हैदराबाद: आगामी यूपी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) को लेकर अभी तक जितने भी सर्वे और ओपिनियन पोल (survey and opinion poll) सामने आए हैं, उसमें मुख्य तौर पर मुकाबला भाजपा बनाम सपा (BJP vs SP contest) ही दर्शाया गया है. इसके साथ ही इस बात की भी आशंका जताई गई है कि जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आते जाएगी, वैसे-वैसे समाजवादी पार्टी अपने लय में होगी और इस बीच तेजी से उसकी मतदाताओं तक पहुंच बढ़ेगी. वहीं, भाजपा को सूबे में मात देने को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अबकी कई बदलाव किए हैं, जो पार्टी के पुराने निर्धारित स्टैंड्स से एकदम अलग हैं. साथ ही अगर अखिलेश के दांव कारगर साबित हुए तो फिर ओपिनियन पोल और असल परिणाम में बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है.
खैर, अबकी यूपी विधानसभा चुनाव में सभी बड़ी पार्टियों की नजर ओबीसी मतदाताओं पर टिकी है, क्योंकि, सूबे में इनकी आबादी करीब 55 फीसद के आसपास है. साथ ही यह भी सर्व विदित है कि देश के सबसे बड़े प्रदेश की सत्ता के लिए ओबीसी मतदाता सभी सियासी पार्टियों के लिए अहम हैं. ऐसे में जो भी इन्हें साधने में कामयाब होगा सूबे में उसी की सत्ता होगी. पर ओबीसी में भी एक वर्ग एमबीसी (Focus on MBC not OBC) यानी अति पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में आता है और पिछले कुछ चुनावों में इस वर्ग के मतदाता चुनावी दिशा मोड़ने में सफल रहे हैं.
यही कारण कि इन वोटों की गोलबंदी करने को अखिलेश यादव एंड टीम खूब पसीना बहा रही है. हालांकि, पहले ये वर्ग बसपा के साथ था, लेकिन 2014 के बाद से इनका वोट भाजपा को जा रहा है. वहीं, अखिलेश यादव को भी अब यह बात अच्छे से समझ में आ गई है कि भाजपा के विजय अभियान को रोकने के लिए अति पिछड़ों का समर्थन बेहद जरूरी है.
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साथ ही इन वोटरों को अपनी ओर करने के लिए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया है. पहले जिलाध्यक्षों और महासचिवों के लिए सपा सिर्फ यादव और मुस्लिम चेहरों पर ही यकीन करती थी. लेकिन अब उसने अपनी नीति बदल दी है और अति-पिछड़ों को तरजीह देना शुरू किया है. इतना ही नहीं पार्टी ने प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में इस वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए छोटी-छोटी यात्राएं निकाली हैं और उन्हीं वर्ग के नेताओं को वोटरों के बीच उतारा है.
इसके अलावा तीसरे चरण में पिछले दो दशकों में बनीं छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन किया है, जैसे कि ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी. बात अगर सूबे के आरक्षित विधानसभा सीटों की करें तो समाजवादी पार्टी पहले इन सीटों को अधिक अहमियत नहीं देती थी. वो मुस्लिम-यादव गठबंधन को ही इतना सशक्त समझने का भूल कर बैठी थी कि इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया. पर कहते हैं कि देर आए दुरुस्त आए, यानी अब समाजवादी पार्टी ने इन सीटों को लेकर अपनी निर्धारित स्टैंड में तब्दीली की है.
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यही कारण है कि अब अखिलेश यादव सूबे की ज्यादा से ज्यादा आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज करना चाहते हैं. जिस पर कभी बसपा एकाधिकार मान बैठी थी. हालांकि, मायावती की पार्टी के कमजोर होने के बाद इन सीटों पर भाजपा सबसे ताकतवर पार्टी बनकर उभरी है. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 85 आरक्षित सीटों में से 75 पर जीत हासिल हुई थी. लेकिन हाल ही में अखिलेश यादव ने बसपा के कई नेताओं को सपा से जोड़ा है और वो इन्हें बतौर प्रत्याशी मैदान में उतार इन सीटों को जीतने की कोशिश करेंगे.
वहीं, इन सीटों पर पहले सपा गैर-जाटवों को प्रत्याशी बनाती थी और भाजपा भी इसी नीति को अपना उम्मीदवार देते रही है. इसलिए माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी बसपा से आए उन नेताओं को टिकट देगी, जिनकी जीतने की संभावनाएं अधिक हैं. टिकट वितरण प्रणाली को सरल और सहज बनाने के साथ ही सपा ने अबकी *जीताऊ* चेहरों पर दांव खेलने का मन बनाया है. इसके लिए कई बदलाव भी किए गए हैं.
पार्टी ने तय किया है कि वो उन्हीं लोगों को मैदान में उतारेगी, जिनकी क्षेत्र में लोकप्रियता और विश्वसनीयता अधिक होगी. इसके लिए पार्टी ने कुछ मानदंड भी तय किए हैं. जिसमें प्रत्याशी की लोकप्रियता, जातिगत स्थिति और समर्पण के साथ ही पार्टी के प्रति वफादारी के साथ-साथ सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को लेकर भी पूर्ण निष्ठावान होना होगा.
सपा के सामने कुछ ऐसी चुनौतियां हैं, जो पार्टी की स्थापना के समय से लेकर आज समान स्थिति में है. मसलन, सपा कभी भी कैडर-बेस्ड पार्टी नहीं रही और मुस्लिम-यादव समीकरण के दम पर ही सत्ता में आती रही. मुलायम सिंह यादव के भाई और अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव का स्थानीय स्तर के नेताओं के साथ एक व्यक्तिगत नेटवर्क था, जिसकी अभी अखिलेश के साथ कमी दिख रही है और उनके साथ जो संगठन है, उसकी बुनियाद भी पुरानी पड़ चुकी है. इसके अलावा भाजपा ने पिछले 6-7 सालों में जो हर विधानसभा स्तर पर जातिगत और समुदायों के आधार पर मतदाताओं के जिस सूक्ष्म प्रोफाइल पर काम किया है और आंकड़े जुटाए हैं, उसकी अभी समाजवादी पार्टी के पास कमी है.
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