लखनऊ : अपने तीखे बयानों के लिए अलग पहचान रखने वाले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के लिए पिछले कुछ दिनों में स्थितियां असहज हो रही हैं. समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाले राजभर को जल्द ही समझ में आ गया कि अखिलेश यादव के साथ उनकी ज्यादा दिन निभ नहीं पाएगी. ऐसे में नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने अलग राह पकड़ ली. उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा और सपा ही दो बड़े दल शेष बचे हैं. ऐसे में मजबूरन राजभर को दोबारा भाजपा गठबंधन में लौटना पड़ा. मंत्री बनने के उम्मीद में उन्होंने कई बार खुद ही तारीखों खो घोषणा कर दी, लेकिन उनकी मुराद पूरी नहीं हो सकी है. अब उनके सामने कोई रास्ता भी नहीं बता है. यही कारण है कि सुभासपा असहज स्थिति में है.
27 अक्टूबर 2002 को सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) का गठन करने से पहले बहुजन समाज पार्टी में सक्रिय रहे राजभर ने राजनीतिक संघर्ष का लंबा रास्ता देखा है. पार्टी गठन के बाद 15 साल बाद पहली बार उन्होंने सफलता का मुंह तब देखा, जब उन्हें भाजपा गठबंधन का साथ मिला. भाजपा के प्रचंड बहुमत में सहयोगी दल सुभासपा को चार सीटों पर सफलता मिली. ओम प्रकाश राजभर भी पहली बार जहूराबाद सीट से चुनकर विधानसभा पहुंचे. उन्हें पहली ही बार में योगी आदित्यनाथ की सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद मिला. मंत्री पद मिलने के बाद ओम प्रकाश राजभर ने भाजपा के साथ दबाव की राजनीति शुरू कर दी. वह किसी न किसी रूप में अपने बेटों का समायोजन चाहते थे. दबाव बनाने के लिए राजभर ने सार्वजनिक रूप से भाजपा विरोधी बयान देने शुरू कर दिए. इस पर भी भाजपा नहीं मानी तो 20 मई 2019 को ओम प्रकाश राजभर ने योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. राजभर को लगता था कि वह लोकसभा चुनाव में भाजपा का नुकसान कर अपनी अहमियत याद दिलाएंगे, लेकिन यह भी हो नहीं पाया.
2022 के विधानसभा चुनावों में ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी सपा और राष्ट्रीय लोक दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. इस चुनाव में सुभासपा के छह नेता जीतने में कामयाब रहे. हालांकि इनमें कुछ ऐसे प्रत्याशी थे, जिनमें सिंबल तो सुभासपा का था, किंतु वह नेता सपा के थे. ऐसे में उनकी पार्टी से जीतकर आए एक-दो नेता खुलकर सपा के पक्ष में दिखाई देने लगे. वहीं ओम प्रकाश राजभर का वह गणित भी गड़बड़ा गया कि सपा सत्ता में आएगी. राजभर ने अखिलेश से अपने बेटे के लिए विधान परिषद के लिए सीट मांगी, लेकिन अखिलेश इस पर राजी नहीं हुए. स्वाभाविक है कि ओम प्रकाश राजभर तीन साल बाद भी वहीं खड़े थे, जहां उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा था. न उनका कद बढ़ा था और न ही उनके बेटों का कहीं भी समायोजन हो पाया था. चुनाव के कुछ माह बाद राजभर ने फिर भाजपा गठबंधन का आसरा लिया. उन्हें आश्वासन मिला था कि जल्दी ही मंत्री बनाए जाएंगे. हालांकि तमाम तारीखें गिनाने के बाद खुद राजभर मंत्री बन नहीं पाए हैं.
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. प्रदीप यादव कहते हैं कि ओम प्रकाश राजभर जिस किसी के साथ रहे, थोड़े दिन बाद उसी की सार्वजनिक तौर पर आलोचना करने लगे. वह सबको चुनौती देते हैं कि आने वाले चुनावों में हैसियत याद दिला देंगे. हालांकि असलियत यह है कि अकेले राजभर की पार्टी कुछ भी नहीं कर सकती. उसका वजूद बड़े दलों के वजूद पर टिका हुआ है. फिर चाहें वह सपा हो या भाजपा. राजभर पहले 15 साल अकेले संघर्ष कर चुके हैं, लेकिन उन्हें हासिल कुछ भी नहीं हुआ. भाजपा भी जानती है कि अब राजभर के पास ज्यादा मौके नहीं हैं. इसलिए सत्तारूढ़ दल भाजपा उन्हें जो भी देगी अपनी अहमियत का पूरा एहसास कराने के बाद ही देगी. यही नहीं सुभासपा को लोकसभा चुनावों में भी अपनी अहमियत साबित करनी होगी, तभी भाजपा के साथ उनका लंबा साथ चल पाएगा. यह बात भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें बता भी दी है. इसलिए ओम प्रकाश राजभर के लिए अब आगे का रास्ता काफी चुनौतियों भरा है.
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