लखनऊः केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानून वापस लिए जाने के फैसले को विपक्ष और किसान नेता भले ही अपनी जीत बता रहे हों, लेकिन यह फैसला अगले वर्ष होने जा रहे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का पूरा समीकरण बदल सकता है. अभी तक पूरे उत्तर प्रदेश और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उग्र होते किसान आंदोलन से विपक्ष जिस तरह उत्साहित था, केंद्र सरकार के इस फैसले से बड़ा झटका लगा है. इसके बावजूद भाजपा को अपेक्षित सफलता शायद ही मिले क्योंकि, बीते एक साल में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिसकी वजह से किसानों की नाराजगी बढ़ती चली गई.
बात राजनीतिक समीकरण की करें तो पश्चिमी यूपी में विधानसभा की 120 सीटें हैं. वर्ष 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को करीब 90 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन कृषि कानून लागू होने के बाद बीते एक साल में विभिन्न राज्यों की 29 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणामों ने केंद्र सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया. राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान भी इसे भाजपा को अपेक्षित फायदा नहीं होने की नजर से देख रहे हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति को करीब से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान ईटीवी भारत से खास बातचीत में कहते हैं कि सरकार ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह फैसला किया है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि जितना लाभ मिलने की उम्मीद से सरकार ने यह फैसला लिया है, उतना फायदा मिल पाएगा.
भाजपा को उत्तर प्रदेश और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत पॉलीटिकल माइलेज इस कानून के वापस होने से नहीं मिलने वाला क्योंकि किसानों ने बहुत तकलीफ और दुख सहा है. उन्हें तमाम तरह के बयानों से भी परेशान किया गया है. ऐसे में बहुत पॉलिटिकल लाभ मिलता हुआ नजर नहीं आ रहा है.
राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं कि इस बात की चर्चा बहुत दिनों से थी कि घूम-फिर कर सरकार को कृषि कानून वापस लेने का फैसला करना ही पड़ेगा. सरकार ने काफी समय से बहुत कड़ी छवि दिखाने की कोशिश की और यह छवि दिखाई भी. इससे काफी नुकसान भी हुआ.
शरत प्रधान कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो टाइमिंग चुनी है उसके पीछे सोची समझी रणनीति है. आज गुरु नानकदेव की जयंती के दिन सिख समाज के लोगों को लुभाने की कोशिश की गई है. इसके सहारे पंजाब की राजनीति भी करवट ले जाए, तो आश्चर्य नहीं. प्रधान कहते हैं कि यह किसानों की बहुत बड़ी जीत है.
किसी को यह नहीं अंदाजा था कि आंदोलन इतने लंबे समय तक चलेगा. इन्होंने देश के सामने यह दिखाने की कोशिश की कि हमने माफी मांग ली है और हम कितने उदार हैं, लेकिन यही उदारता समय से दिखाते तो इसका फायदा होता.
वह कहते हैं कि मुझे नहीं लगता कि आज की तारीख में कोई बहुत बड़ा फायदा हो पाएगा. क्योंकि इस कानून को वापस लेने का मांग को लेकर धरने पर बैठे कई किसानों को मौत हो गई. लोगों ने कितनी तकलीफें झेलीं. किसानों को ताने तक दिए गए. उन्हें आंदोलनजीवी तक कहा गया. अगर यह लोग आंदोलनजीवी थे, आतंकवादी थे तो फिर इनकी डिमांड सरकार ने क्यों मान ली.
अब चुनाव नजदीक हैं एक चीज बहुत साफ दिख रही है कि पंजाब के अलावा यूपी में भी खतरा दिखने लगा है. पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान पूरी तरीके इस आंदोलन के साथ जुड़े थे. सरकार की तरफ से उसे तोड़ने की हरसंभव कोशिश की गई. बाद में किसानों से रायशुमारी तक की गई. तब सरकार को यह लगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो जीत 2014, 2017 और 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हासिल की थी, वह अब नामुमकिन है.
कानून लागू होने के बाद प्रमुख चुनावों का हाल
सितंबर 2020 में तीनों कृषि कानून लागू होने और कृषि आंदोलन के बाद सबसे पहले नवंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे. जिसमें जद (यू) के साथ भाजपा की सत्ता में फिर वापसी हुई. ऐसा पहली बार हुआ कि वह जद (यू) से ज्यादा सीटें जीत कर आई. इसके बाद अहम चुनाव मई 2021 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल, पुडुचेरी में हुए. इन चुनावों में भाजपा पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने का सपना पूरा नहीं कर पाई. इसी तरह केरल और तमिलनाडु में पार्टी का उम्मीदों के अनुसार प्रदर्शन नहीं रहा। हालांकि असम में पार्टी सत्ता में वापसी की और उसे पुडुचेरी में सरकार बनाने का मौका मिला.
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कृषि कानून लागू होने के करीब एक साल बाद 30 अक्टूबर 2021 को 29 विधानसभा सीटों और 3 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुए हैं. इन चुनावों में भाजपा को केवल 7 सीटें मिलीं. जबकि उसके सहयोगियों को 8 सीटें मिलीं. वहीं कांग्रेस के खाते में 8 सीटें आईं. इन नतीजों में भाजपा को सबसे बड़ा झटका हिमाचल प्रदेश में लगा, जहां उसे तीनों विधानसभा सीट और एक लोकसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा.
पंजाब में भाजपा को मिल सकता है बड़ा फायदा
पंजाब में भाजपा शुरू से शिरोमणि अकाली दल के साथी के रूप में चुनाव लड़ती रही है. जहां पर उसकी भूमिका छोटे भाई के रूप में ही रही है. साल 2012 के विधानसभा चुनावों में जब अकाली दल के नेतृत्व में उसकी सरकार थी, उस वक्त भी उसके पास 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में केवल 15 सीटें मिली थी और 2017 में कांग्रेस की सरकार आई तो उसको केवल तीन सीटें मिली थी. राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान भी कहते हैं कि इस कानून के वापस लिए जाने से पंजाब में भाजपा को फायदा मिल सकता है.
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