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कुलपतियों के चयन में राजनीतिक दखल का आरोप - lucknow news

कुछ दशक पहले तक विश्वविद्यालयों के कुलपति के चयन में सरकार उच्च मानकों का पालन करती थीं. इसका नतीजा यह होता था कि कुलपति विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को मजबूत करने के लिए ईमानदारी से काम करने के लिए सम्मानित होते रहे. लेकिन अब राजनीतिक दल जाति, समुदाय, भाई-भतीजावाद के तहत कुलपति के चयन की सिफारिश कर रहे हैं.

सेवानिवृत्त प्रो. नर सिंह वर्मा
सेवानिवृत्त प्रो. नर सिंह वर्मा
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Published : Mar 23, 2021, 10:52 PM IST

लखनऊ : डॉ. राधाकृष्णन, पं. मदन मोहन मालवीय, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे नाम लेते ही कुलपति की एक अलग छवि उभर कर आती है. यह वो नाम हैं जिन्होंने इस पद पर रहते हुए नए कीर्तिमान स्थापित किए. समाज को एक नई दिशा दी. यह हमेशा निर्विवादित चेहरे रहे हैं. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिला है कि कुलपति की नियुक्ति से पहले ही विवाद खड़े हो जाते हैं.

कुलपतियों के चयन में बड़ा राजनीतिक दखल
इसे भी पढ़ें- शाही पगड़ी पहन मां गौरा का गौना कराने जाएंगे 'काशीपुराधिपति'

यूजीसी के प्रावधानों को नहीं किया लागू

आरोप लग रहे हैं कि अब नियुक्ति में योग्यता से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप और पहुंच को तवज्जो मिल रही है. इसी का नतीजा है कि लगातार यह पद और इस पद पर नियुक्ति करने वाले राजभवन पर भी अंगुलियां उठ रही हैं. शायद यही कारण है जिसके चलते अभी तक प्रदेश में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है. बता दें कि 2010 में यूजीसी ने कुलपति की नियुक्ति के लिए 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव अनिवार्य कर दिया था. देश के कई राज्यों में इसे लागू कर दिया गया. लेकिन, उत्तर प्रदेश में इसे लागू नहीं किया गया है.


सर्च समिति पर ही उठ रहे हैं कई सवाल

लखनऊ विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. नर सिंह वर्मा का आरोप है कि कुलपति के चयन की प्रक्रिया में सुधार के दावे तो बहुत किए गए हैं लेकिन, अभी तक यह प्रक्रिया दोषपूर्ण है. कुलपति के चयन के लिए राजभवन के स्तर पर बनने वाली सर्च समिति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का प्रतिनिधि आज तक शामिल नहीं किया गया. जानकारों की मानें तो यह सर्च समिति पहले चरण में 10 नामों को तैयार करती रही है. कुलाधिपति के रूप में आनंदीबेन पटेल के आने के बाद यह संख्या 15 हो गई है. उसके बाद 5 नामों को कुलाधिपति के सामने रखा जाता है और राज्यपाल के स्तर पर अन्तिम नाम पर मुहर लगाई जाती है.

क्यों नहीं बताते कैसे योग्य है चयनित व्यक्ति

आरोप हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में राजनीतिक दल जाति, समुदाय, भाई-भतीजावाद का बोलबाला रहता है. इसीलिए इस प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं बनाया जा रहा है. न तो आज तक कभी यह बताया गया कि चयनित व्यक्ति की क्या खास बात थी, जिसके आधार पर उसका चयन हुआ. जिनके आवेदन रिजेक्ट किए गए वह कहां चूके.

इन नियुक्ति पर हो चुका है खूब विवाद

नेशनल पीजी कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. एसपी सिंह को सितम्बर 2016 में कुलपति बनाया गया. इनके साथ बीएचयू के प्रो. रमाशंकर दुबे, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर के प्रो. प्रभु नारायण मिश्रा, हैदराबाद विश्वविद्यालय की रेखा पाण्डेय और बीएचयू के आद्या प्रसाद पाण्डेय भी रेस में थे. लेकिन, आरोप लगे कि भाजपा के एक कद्दावर नेता से नजदीकी के कारण इन्हें कुलपति बनाया गया. वहीं, एक डिग्री कॉलेज में पढ़ा रहे डॉ. अरविंद दीक्षित को भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा का कुलपति बना दिया गया. इसको लेकर खूब विरोध हुआ. शहर भर में पोस्टर तक लगाए गए. आरोप थे कि आरएसएस से नजदीकी के कारण उन्हें कुलपति बनाया गया. नियुक्ति राजभवन के स्तर पर ही की गई थी.

इसे भी पढ़ें- पांच दिन में 2 मासूमों को आदमखोर तेंदुए ने बनाया निवाला, दहशत में ग्रामीण

इसके अलावा छत्रपति शाहूजी महाराज विवि कानपुर डॉ. जेवी वैशम्पायन लखनऊ विश्वविद्यालय के एप्लाइड इकोनॉमिक्स विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. जेवी वैशम्पायन पर अंक तालिका में छेड़छाड़ करने जैसे गंभीर आरोप लगे. पूर्व राज्यपाल राम नाईक के कार्यकाल में उन्हें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर का कुलपति बना दिया गया. आरोप यहां तक हैं कि उन्हें महाराष्ट्र का होने का लाभ मिला.

लखनऊ : डॉ. राधाकृष्णन, पं. मदन मोहन मालवीय, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे नाम लेते ही कुलपति की एक अलग छवि उभर कर आती है. यह वो नाम हैं जिन्होंने इस पद पर रहते हुए नए कीर्तिमान स्थापित किए. समाज को एक नई दिशा दी. यह हमेशा निर्विवादित चेहरे रहे हैं. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिला है कि कुलपति की नियुक्ति से पहले ही विवाद खड़े हो जाते हैं.

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यूजीसी के प्रावधानों को नहीं किया लागू

आरोप लग रहे हैं कि अब नियुक्ति में योग्यता से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप और पहुंच को तवज्जो मिल रही है. इसी का नतीजा है कि लगातार यह पद और इस पद पर नियुक्ति करने वाले राजभवन पर भी अंगुलियां उठ रही हैं. शायद यही कारण है जिसके चलते अभी तक प्रदेश में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है. बता दें कि 2010 में यूजीसी ने कुलपति की नियुक्ति के लिए 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव अनिवार्य कर दिया था. देश के कई राज्यों में इसे लागू कर दिया गया. लेकिन, उत्तर प्रदेश में इसे लागू नहीं किया गया है.


सर्च समिति पर ही उठ रहे हैं कई सवाल

लखनऊ विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. नर सिंह वर्मा का आरोप है कि कुलपति के चयन की प्रक्रिया में सुधार के दावे तो बहुत किए गए हैं लेकिन, अभी तक यह प्रक्रिया दोषपूर्ण है. कुलपति के चयन के लिए राजभवन के स्तर पर बनने वाली सर्च समिति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का प्रतिनिधि आज तक शामिल नहीं किया गया. जानकारों की मानें तो यह सर्च समिति पहले चरण में 10 नामों को तैयार करती रही है. कुलाधिपति के रूप में आनंदीबेन पटेल के आने के बाद यह संख्या 15 हो गई है. उसके बाद 5 नामों को कुलाधिपति के सामने रखा जाता है और राज्यपाल के स्तर पर अन्तिम नाम पर मुहर लगाई जाती है.

क्यों नहीं बताते कैसे योग्य है चयनित व्यक्ति

आरोप हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में राजनीतिक दल जाति, समुदाय, भाई-भतीजावाद का बोलबाला रहता है. इसीलिए इस प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं बनाया जा रहा है. न तो आज तक कभी यह बताया गया कि चयनित व्यक्ति की क्या खास बात थी, जिसके आधार पर उसका चयन हुआ. जिनके आवेदन रिजेक्ट किए गए वह कहां चूके.

इन नियुक्ति पर हो चुका है खूब विवाद

नेशनल पीजी कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. एसपी सिंह को सितम्बर 2016 में कुलपति बनाया गया. इनके साथ बीएचयू के प्रो. रमाशंकर दुबे, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर के प्रो. प्रभु नारायण मिश्रा, हैदराबाद विश्वविद्यालय की रेखा पाण्डेय और बीएचयू के आद्या प्रसाद पाण्डेय भी रेस में थे. लेकिन, आरोप लगे कि भाजपा के एक कद्दावर नेता से नजदीकी के कारण इन्हें कुलपति बनाया गया. वहीं, एक डिग्री कॉलेज में पढ़ा रहे डॉ. अरविंद दीक्षित को भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा का कुलपति बना दिया गया. इसको लेकर खूब विरोध हुआ. शहर भर में पोस्टर तक लगाए गए. आरोप थे कि आरएसएस से नजदीकी के कारण उन्हें कुलपति बनाया गया. नियुक्ति राजभवन के स्तर पर ही की गई थी.

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इसके अलावा छत्रपति शाहूजी महाराज विवि कानपुर डॉ. जेवी वैशम्पायन लखनऊ विश्वविद्यालय के एप्लाइड इकोनॉमिक्स विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. जेवी वैशम्पायन पर अंक तालिका में छेड़छाड़ करने जैसे गंभीर आरोप लगे. पूर्व राज्यपाल राम नाईक के कार्यकाल में उन्हें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर का कुलपति बना दिया गया. आरोप यहां तक हैं कि उन्हें महाराष्ट्र का होने का लाभ मिला.

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