झांसी: हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जयंती 29 अगस्त को खेल दिवस के रूप में मनायी जाती है. मेजर ध्यानचंद के खेल जीवन और उनकी उपलब्धियों के बारे में सारी दुनिया जानती है, लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन और संघर्षों के बारे में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है. उनकी जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं को उनकी बहू डॉ. मीना उमेश ध्यानचंद ने एक पुस्तक में समेटने की कोशिश की है, जिसमें परिवार के लोगों के हवाले से उनके बारे में कई घटनाएं दर्ज की गई हैं.
मेजर ध्यानचंद की बहू डॉ. मीना की किताब 'हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, कहानी अपनों की जुबानी' दद्दा (ध्यानचंद) के जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालती है. मूल रूप से बिहार की रहने वाली मीना जब ध्यानचंद परिवार की बहू बनकर झांसी आईं तो परिवार के लोगों से दद्दा के बारे में सुनी बातों को उन्होंने लिपिबद्ध किया और उन्हें पुस्तक का रूप दे दिया. इस पुस्तक में दद्दा के जीवन की कई रोचक घटनाएं उल्लिखित है.
चार भाई और तीन बहनों का परिवार
पुस्तक में दर्ज विवरण के मुताबिक मेजर ध्यानचंद के पिता सोमेश्वर सिंह सेना में कार्यरत थे. ध्यानचंद का चार भाई और तीन बहनों का परिवार था. परिवार में खेल की किसी तरह की पृष्ठभूमि नहीं थी. उनका विवाह ललितपुर जिले के धवारी गांव की जानकी देवी के साथ 1936 में हुआ. ध्यानचंद की 11 संतानें थीं, जिनकी परवरिश की मुख्य जिम्मेदारी जानकी देवी उठाती थीं. सात बेटे और चार बेटियों की परवरिश में कभी बेटे-बेटी का भेदभाव नहीं किया गया.
महिलाओं की समानता के पैरोकार
पुस्तक में एक जगह डॉ. मीना लिखती हैं कि एक बार मेजर ध्यानचंद के घर में कुछ मेहमान आये थे. बैठक कक्ष में बहू मंजू को बुलवाया गया तो वे जमीन पर बैठ गईं. अचानक दद्दा बैठक में पहुंचे तो बहू को नीचे बैठे देख सबके सामने ही उठाकर कुर्सी पर बिठाया. घर की महिलाओं को दिन भर खाना बनाने में व्यस्त न रहना पड़े, इसके लिए उन्होंने खाना बनाने और खाने तक का समय तय कर दिया था.
हॉकी में राजनीति से रहते थे निराश
डॉ. मीना अपनी पुस्तक में उल्लेख करती हैं कि बाद के दिनों में हॉकी के गिरते स्तर, खिलाड़ियों के टूटते मनोबल और खेल में व्याप्त राजनीति ने उन्हें तोड़कर रख दिया था. एक बार नाराजगी में वे परिवार के सभी खिलाड़ियों से हॉकी की स्टिक को लेकर उन्हें जलाने चल पड़े थे. हालांकि दद्दा का यह गुस्सा क्षणिक था क्योंकि हॉकी स्टिक के बिना तो उनके जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. डॉ. मीना को इस प्रसंग की जानकारी मेजर ध्यानचंद की पत्नी जानकी देवी ने दी थी.
रेल पटरी पर करते थे प्रैक्टिस
डॉ. मीना ने इस पुस्तक में दद्दा के भतीजे भगत सिंह के हवाले से एक संस्मरण लिखा है, जिसमें उनके शुरुआती दिनों के संघर्ष की एक बानगी मिलती है. हॉकी खेलने के लिए स्टेमिना बनाने के लिए वे घर से कुछ फूले हुए चने लेकर घर के निकट स्थित रेल पटरी पर दौड़ने का अभ्यास किया करते थे. चांदनी रात में पेड़ों की टहनियों को हॉकी बनाकर खेला करते थे.
न्यूजीलैंड दौरे के समय थी कपड़ों की कमी
साल 1926 में मेजर ध्यानचंद को पहली बार हॉकी खेलने के लिए विदेश जाने का अवसर मिला. न्यूजीलैंड दौरे के समय गर्म कपड़े और अन्य सामानों की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती थी. उस समय ये व्यवस्थाएं खुद खिलाड़ी को ही करनी पड़ती थी. दद्दा ने सेना से मिले गर्म ओवरकोट, गर्म शर्ट और पैंट इकट्ठा किये. सेना के ही जूते लिए और फलालेन की कमीजें सिलवाई. इस तैयारी के साथ कम्बल बांधकर विदेश दौरे पर रवाना हो गए. न्यूजीलैंड दौरे से लौटने के बाद उनके हॉकी खेल की काफी चर्चा होने लगी थी.
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शेरो-शायरी का था शौक
दद्दा को शेरो शायरी का भी शौक था. पुस्तक में उनके हस्तलिखित शेरो की तस्वीर के साथ लेखिका ने अपनी बात लिखी है. फुर्सत के समय में मेजर ध्यानचंद फिल्मी दुनिया की नामी हस्तियों के लिए शब्दों की जोड़-तोड़ कर शेरो-शायरी लिखते थे. उन्होंने सायरा बानो, हेमा मालिनी और अमिताभ बच्चन सहित कई फिल्मी हस्तियों के लिए अपने भाव अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त किये थे.
दद्दा की जिंदगी देती है प्रेरणा
दद्दा पर किताब लिखने वाली उनकी बहू डॉ. मीना बताती हैं, 'शादी के पहले से ही मेरे मन में बाबूजी के लिए काफी सम्मान था. जब शादी के बाद मैं यहां आई तो उनसे जुड़ी जितनी भी यादें थीं, बाते थीं, उन्हें संजोती रही. अम्माजी से मैंने बहुत सारी बातें और संस्मरण सुने, जिनका मैंने किताब में उल्लेख किया है. उनके खेल जीवन के बारे में तो सभी जानते हैं, लेकिन उनका पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन आदि के बारे में लोगों को कम जानकारी थी. घर में आने वाले कोई भी मेहमान, चाहे आम हो या खास, सबको वे भरपूर सम्मान देते थे. उनके जीवन की बहुत सारी बातें प्रेरणा देने वाली रही हैं.