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निकाय चुनावों में निराश करने वाली बसपा और कांग्रेस क्या लोकसभा चुनाव में दिखा पाएंगी करिश्मा?

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Published : May 16, 2023, 10:21 AM IST

Updated : May 16, 2023, 1:57 PM IST

उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव 2023 पूरे हो चुके हैं. चुनाव परिणाम भी आ चुके हैं. इस चुनाव में भाजपा ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 17 नगर निकायों पर कब्जा कर लिया है. निकाय चुनावों के बाद क्या अब बसपा और कांग्रेस लोकसभा चुनाव में करिश्मा दिखा पाएंगे? पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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लखनऊ : उत्तर प्रदेश की सत्ता पर दशकों तक काबिज रही कांग्रेस पार्टी और मायावती को चार बार मुख्यमंत्री बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी निकाय चुनाव में हाशिए पर सिमट गई है. पिछले कुछ वर्षों से इन दोनों ही पार्टियों की स्थिति लगातार कमजोर हुई है. 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में इन दोनों ही दलों का सबसे खराब प्रदर्शन रहा. कांग्रेस पार्टी से जहां सिर्फ दो विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे, तो वहीं बहुजन समाज पार्टी का सिर्फ एक नेता विधायक बनने में कामयाब हुआ. कांग्रेस के जो दोनों नेता विधानसभा पहुंचे हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि उनका अपने क्षेत्रों में विशेष प्रभाव है. इसलिए सिंबल का कोई विशेष मतलब इनके लिए नहीं है. हाल में हुए निकाय चुनाव को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. इन चुनाव नतीजों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस और बसपा 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई खास बदलाव ला पाएंगे. दोनों ही दोनों ही दलों की अपनी-अपनी कमजोरियां हैं, जिन पर अब तक पार्टी आलाकमान ध्यान देने में असफल रहा है, यही कारण है कि मतदाताओं में भी इन दोनों को देखकर खास रुचि दिखाई नहीं दे रही है.


भाजपा
भाजपा

बात यदि निकाय चुनाव परिणामों की करें, तो राज्य निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है, जिसे जनता का भरपूर प्यार मिला है. समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर है जरूर, लेकिन भाजपा और सपा में लंबा फासला है. कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी की स्थिति पिछले निकाय चुनाव से भी काफी कमजोर हुई है. 2017 के निकाय चुनावों में सपा और कांग्रेस पार्टी मेयर पद पर अपने किसी प्रत्याशी को जिता पाने में कामयाब नहीं हुई थी, बहुजन समाज पार्टी मेरठ और अलीगढ़ में दो नगर निगम सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. इस चुनाव में भाजपा ने एकतरफा जीत हासिल की और सभी 17 नगर निगमों में भाजपा के ही मेयर चुनकर आए हैं. इन 17 नगर निगमों में कुल 1420 पार्षदों में 813 भाजपा, 119 सपा, 85 बसपा और 77 पर कांग्रेस जीतने में कामयाब हुई है. इसी प्रकार ‌199 नगर पालिका परिषद अध्यक्ष पदों में 88 पर भाजपा, 35 पर सपा, 15 पर बसपा और 04 पर कांग्रेस की जीत हुई है. 5327 नगर पालिका परिषद सदस्यों में 1341 पर भाजपा, 421 पर सपा, 189 पर बसपा और 91 पर कांग्रेस की जीत हुई है. 544 नगर पंचायत अध्यक्ष पदों में 191 पर भाजपा, 78 पर सपा, 37 पर बसपा और 14 पर कांग्रेस जीती है, वहीं 7177 नगर पंचायत सदस्यों में 1401 पर भाजपा, 485 पर सपा, 214 पर बसपा और 77 पर कांग्रेस की जीत हुई है.

समाजवादी पार्टी
समाजवादी पार्टी

आंकड़े बताते हैं कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और अन्य जिलों में हार जीत का फैसला बहुत बड़ा है. यदि बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो बसपा प्रमुख मायावती अब चुनाव में भी जनता के बीच बहुत कम दिखाई देती हैं. आम दिनों की तो बात ही क्या? 2007 में जब बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी तब माना जा रहा था दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम गठजोड़ का मायावती का प्रयोग सफल रहा था. इस चुनाव में मायावती ने मुस्लिम-दलित गठजोड़ के समीकरण पर काम किया, यह प्रयोग असफल रहा. 2014 के बाद से दलित मतदाताओं का रुझान भाजपा की ओर हुआ है. केंद्र और राज्य सरकारों ने गरीब और दलितों के लिए कई ऐसी योजनाएं भी हैं, जिससे इस समुदाय में भाजपा की पैठ लगातार बढ़ी है, वहीं बसपा का संगठन धीरे-धीरे कमजोर हुआ है. बसपा का अब पुराना काडर दिखाई नहीं दे रहा. मायावती भी चुनावों में बहुत कम बाहर निकलती हैं. उनका जनता से सरोकार विज्ञप्ति और ट्विटर के माध्यम से ही होता है. स्वाभाविक है कि अपने नेता से मतदाता को बड़ी अपेक्षाएं होती हैं और कहीं न कहीं बसपा उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रही. आज की स्थिति में नहीं लगता कि बसपा लोकसभा चुनाव में कोई करिश्मा दिखा पाएगी.


ग्राफिक
ग्राफिक

वहीं कांग्रेस पार्टी की अपनी परेशानियां हैं. इस पार्टी में बाहरी से ज्यादा अंदरूनी राजनीति है. संगठन का बूथ स्तर पर कोई वजूद नहीं रह गया है. प्रदेश अध्यक्ष और उनके सहयोगी क्षेत्रीय अध्यक्ष भी अपने क्षेत्रों में पार्टी को जिताने में नाकामयाब रहे. प्रदेश संगठन खुद फैसले लेने के बजाय प्रियंका और राहुल गांधी की सहमति का इंतजार करता है. 2022 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद उत्तर प्रदेश के प्रभारी प्रियंका गांधी ने प्रदेश का एक भी दौरा नहीं किया है. जब शीर्ष नेतृत्व में इतनी उदासीनता होगी तो आप समझ सकते हैं कि निचले स्तर पर पार्टी की क्या स्थिति होगी. पार्टी की ऐसी ही नीतियों के कारण राहुल गांधी अपना अमेठी का गढ़ नहीं बचा पाए और उन्हें भाजपा की स्मृति ईरानी से पराजय का सामना करना पड़ा. सभी विपक्षी पार्टियां और कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ गठबंधन तो तैयार करना चाहते हैं, केंद्र की सत्ता पर भी काबिज होना चाहते हैं, लेकिन जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में ही स्थिति बुरी है, तो भला उनका यह सपना कैसे पूरा होगा. कर्नाटक में पार्टी की जीत से कांग्रेस उत्साहित जरूर है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ हासिल करने के लिए पार्टी को अथक परिश्रम करना होगा, जिसके लिए प्रदेश और राष्ट्रीय संगठन अभी तक तैयार दिखाई नहीं देता.



कांग्रेस
कांग्रेस
बसपा
बसपा

इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषण डॉक्टर प्रदीप यादव कहते हैं कि 'बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की हाल में जो स्थिति है, उससे नहीं लगता कि दोनों ही पार्टियां लोकसभा चुनावों में कोई चमत्कार दिखा पाएंगी. आज की स्थिति में मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होता दिखाई दे रहा है, वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव राजनीतिक मुद्दों को छोड़कर ऐसे विवादों और बयानों में पाए जाते हैं, जिससे उन्हें और पार्टी को बचना चाहिए. ऐसे मुद्दों से उन्हें फायदा तो कम, लेकिन नुकसान ज्यादा होता है. मायावती में अब पहले वाली बात नहीं रही. जनता के बीच जाकर संघर्ष करना, उन्हें अपनी नीतियों के बारे में बताना शायद अब मायावती जी के लिए कठिन है. ऐसी स्थिति में बसपा में कोई चमत्कारी बदलाव दिखाई नहीं देता. कांग्रेस पार्टी भी अंदरूनी झगड़ों से उबरता और शीर्ष नेतृत्व की वरीयता में दिखाई नहीं देता. ऐन चुनाव के मौके पर जनता के बीच आकर आप बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर सकते. इसलिए कांग्रेस की स्थिति में भी बड़ा बदलाव होता दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि अभी लोकसभा चुनावों तक तमाम समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे. ऐसी स्थिति में क्या होता है यह अभी से कहना कठिन है.'

यह भी पढ़ें : हाईकोर्ट के जज की टिप्पणी, अदालत से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सरकार के मुखपत्र की तरह काम करे

लखनऊ : उत्तर प्रदेश की सत्ता पर दशकों तक काबिज रही कांग्रेस पार्टी और मायावती को चार बार मुख्यमंत्री बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी निकाय चुनाव में हाशिए पर सिमट गई है. पिछले कुछ वर्षों से इन दोनों ही पार्टियों की स्थिति लगातार कमजोर हुई है. 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में इन दोनों ही दलों का सबसे खराब प्रदर्शन रहा. कांग्रेस पार्टी से जहां सिर्फ दो विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे, तो वहीं बहुजन समाज पार्टी का सिर्फ एक नेता विधायक बनने में कामयाब हुआ. कांग्रेस के जो दोनों नेता विधानसभा पहुंचे हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि उनका अपने क्षेत्रों में विशेष प्रभाव है. इसलिए सिंबल का कोई विशेष मतलब इनके लिए नहीं है. हाल में हुए निकाय चुनाव को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. इन चुनाव नतीजों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस और बसपा 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई खास बदलाव ला पाएंगे. दोनों ही दोनों ही दलों की अपनी-अपनी कमजोरियां हैं, जिन पर अब तक पार्टी आलाकमान ध्यान देने में असफल रहा है, यही कारण है कि मतदाताओं में भी इन दोनों को देखकर खास रुचि दिखाई नहीं दे रही है.


भाजपा
भाजपा

बात यदि निकाय चुनाव परिणामों की करें, तो राज्य निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है, जिसे जनता का भरपूर प्यार मिला है. समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर है जरूर, लेकिन भाजपा और सपा में लंबा फासला है. कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी की स्थिति पिछले निकाय चुनाव से भी काफी कमजोर हुई है. 2017 के निकाय चुनावों में सपा और कांग्रेस पार्टी मेयर पद पर अपने किसी प्रत्याशी को जिता पाने में कामयाब नहीं हुई थी, बहुजन समाज पार्टी मेरठ और अलीगढ़ में दो नगर निगम सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. इस चुनाव में भाजपा ने एकतरफा जीत हासिल की और सभी 17 नगर निगमों में भाजपा के ही मेयर चुनकर आए हैं. इन 17 नगर निगमों में कुल 1420 पार्षदों में 813 भाजपा, 119 सपा, 85 बसपा और 77 पर कांग्रेस जीतने में कामयाब हुई है. इसी प्रकार ‌199 नगर पालिका परिषद अध्यक्ष पदों में 88 पर भाजपा, 35 पर सपा, 15 पर बसपा और 04 पर कांग्रेस की जीत हुई है. 5327 नगर पालिका परिषद सदस्यों में 1341 पर भाजपा, 421 पर सपा, 189 पर बसपा और 91 पर कांग्रेस की जीत हुई है. 544 नगर पंचायत अध्यक्ष पदों में 191 पर भाजपा, 78 पर सपा, 37 पर बसपा और 14 पर कांग्रेस जीती है, वहीं 7177 नगर पंचायत सदस्यों में 1401 पर भाजपा, 485 पर सपा, 214 पर बसपा और 77 पर कांग्रेस की जीत हुई है.

समाजवादी पार्टी
समाजवादी पार्टी

आंकड़े बताते हैं कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और अन्य जिलों में हार जीत का फैसला बहुत बड़ा है. यदि बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो बसपा प्रमुख मायावती अब चुनाव में भी जनता के बीच बहुत कम दिखाई देती हैं. आम दिनों की तो बात ही क्या? 2007 में जब बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी तब माना जा रहा था दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम गठजोड़ का मायावती का प्रयोग सफल रहा था. इस चुनाव में मायावती ने मुस्लिम-दलित गठजोड़ के समीकरण पर काम किया, यह प्रयोग असफल रहा. 2014 के बाद से दलित मतदाताओं का रुझान भाजपा की ओर हुआ है. केंद्र और राज्य सरकारों ने गरीब और दलितों के लिए कई ऐसी योजनाएं भी हैं, जिससे इस समुदाय में भाजपा की पैठ लगातार बढ़ी है, वहीं बसपा का संगठन धीरे-धीरे कमजोर हुआ है. बसपा का अब पुराना काडर दिखाई नहीं दे रहा. मायावती भी चुनावों में बहुत कम बाहर निकलती हैं. उनका जनता से सरोकार विज्ञप्ति और ट्विटर के माध्यम से ही होता है. स्वाभाविक है कि अपने नेता से मतदाता को बड़ी अपेक्षाएं होती हैं और कहीं न कहीं बसपा उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रही. आज की स्थिति में नहीं लगता कि बसपा लोकसभा चुनाव में कोई करिश्मा दिखा पाएगी.


ग्राफिक
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वहीं कांग्रेस पार्टी की अपनी परेशानियां हैं. इस पार्टी में बाहरी से ज्यादा अंदरूनी राजनीति है. संगठन का बूथ स्तर पर कोई वजूद नहीं रह गया है. प्रदेश अध्यक्ष और उनके सहयोगी क्षेत्रीय अध्यक्ष भी अपने क्षेत्रों में पार्टी को जिताने में नाकामयाब रहे. प्रदेश संगठन खुद फैसले लेने के बजाय प्रियंका और राहुल गांधी की सहमति का इंतजार करता है. 2022 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद उत्तर प्रदेश के प्रभारी प्रियंका गांधी ने प्रदेश का एक भी दौरा नहीं किया है. जब शीर्ष नेतृत्व में इतनी उदासीनता होगी तो आप समझ सकते हैं कि निचले स्तर पर पार्टी की क्या स्थिति होगी. पार्टी की ऐसी ही नीतियों के कारण राहुल गांधी अपना अमेठी का गढ़ नहीं बचा पाए और उन्हें भाजपा की स्मृति ईरानी से पराजय का सामना करना पड़ा. सभी विपक्षी पार्टियां और कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ गठबंधन तो तैयार करना चाहते हैं, केंद्र की सत्ता पर भी काबिज होना चाहते हैं, लेकिन जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में ही स्थिति बुरी है, तो भला उनका यह सपना कैसे पूरा होगा. कर्नाटक में पार्टी की जीत से कांग्रेस उत्साहित जरूर है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ हासिल करने के लिए पार्टी को अथक परिश्रम करना होगा, जिसके लिए प्रदेश और राष्ट्रीय संगठन अभी तक तैयार दिखाई नहीं देता.



कांग्रेस
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बसपा
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इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषण डॉक्टर प्रदीप यादव कहते हैं कि 'बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की हाल में जो स्थिति है, उससे नहीं लगता कि दोनों ही पार्टियां लोकसभा चुनावों में कोई चमत्कार दिखा पाएंगी. आज की स्थिति में मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होता दिखाई दे रहा है, वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव राजनीतिक मुद्दों को छोड़कर ऐसे विवादों और बयानों में पाए जाते हैं, जिससे उन्हें और पार्टी को बचना चाहिए. ऐसे मुद्दों से उन्हें फायदा तो कम, लेकिन नुकसान ज्यादा होता है. मायावती में अब पहले वाली बात नहीं रही. जनता के बीच जाकर संघर्ष करना, उन्हें अपनी नीतियों के बारे में बताना शायद अब मायावती जी के लिए कठिन है. ऐसी स्थिति में बसपा में कोई चमत्कारी बदलाव दिखाई नहीं देता. कांग्रेस पार्टी भी अंदरूनी झगड़ों से उबरता और शीर्ष नेतृत्व की वरीयता में दिखाई नहीं देता. ऐन चुनाव के मौके पर जनता के बीच आकर आप बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर सकते. इसलिए कांग्रेस की स्थिति में भी बड़ा बदलाव होता दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि अभी लोकसभा चुनावों तक तमाम समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे. ऐसी स्थिति में क्या होता है यह अभी से कहना कठिन है.'

यह भी पढ़ें : हाईकोर्ट के जज की टिप्पणी, अदालत से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सरकार के मुखपत्र की तरह काम करे

Last Updated : May 16, 2023, 1:57 PM IST
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