झांसी: काशी में जन्मीं छबीली मनु की शादी झांसी के महाराष्ट्र गणेश मंदिर में महाराज गंगाधर राव के साथ हुई थी. विवाह के बाद वह महारानी लक्ष्मीबाई बनीं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महानायिका के रूप में उनका उभार हुआ.
देश की आजादी की पहली लड़ाई में महारानी लक्ष्मीबाई ने जिस तरह विदेशी हुकूमत को युद्ध के मैदान में चुनौती दी थी, उससे उन्हें मर्दानी के नाम से जाना गया, और आज भी उन्हीं के नाम से यह कविता प्रचलित है 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी...' वहीं वीरांगना की जयंती हर साल 19 नवंबर को मनाई जाती है.
जयंती पर होते हैं विविध आयोजन
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर हर साल झांसी में विविध तरह के आयोजन होते हैं. वहीं इस मौके पर पूरे शहर को सजाया जाता है और उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थलों पर भी विविध आयोजन होते हैं. झांसी के महाराष्ट्र गणेश मंदिर में महाराज गंगाधर राव के साथ झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का विवाह संपन्न हुआ था. इस मंदिर में हर साल विविध तरह के आयोजन होते हैं. मन्दिर में गंगाधर राव और रानी लक्ष्मीबाई के समय की कई स्मृतियां संजोकर रखी गई हैं.
रानी से जुड़े कई तथ्यों पर मतभेद
देश-दुनिया में अपनी तलवार की धार के दम पर अपनी पहचान कायम करने वाली रानी लक्ष्मीबाई के जन्म वर्ष और विवाह वर्ष को लेकर कई तरह के मतभेद देखने को मिलते हैं, जहां सरकारी दस्तावेजों में रानी का जन्मवर्ष 1835 बताया गया है तो दूसरी ओर बहुत सारे जानकर उनके जन्म का वर्ष 1828 मानते हैं. इन सबके बीच कई और तथ्यों को लेकर भी समय-समय पर विरोधाभास सामने आते रहे हैं, जिन्हें दूर किए जाने की जरूरत महसूस होती रही है.
विवाह के बाद मनु बनीं महारानी
महाराष्ट्र गणेश मंदिर के सचिव गजानन खानवलकर कहते हैं कि बिठूर की मनू इस मंदिर में आकर लक्ष्मीबाई बनीं. महाराज गंगाधर राव के साथ उनका विवाह इसी मंदिर में सम्पन्न हुआ था. इस मंदिर में 19 मई 1842 को उनका विवाह था.
विवाह के वर्ष पर भी मतभेद
महाराष्ट्र गणेश मंदिर के पुजारी विश्राम तांबे ने ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए जानकारी दी कि यहां विवाह होने के बाद उन्हें महारानी का नाम मिला था. इतिहास में दो महारानी हुईं, एक महारानी विक्टोरिया और दूसरी महारानी लक्ष्मीबाई. इसके बाद इतिहास में किसी और को महारानी का नाम नहीं दिया गया है. यहां आने के बाद उन्होंने पूरी सत्ता अपने हाथ में ले ली थी क्योंकि गंगाधर राव बीमार रहते थे और उन्हें नाटक का ज्यादा शौक था. मन्दिर के शिलालेख में विवाह का वर्ष 1842 लिखे होने पर असहमति जताते हुए वे कहते हैं कि हमारे पूर्वज बताते हैं कि जन्म के बारह वर्ष में उनका विवाह हुआ था.
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