कर दिया. इसके लिए गठबंधन ने 'भाईचारा बनाम भाजपा' का नारा गढ़ा.

यह भी पढ़ें : यूपी विधानसभा चुनाव 2022: मतगणना की तैयारियां पूरी, 4442 प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला होगा

किसान आंदोलन के साथ विपक्ष ने शुरू की गन्ना राजनीति

विधानसभा चुनाव 2022 के दौरान विपक्षी दलों सपा, रालोद ने तीन कृषि कानून के साथ ही लखीमपुर खीरी के मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाया. पर किसानों से केवल इन दो मुद्दों के बल पर पूरा समर्थन पाने को लेकर गठबंधन को उतना यकीन नहीं था. इसका एक कारण यह भी था कि तीन कृषि कानूनों को भाजपा सरकार वापस ले चुकी थी. वहीं, लखीमपुर खीरी मामले में किसानों की योजनाबद्ध हत्या की कहानी आम किसान पचा नहीं पा रहे थे.

घटना में भाजपा के चार कार्यकर्ताओं को भी पीट पीटकर मार दिया गया था. ऐसे में मुद्दा किसानों का होने की बजाय राजनीतिक और आपराधिक बन गया था. यही वजह थी कि इन दो मुद्दों के अलावा गन्ना किसानों के मुद्दे को भी सपा-रालोद ने जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया. गन्ने के समर्थन मूल्य समेत बकाया भुगतान की बात करके विपक्षी दलों ने सत्ताधारी दल के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.

सपा-रालोद ने गन्ना राजनीति शुरू की जो कि पश्चिमी यूपी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. चुनाव के दौरान मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बुलंदशहर के अपने तीन दिवसीय दौरे के दौरान अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने अपने विजय रथ पर गन्ना का एक बंडल रखा था. गन्ने के इस बंडल को बस की छत पर लाकर दोनों नेता लोगों का अभिवादन कर रहे थे. संदेश स्पष्ट था कि गठबंधन किसानों के मौलिक वित्तीय हितों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध है. जयंत चौधरी ने शामली में कहा, 'गठबंधन को जिन्ना की नहीं बल्कि गन्ना की चिंता है. माहौल को सांप्रदायिक बनाने के लिए भाजपा बार-बार जिन्ना का मुद्दा उठाकर लोगों को उकसाना चाहती है'.

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राकेश टिकैत ने कैराना और मुजफ्फरनगर मॉडल को बताया था 'पुराना'

इस दौरान बीकेयू नेता राकेश टिकैत ने किसानों के मुद्दे को नए सिरे से उठाने की बात कही. टिकैत ने कहा कि कैराना और मुजफ्फरनगर मॉडल पुराना हो चुका है. इस चुनाव में काम नहीं करेगा. एक सभा में उन्होंने कहा, 'अगर बीजेपी सचिन और गौरव के परिवार (उनकी हत्या ने 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे को भड़काया था) के बारे में चिंतित है तो भाजपा को उसके परिवार के सदस्यों को एमपी या एमएलसी बनाना चाहिए. ऐसा करने के बाद ही उन्हें सचिन और गौरव के बारे में बात करनी चाहिए'.

PM मोदी ने माफी मांगते हुए किया था कृषि कानूनों की वापसी का एलान

पीएम मोदी ने कहा था, ‘साथियों, मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी जिसके कारण मैं कुछ किसानों को समझा नहीं पाया. मैं आंदोलनकारी किसानों से घर लौटने का आग्रह करता हूं और तीनों कानून वापस लेता हूं. इस महीने के अंत में संसद सत्र शुरू होने जा रहा है उसमें कानूनों को वापस लिया जाएगा.’ गौरतलब है कि तीनों कृषि कानूनों को 17 सितंबर, 2020 को लोकसभा ने मंजूर किया गया था. 27 सिंतबर को राष्ट्रपति ने इस पर दस्तखत किए थे. इसके बाद से ही किसान संगठनों ने कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया था.

जाटलैंड का क्या रहा गणित?

यूपी में जाट समुदाय की आबादी करीब 6-7 फीसदी मानी जाती है. इस समाज का संकेंद्रण वेस्ट यूपी में है. वेस्ट यूपी में जाट समाज की आबादी करीब 17 फीसदी हैं. वेस्ट में दलित, मुस्लिम के बाद तीसरे नंबर पर जाट हैं. जाट पश्चिमी यूपी की 18 लोकसभा सीटों और 120 विधानसभा सीटों पर जीत-हार का अंतर तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. जाटों को साधने की वजह से ही बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की थी.

हर बार की तरह इस बार भी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की शुरुआत पश्चिम से होने जा रही है जहां मतदान 10 और 14 फ़रवरी को होगा. भले ही तीन कृषि क़ानून वापस हो गए हों लेकिन समाजवादी पार्टी ने किसान संगठन के सहयोग से भाजपा को हराने का प्रण लिया है. क्या इसका मतलब यह है कि अधिकतर किसान संगठनों में पूरी तरह से भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल है?

भाजपा ने 2017 के अपने विकास के मॉडल पर ही किया भरोसा

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही किसान आंदोलन, तिकोनिया गांड और गन्ना व अन्न शपथ के मुद्दों को लेकर सपा-रालोद ने हाईटेक प्रचार किया. वहीं, भाजपा नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जेवर एयरपोर्ट से लेकर एक्सप्रेस-वे और विकास के मॉडल का प्रचार करते रहे. साथ ही पार्टी गैर जाटव दलित, गैर यादव ओबीसी को साधती रही. सैनी समाज में पैठ बनाने की सभी रणनीति अपनाती रही.

दूसरी ओर स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान आदि के पार्टी छोड़ने के बाद भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में काफी बदलाव किया. प्रधानमंत्री मोदी का प्रचार अभियान भी रणनीति के तहत देर से शुरू कराया गया. इससे पहले जमीनी स्तर पर माहौल बनाने की कोशिश हुई. भाजपा पहले, दूसरे और तीसरे चरण के अपने करीब 42 फीसदी मतों को सुनिश्चित करने की कोशिश में लगी रही. हालांकि भाजपा की राह में सबसे बड़ी बाधा किसान ही हैं. पार्टी उन्हें मनाने में लगी रही.

पहले चरण में यहां हुए चुनाव

पहले चरण में शामली, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, हापुड़, गौतमबुद्धनगर, गाजियाबाद, बुलंदशहर, मथुरा, आगरा और अलीगढ़ 58 सीटों पर चुनाव हुए.

दूसरे चरण में यहां हुए चुनाव

दूसरे चरण में सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, अमरोहा, बदायूं, बरेली और शाहजहांपुर में 55 सीटों पर चुनाव हुए.

लखनऊ : पश्चिमी उत्तर प्रदेश दो चरणों के अंतर्गत 113 सीटों पर चुनाव हुआ. इस दौरान तमाम सियासी समीकरणों के साथ ही इस जाट लैंड में तीन कृषि कानून और किसान आंदोलन की भी गहरी छाप देखी गई. लखीमपुर खीरी के तिकोनिया में हुए किसान और भाजपा के केंद्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्र के साथ किसानों की झड़प और चार किसानों और चार भाजपा कार्यकर्ताओं की मौत के बाद मामला और गरमा गया.

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किसानों के मुद्दे पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिड़ा रहा सियासी संग्राम

यह एक ऐसा मुद्दा था जिसे विपक्षी दलों ने भी लपकने में देर नहीं की. चुनाव के पहले ही किसान आंदोलन, इस आंदोलन में कथित तौर पर जान गवांने वाले 700 किसानों और तिकोनिया कांड के नाम पर विपक्षी दलों ने भाजपा के खिलाफ लामबंद होने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. इसी बीच राष्ट्रीय लोकदल के चौ. अजीत सिंह की मौत ने इस दल के लिए किसानों खासकर जाटलैंड के जाटों के मन में एक सहानुभूति भर दी. लोगों की सहानुभूति को देखते हुए अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने भी उनकी याद में बड़े किसान नेताओं को बुलाकर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया.

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इस एक घटना ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण ही बदल दिया. इस आयोजन में अजीत सिंह के कद के अनुरूप बड़ी संख्या में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक से जाट नेता आए और जयंत चौधरी के साथ अपनी सहानुभूति को व्यक्त किया. इसी बीच रालोद की बढ़ती ताकत देख समाजवादी पार्टी भी उससे हाथ मिलाने जा पहुंची. अखिलेश और जयंत चौधरी के बीच गठबंधन हो गया. इसके साथ ही किसान आंदोलन के नाम पर जाट लैंड में नए सियासी समीकरण साधने की गणित भी शुरू हो गई.

विधानसभा के पूर्व पंचायत चुनाव में उठाना पड़ा नुकसान

किसान आंदोलन ने पश्चिमी यूपी के राजनीतिक समीकरण को बदलकर रख दिया. इसी बीच यूपी में पंचायत चुनाव हुए जिसमें बीजेपी को सत्ता में रहते हुए राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा. किसान आंदोलन के चलते पश्चिम यूपी में बीजेपी नेताओं के गांव में घुसते ही उनका विरोध शुरू हो जा रहा था. बीजेपी तमाम जतन के बाद भी यूपी में किसानों के बीच अपने पुराने विश्वास को स्थापित नहीं कर पा रही थी. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी और बसपा सुप्रीमो मायावती तक किसानों के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में जुटे दिखे. वहीं, बीजेपी यूपी की सत्ता को अपने हाथों से किसी भी सूरत में जाने नहीं देना चाहती थी.

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किसान आंदोलन के नाम पर जाट-मुस्लिम को साथ लाने की कोशिश

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन की वजह से ताकतवर जाट और मुस्लिम समुदायों के हाथ मिलाने की बात कही गई. इस समुदाय के एसपी-रालोद गठबंधन को अपना समर्थन देने की बात भी सामने आई. जानकार बताते हैं कि इस तरह यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि सारा जाट और मुस्लिम समाज एक होकर भारतीय जनता पार्टी के विरोध में चला गया है. साथ ही सपा और रालोद गठबंधन पश्चिमी यूपी से भाजपा को साफ करने जा रहा है.

वहीं, भारतीय जनता पार्टी भी विपक्षी दलों की इस 'भूमिका' और 'कहानी' को गलत साबित करने में लग गई. पिछले तीन चुनावों के दौरान प्राप्त जनाधार को बरकरार रखने के मद्देनज़र भाजपा ने एक बार फिर 'मुजफ्फरनगर मॉडल' और 'कैराना पलायन' जैसे मुद्दे को जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया. यह भाजपा की ऐसी रणनीति थी जिसने किसान आंदोलन के नाम पर एक हुए जाट और मुस्लिमों को दोबारा से राजनीति से परे मूल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया.

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भाजपा के लिए थी खतरे की घंटी

किसान आंदोलन के बाद पश्चिम में जाट और मुस्लिम वोटरों का एक साथ आना भाजपा के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं था. हालांकि विपक्ष की इस थ्योरी में कोई खास दम नहीं थी फिर भी ऐसे किसी सामाजिक गठबंधन को होने से रोकने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया. गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और स्वयं योगी सहित पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता काफी हद तक पिछली सपा सरकार के दौरान कानून और व्यवस्था की दयनीय हालात के मुद्दों को उठाते और भाजपा के पारंपरिक वोटरों को बचाने की जुगत में जुटते नजर आए. मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में लोगों को बार-बार याद दिलाना, उनके भाषणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया. बीजेपी के स्टार प्रचारकों ने दंगा व पलायन के अलावा सपा सरकार में उत्पीड़न और गुंडई जैसे आरोपों को लगाकर भी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश की. भाजपा लगातार हिंदू वोटरों के अपने ध्रुवीकरण अभियान में लगी रही. हालांकि एसपी-आरएलडी गठबंधन के नेताओं ने विकास, रोजगार, भाईचारा, किसान के मुद्दों को उठाया और ध्रुवीकरण की धार को कम करने की पुरजोर कोशिश की. वैसे एसपी-आरएलडी गठबंधन के पास पहले चरण में खोने को बहुत ज्यादा नहीं था और पाने के लिए सब कुछ था. वहीं बीजेपी के सामने अपनी 2017 की जमीन को बचाकर रखने की चुनौती रही.

सपा ने भी किया पलटवार

किसान आंदोलन के बाद मुस्लिम जाट का एक साथ आना और इस पर भाजपा का ध्रुवीकरण अभियान शुरू करना विपक्षी दलों सपा-रालोद के कान खड़े कर गया. खासकर कैरान और मुजफ्फरनगर दंगे की बात उठाकर भाजपा ने बड़ी ही सफाई से जाट-मुस्लिमों के बीच पट रही खाईं को दोबारा से पहले से भी अधिक गहरा कर दिया. इसे लेकर सपा और रालोद ने भी नए सिरे से जाट-मुस्लिम समुदाय को एकजुट बनाए रखने की रणनीति पर काम शुरु कर दिया. इसके लिए गठबंधन ने 'भाईचारा बनाम भाजपा' का नारा गढ़ा.

यह भी पढ़ें : यूपी विधानसभा चुनाव 2022: मतगणना की तैयारियां पूरी, 4442 प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला होगा

किसान आंदोलन के साथ विपक्ष ने शुरू की गन्ना राजनीति

विधानसभा चुनाव 2022 के दौरान विपक्षी दलों सपा, रालोद ने तीन कृषि कानून के साथ ही लखीमपुर खीरी के मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाया. पर किसानों से केवल इन दो मुद्दों के बल पर पूरा समर्थन पाने को लेकर गठबंधन को उतना यकीन नहीं था. इसका एक कारण यह भी था कि तीन कृषि कानूनों को भाजपा सरकार वापस ले चुकी थी. वहीं, लखीमपुर खीरी मामले में किसानों की योजनाबद्ध हत्या की कहानी आम किसान पचा नहीं पा रहे थे.

घटना में भाजपा के चार कार्यकर्ताओं को भी पीट पीटकर मार दिया गया था. ऐसे में मुद्दा किसानों का होने की बजाय राजनीतिक और आपराधिक बन गया था. यही वजह थी कि इन दो मुद्दों के अलावा गन्ना किसानों के मुद्दे को भी सपा-रालोद ने जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया. गन्ने के समर्थन मूल्य समेत बकाया भुगतान की बात करके विपक्षी दलों ने सत्ताधारी दल के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.

सपा-रालोद ने गन्ना राजनीति शुरू की जो कि पश्चिमी यूपी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. चुनाव के दौरान मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बुलंदशहर के अपने तीन दिवसीय दौरे के दौरान अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने अपने विजय रथ पर गन्ना का एक बंडल रखा था. गन्ने के इस बंडल को बस की छत पर लाकर दोनों नेता लोगों का अभिवादन कर रहे थे. संदेश स्पष्ट था कि गठबंधन किसानों के मौलिक वित्तीय हितों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध है. जयंत चौधरी ने शामली में कहा, 'गठबंधन को जिन्ना की नहीं बल्कि गन्ना की चिंता है. माहौल को सांप्रदायिक बनाने के लिए भाजपा बार-बार जिन्ना का मुद्दा उठाकर लोगों को उकसाना चाहती है'.

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राकेश टिकैत ने कैराना और मुजफ्फरनगर मॉडल को बताया था 'पुराना'

इस दौरान बीकेयू नेता राकेश टिकैत ने किसानों के मुद्दे को नए सिरे से उठाने की बात कही. टिकैत ने कहा कि कैराना और मुजफ्फरनगर मॉडल पुराना हो चुका है. इस चुनाव में काम नहीं करेगा. एक सभा में उन्होंने कहा, 'अगर बीजेपी सचिन और गौरव के परिवार (उनकी हत्या ने 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे को भड़काया था) के बारे में चिंतित है तो भाजपा को उसके परिवार के सदस्यों को एमपी या एमएलसी बनाना चाहिए. ऐसा करने के बाद ही उन्हें सचिन और गौरव के बारे में बात करनी चाहिए'.

PM मोदी ने माफी मांगते हुए किया था कृषि कानूनों की वापसी का एलान

पीएम मोदी ने कहा था, ‘साथियों, मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी जिसके कारण मैं कुछ किसानों को समझा नहीं पाया. मैं आंदोलनकारी किसानों से घर लौटने का आग्रह करता हूं और तीनों कानून वापस लेता हूं. इस महीने के अंत में संसद सत्र शुरू होने जा रहा है उसमें कानूनों को वापस लिया जाएगा.’ गौरतलब है कि तीनों कृषि कानूनों को 17 सितंबर, 2020 को लोकसभा ने मंजूर किया गया था. 27 सिंतबर को राष्ट्रपति ने इस पर दस्तखत किए थे. इसके बाद से ही किसान संगठनों ने कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया था.

जाटलैंड का क्या रहा गणित?

यूपी में जाट समुदाय की आबादी करीब 6-7 फीसदी मानी जाती है. इस समाज का संकेंद्रण वेस्ट यूपी में है. वेस्ट यूपी में जाट समाज की आबादी करीब 17 फीसदी हैं. वेस्ट में दलित, मुस्लिम के बाद तीसरे नंबर पर जाट हैं. जाट पश्चिमी यूपी की 18 लोकसभा सीटों और 120 विधानसभा सीटों पर जीत-हार का अंतर तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. जाटों को साधने की वजह से ही बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की थी.

हर बार की तरह इस बार भी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की शुरुआत पश्चिम से होने जा रही है जहां मतदान 10 और 14 फ़रवरी को होगा. भले ही तीन कृषि क़ानून वापस हो गए हों लेकिन समाजवादी पार्टी ने किसान संगठन के सहयोग से भाजपा को हराने का प्रण लिया है. क्या इसका मतलब यह है कि अधिकतर किसान संगठनों में पूरी तरह से भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल है?

भाजपा ने 2017 के अपने विकास के मॉडल पर ही किया भरोसा

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही किसान आंदोलन, तिकोनिया गांड और गन्ना व अन्न शपथ के मुद्दों को लेकर सपा-रालोद ने हाईटेक प्रचार किया. वहीं, भाजपा नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जेवर एयरपोर्ट से लेकर एक्सप्रेस-वे और विकास के मॉडल का प्रचार करते रहे. साथ ही पार्टी गैर जाटव दलित, गैर यादव ओबीसी को साधती रही. सैनी समाज में पैठ बनाने की सभी रणनीति अपनाती रही.

दूसरी ओर स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान आदि के पार्टी छोड़ने के बाद भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में काफी बदलाव किया. प्रधानमंत्री मोदी का प्रचार अभियान भी रणनीति के तहत देर से शुरू कराया गया. इससे पहले जमीनी स्तर पर माहौल बनाने की कोशिश हुई. भाजपा पहले, दूसरे और तीसरे चरण के अपने करीब 42 फीसदी मतों को सुनिश्चित करने की कोशिश में लगी रही. हालांकि भाजपा की राह में सबसे बड़ी बाधा किसान ही हैं. पार्टी उन्हें मनाने में लगी रही.

पहले चरण में यहां हुए चुनाव

पहले चरण में शामली, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, हापुड़, गौतमबुद्धनगर, गाजियाबाद, बुलंदशहर, मथुरा, आगरा और अलीगढ़ 58 सीटों पर चुनाव हुए.

दूसरे चरण में यहां हुए चुनाव

दूसरे चरण में सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, अमरोहा, बदायूं, बरेली और शाहजहांपुर में 55 सीटों पर चुनाव हुए.

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