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लखनऊ: रेटिनोब्लास्टोमा कैंसर से पीड़ित बच्चों पर बढ़ रहा कोरोना संक्रमण का खतरा

बच्चों में आंखों का कैंसर तेजी से बढ़ रहा एक गंभीर रोग है. इसे रेटिनोब्लास्टोमा कहा जाता है. वहीं कोरोना के इस घड़ी में इलाज न हो पाने से इसके मरीजों के संक्रमण का खतरा भी अधिक बढ़ गया है.

रेटिनोब्लास्टोमा से पीड़ित बच्चों पर कोरोना का खतरा
रेटिनोब्लास्टोमा से पीड़ित बच्चों पर कोरोना का खतरा
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Published : Jun 26, 2020, 12:36 PM IST

लखनऊ: कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन में सामान्य तौर पर चलने वाली सभी ओपीडी और इलेक्ट्रिक सर्जरी को बंद कर दिया गया था. लेकिन इसकी वजह से बच्चों की आंखों में होने वाला कैंसर रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को अब दोगुनी मार झेलनी पड़ सकती है. लॉकडाउन की वजह से बच्चों के इलाज में तो रुकावट आई ही है, इसके साथ ही जिन बच्चों के इलाज की प्रक्रिया चल रही हैं, उन पर संक्रमण का खतरा भी मंडरा रहा है.

रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों पर बढ़ रहा कोरोना का खतरा
रेटिनोब्लास्टोमा आंखों का कैंसर होता है. जो सामान्यता 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में ही पाया जाता है. पूरे देश में कुछ चुनिंदा जगहों पर ही इस कैंसर का इलाज किया जाता है. जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है. यूपी के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, चिकित्सा विज्ञान संस्थान- बीएचयू और संजय गांधी पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस बच्चों का इलाज किया जाता है.

रेटिनोब्लास्टोमा के लक्षण शुरू में पहचानना मुश्किल
राजधानी लखनऊ में नेत्र रोग विभाग केजीएमयू में प्रोफेसर व डॉ. संजीव गुप्ता बताते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा एक ऐसी बीमारी होती है जिसके लक्षण को शुरुआती दौर में पहचानना बेहद मुश्किल होता है. यह आंखों में पाया जाने वाला कैंसर है. जो आंख के अंदर से शुरू होता है. इसलिए शुरुआत में इसकी कोई लक्षण नहीं दिखते. साथ ही इसका इलाज हर अस्पताल और हर क्लीनिक पर नहीं किया जा सकता. डॉक्टर ने बताया कि यह 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में ही बीमारी होती है. ऐसे में बच्चे भी जल्दी अपनी परेशानी को बयान नहीं कर पाते.

लॉकडाउन में क्या रहा हाल

डॉ. संजीव ने बताया कि कोविड-19 के संक्रमण की वजह से सभी ओपीडी बंद हो गई थी. लोग भी एक जगह से दूसरी जगह पर जा पाने में सक्षम नहीं थे. ऐसे में इन बच्चों की बीमारी का इलाज समय पर हो पाना मुमकिन नहीं था. केजीएमयू में प्रदेश भर के अलग-अलग हिस्सों से इस बीमारी से ग्रसित बच्चे इलाज के लिए आते हैं. जो लगभग 3 महीनों से आ पाने में सक्षम नहीं रहे हैं. इसके अलावा ओपीडी न होने से मरीज और अभिभावक अपनी बात डॉक्टरों से नहीं कह पा रहे हैं. इस बीमारी की सबसे नकारात्मक बात यह है कि वक्त के बढ़ने के साथ ही इस बीमारी के लक्षण और स्तर दोनों ही बढ़ जाते हैं.

जेनेटिक वेरिएंट के रूप में बच्चे में विकसित होता है
हैदराबाद स्थित नेशनल रेटिनोब्लास्टोमा फाउंडेशन और सेंटर फॉर साइट की मेडिकल सर्विसेज के डायरेक्टर डॉक्टर संतोष होनावर बताते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा आमतौर पर 6 साल से कम उम्र के बच्चों में होता है. लेकिन कुछ अपवादों में यह बड़े बच्चों में भी हो सकता है. डॉक्टर संतोष कहते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा मुख्य रूप से एक आनुवंशिक बीमारी है. माता-पिता में से किसी एक के जीन में यदि या बीमारी हो या फिर गर्भावस्था धारण करते समय जाइगोट में कुछ बदलाव होने से भी यह बीमारी जेनेटिक वेरिएंट के रूप में बच्चे में विकसित हो सकती है.

क्या है आंकड़े
डॉक्टर संतोष होनावर ने बताया कि रेटिनोब्लास्टोमा विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 5000 बच्चों में होता है. इनमें से लगभग 1800 बच्चे भारत के होते हैं. डाक्टर संतोष ने बताया कि वर्ष 2019 में 40 नए रेटिनोब्लास्टोमा के मरीज आए थे. इसके अलावा लगभग 150 ऐसे मरीज थे जो फॉलोअप में आ रहे हैं. डॉक्टर संतोष कहते हैं कि इस बीमारी का इलाज यदि एक प्रोटोकॉल पर आधारित एक तरीके से किया जाए तो यह रोग बहुत ही कम होता है. 98 प्रतिशत तक मरीज की जान को बचाया जा सकता है. हालांकि डॉ. संतोष कहते हैं कि अब तक हमारे पास 70 प्रतिशत ऐसे रोगी आते हैं जो एडवांस स्टेज पर पहुंच चुके होते हैं. इन बच्चों की आंख हमें निकालनी पड़ती है.

कोविड-19 का प्रभाव मरीजों पर
देश में तेजी से पांव पसार रहा कोविड-19 का संक्रमण आंखों पर भी हमला करता है. डॉ. संतोष ने बताया कि कोरोना वायरस का संक्रमण सीधे रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को प्रभावित नहीं करता. हालांकि जो बच्चे कीमोथेरेपी करवा रहे हैं, उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है. ऐसे में उनमें संक्रमण होने की आशंका हो सकती है. इसलिए सामान्य तौर पर ऐसे बच्चों को बेहद ख्याल रखने की जरूरत है.

कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन में राजधानी लखनऊ में सभी तरह की इलेक्टिव सर्जरी बंद रही. रूटीन ओपीडी न होने की वजह से तमाम मरीजों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा. डॉक्टरों का कहना है कि यदि रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को यदि समय पर इलाज न मिले, तो बच्चे अपनी जान भी गवां सकते हैं. इसके अलावा ऐसे बच्चों में इम्यूनिटी कम होने की वजह से संक्रमण का खतरा भी काफी अधिक होता है.

लखनऊ: कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन में सामान्य तौर पर चलने वाली सभी ओपीडी और इलेक्ट्रिक सर्जरी को बंद कर दिया गया था. लेकिन इसकी वजह से बच्चों की आंखों में होने वाला कैंसर रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को अब दोगुनी मार झेलनी पड़ सकती है. लॉकडाउन की वजह से बच्चों के इलाज में तो रुकावट आई ही है, इसके साथ ही जिन बच्चों के इलाज की प्रक्रिया चल रही हैं, उन पर संक्रमण का खतरा भी मंडरा रहा है.

रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों पर बढ़ रहा कोरोना का खतरा
रेटिनोब्लास्टोमा आंखों का कैंसर होता है. जो सामान्यता 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में ही पाया जाता है. पूरे देश में कुछ चुनिंदा जगहों पर ही इस कैंसर का इलाज किया जाता है. जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है. यूपी के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, चिकित्सा विज्ञान संस्थान- बीएचयू और संजय गांधी पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस बच्चों का इलाज किया जाता है.

रेटिनोब्लास्टोमा के लक्षण शुरू में पहचानना मुश्किल
राजधानी लखनऊ में नेत्र रोग विभाग केजीएमयू में प्रोफेसर व डॉ. संजीव गुप्ता बताते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा एक ऐसी बीमारी होती है जिसके लक्षण को शुरुआती दौर में पहचानना बेहद मुश्किल होता है. यह आंखों में पाया जाने वाला कैंसर है. जो आंख के अंदर से शुरू होता है. इसलिए शुरुआत में इसकी कोई लक्षण नहीं दिखते. साथ ही इसका इलाज हर अस्पताल और हर क्लीनिक पर नहीं किया जा सकता. डॉक्टर ने बताया कि यह 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में ही बीमारी होती है. ऐसे में बच्चे भी जल्दी अपनी परेशानी को बयान नहीं कर पाते.

लॉकडाउन में क्या रहा हाल

डॉ. संजीव ने बताया कि कोविड-19 के संक्रमण की वजह से सभी ओपीडी बंद हो गई थी. लोग भी एक जगह से दूसरी जगह पर जा पाने में सक्षम नहीं थे. ऐसे में इन बच्चों की बीमारी का इलाज समय पर हो पाना मुमकिन नहीं था. केजीएमयू में प्रदेश भर के अलग-अलग हिस्सों से इस बीमारी से ग्रसित बच्चे इलाज के लिए आते हैं. जो लगभग 3 महीनों से आ पाने में सक्षम नहीं रहे हैं. इसके अलावा ओपीडी न होने से मरीज और अभिभावक अपनी बात डॉक्टरों से नहीं कह पा रहे हैं. इस बीमारी की सबसे नकारात्मक बात यह है कि वक्त के बढ़ने के साथ ही इस बीमारी के लक्षण और स्तर दोनों ही बढ़ जाते हैं.

जेनेटिक वेरिएंट के रूप में बच्चे में विकसित होता है
हैदराबाद स्थित नेशनल रेटिनोब्लास्टोमा फाउंडेशन और सेंटर फॉर साइट की मेडिकल सर्विसेज के डायरेक्टर डॉक्टर संतोष होनावर बताते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा आमतौर पर 6 साल से कम उम्र के बच्चों में होता है. लेकिन कुछ अपवादों में यह बड़े बच्चों में भी हो सकता है. डॉक्टर संतोष कहते हैं कि रेटिनोब्लास्टोमा मुख्य रूप से एक आनुवंशिक बीमारी है. माता-पिता में से किसी एक के जीन में यदि या बीमारी हो या फिर गर्भावस्था धारण करते समय जाइगोट में कुछ बदलाव होने से भी यह बीमारी जेनेटिक वेरिएंट के रूप में बच्चे में विकसित हो सकती है.

क्या है आंकड़े
डॉक्टर संतोष होनावर ने बताया कि रेटिनोब्लास्टोमा विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 5000 बच्चों में होता है. इनमें से लगभग 1800 बच्चे भारत के होते हैं. डाक्टर संतोष ने बताया कि वर्ष 2019 में 40 नए रेटिनोब्लास्टोमा के मरीज आए थे. इसके अलावा लगभग 150 ऐसे मरीज थे जो फॉलोअप में आ रहे हैं. डॉक्टर संतोष कहते हैं कि इस बीमारी का इलाज यदि एक प्रोटोकॉल पर आधारित एक तरीके से किया जाए तो यह रोग बहुत ही कम होता है. 98 प्रतिशत तक मरीज की जान को बचाया जा सकता है. हालांकि डॉ. संतोष कहते हैं कि अब तक हमारे पास 70 प्रतिशत ऐसे रोगी आते हैं जो एडवांस स्टेज पर पहुंच चुके होते हैं. इन बच्चों की आंख हमें निकालनी पड़ती है.

कोविड-19 का प्रभाव मरीजों पर
देश में तेजी से पांव पसार रहा कोविड-19 का संक्रमण आंखों पर भी हमला करता है. डॉ. संतोष ने बताया कि कोरोना वायरस का संक्रमण सीधे रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को प्रभावित नहीं करता. हालांकि जो बच्चे कीमोथेरेपी करवा रहे हैं, उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है. ऐसे में उनमें संक्रमण होने की आशंका हो सकती है. इसलिए सामान्य तौर पर ऐसे बच्चों को बेहद ख्याल रखने की जरूरत है.

कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन में राजधानी लखनऊ में सभी तरह की इलेक्टिव सर्जरी बंद रही. रूटीन ओपीडी न होने की वजह से तमाम मरीजों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा. डॉक्टरों का कहना है कि यदि रेटिनोब्लास्टोमा के मरीजों को यदि समय पर इलाज न मिले, तो बच्चे अपनी जान भी गवां सकते हैं. इसके अलावा ऐसे बच्चों में इम्यूनिटी कम होने की वजह से संक्रमण का खतरा भी काफी अधिक होता है.

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