हाथरस: दीपावली के त्योहार पर लाखों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी में आज अंधेरा पसरा हुआ है. आधुनिकता की चकाचौंध ने कुम्हारों के जीवन को तहस-नहस कर दिया है. अब कुम्हारों को दो वक्त की रोटी के लिए दिन भर मिट्टी के साथ मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन इनकी मेहनत वसूल नहीं हो पा रही है.
महंगाई की वजह से दिवाली पर मिट्टी के दीये बनाना भी कुम्हारों को दुश्वार हो रहा है. वहीं कम मुनाफे के कारण कुम्हार भुखमरी के कगार पर है. सरकार द्वारा हाथरस के कुम्हारों के उत्थान के लिए कोई सुविधा भी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि इन कुम्हारों की दिवाली कैसी होगी.
इनके घरों में है अंधेरा
दरअसल हाथरस में कुम्हारों की अच्छी खासी आबादी है और इनका मुख्य पेशा मिट्टी के बर्तन बनाकर उन्हें बेचना है. दीपावली के समय इन कुम्हारों को काम की अधिकता के कारण फुर्सत भी नहीं मिल पाती है, लेकिन दीपावली के पर्व पर हजारों लाखों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी में आज अंधेरा है.
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नहीं बिकते हैं मिट्टी के दीये
इस दिवाली के मौके पर कुम्हार मिट्टी के चंद दीये बनाकर आसपास के बाजार में बेचने के लिए जाते हैं. वहां भी पूरे दीये बिक जाएंगे, इस बात की आशंका ही बनी रहती है.
मुश्किल से नसीब होती है दो वक्त की रोटी
बाजारों में दीयों की जगह अब रंग-बिरंगी लाइटों और झालरों ने ले ली है. ऐसे में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल नसीब होती है.
सरकार से नहीं मिलती मदद
कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए गांव के जिन तालाबों से मिट्टी निकालते हैं, उस पर अब लोगों को आपत्ति है. सरकार की तरफ से भी किसी प्रकार की मदद इन्हें मुहैया नहीं कराई जा रही है.
पैसे देकर खरीदते हैं मिट्टी
ऐसे में कुम्हारों का कहना है कि वह अब मिट्टी भी पैसों से खरीदते हैं. उन्हें एक क्विंटल मिट्टी के लिए 100 रुपये देने होते हैं. जिसमें 5 से 6 हजार दीये तैयार होते हैं. इन दीयों में करीब 200 दीये ही बिक पाते हैं. इससे कुम्हार भुखमरी की कगार पर हैं.