लखनऊ : ब्रिटिश हुकूमत के समय 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी कांड से पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गई थी. काकोरी ट्रेन एक्शन से जुड़े क्रांतिकारियों की तलाश में ब्रिटिश सरकार ने पूरे देश भर में छापे मारे थे और बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों को पकड़ कर जेल भेज दिया था. क्रांतिकारियों को सजा सुनाने के लिए देशभर में कई अस्थाई अदालतों का निर्माण किया गया था. इनमें से एक अदालत का निर्माण लखनऊ के जीपीओ बिल्डिंग का भी किया गया था.
लखनऊ विश्वविद्यालय के मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. मनीषा के अनुसार पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी जीवनी में लिखा है कि इस केस की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपनी फाइनेंसियल कंडीशन का हवाला देते हुए अपने बचाव में वकील नहीं रख पाने की बात तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत से कही थी. इसके बाद उन्हें सरकार की तरफ से पंडित जगत नारायण मिश्रा और हर करण मिश्रा ने उनके तरफ से यह मुकदमा लड़ा था. हालांकि बिस्मिल मोहनलाल सक्सेना को अपना वकील चाह रहे थे, पर सरकार ने उन्हें अपने फेवर रखने वाले वकील को यह मुकदमा सौंप दिया. पंडित बिस्मिल अपनी जीवन कथा में इस बात को मानते हैं कि उन्होंने सरकार से बचाव के लिए वकील की मांग करके सबसे बड़ी गलती कर दी. हालांकि कि कई और सूत्रों का कहना है कि क्रांतिकारियों की तरफ से गोविंद वल्लभ पंत, चंद्रभानु गुप्त और केसी हजेला ने उनके मुकदमे में काफी मदद की थी.
जीपीओ मे बने कोर्ट के सजा मिलने के बाद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान को फैजाबाद जेल व राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को नैनी और ठाकुर रोशन सिंह को गोंडा जेल भेजा गया था. फांसी की सजा पाने वाले चारों क्रांतिकारी में से पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह शाहजहांपुर के थे. राजेंद्र लाहड़ी अविभाजित भारत के बांग्लादेश के पावना जिले के रहने वाले थे. काकोरी में सरकारी खजाना लूटने की योजना को अमल में लाने के लिए बनी टीम में राजेंद्र लाहिड़ी को भी शामिल किया गया था. पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पूरी टीम ने जो एक्शन लिया उसे ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी थी. ब्रिटिश हुकूमत को लगा कि मौत की सजा से क्रांति की ज्वाला पूरी तरह से बुझ जाएगी, लेकिन आजादी के इन परवानों ने जेल में रहते हुए जेल अधिकारियों के सामने जिस हिम्मत से मौत को गले लगाया उससे जेल अधिकारी भी सन्न रह गए.