गोरखपुर: कारगिल युद्ध के दौरान कश्मीर के तंगधार में अपने गोरखा रेजीमेंट के जवानों की रक्षा करते हुए चार अगस्त 1998 को घायल हुए, लेफ्टिनेंट गौतम गुरुंग ने 5 अगस्त को इलाज के दौरान दम तोड़ दिया था. उनकी शहादत पर हर साल अगस्त को गोरखपुर में गोरखा राइफल्स के जवान और अधिकारी सभी मिलकर उन्हें याद करते हैं. कूड़ाघाट तिराहे पर स्थापित उनकी प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. गौतम गुरुंग आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. शहर का कूड़ाघाट तिराहा उन्हीं के नाम से जाना जाता है.
तिराहे पर गौतम गुरुंग की स्थापित प्रतिमा युवाओं में जोश भरने के साथ देश के लिए मर मिटने की भी प्रेरणा देती है. उनके शहादत दिवस पर पांच अगस्त को लोग प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, तो भारत-नेपाल मैत्री संघ इस दिवस को शौर्य और प्रेरणा दिवस के रूप में मनाता है. गोरखा राइफल्स के जवान और अफसर भी इस वीर योद्धा को सलामी देते हैं. चार अगस्त 1999 को कारगिल जंग के दौरान पाकिस्तानी सेना के रॉकेट हमले के बीच बंकर में फंसे अपने आठ साथियों को बचाने के दौरान गौतम घायल हो गए थे.
1999 में जब उनका पार्थिव शरीर गोरखपुर लाया गया तो वह दिन रक्षाबंधन का था. वह अपनी इकलौती बहन के इकलौते भाई थे. जब उस बहन ने शहीद भाई के कलाई पर राखी बांधी तो उसके समय शहादत को सलाम करने के लिए उमड़ा सारा हुजूम दहाड़ मारकर रो पड़ा. इस दौरान गोरखपुर में तैनात रहे उनके ब्रिगेडियर पिता ने बतौर सैन्य अफसर बेटे के पार्थिव शरीर को रिसीव किया था और फिर उन्हें मुखाग्नि दी थी. आज इस वीर शहीद को उसके शहादत दिवस पर हर कोई याद करता है.
कूड़ाघाट तिराहे पर स्थापित प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर उन्हें नमन किया जाता है. इस दौरान सैन्य अधिकारी कहते हैं कि गौतम गुरुंग किसी एक परिवार का बेटा नहीं था. वह पूरे देश का बेटा था. हम उन्हें याद करके गौरवान्वित भी होते हैं और अगली पीढ़ी के लिए एक मजबूत संदेश भी देने का काम करते हैं. गुरुंग का जन्म 23 अगस्त 1973 को देहरादून में हुआ था. वह अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे. वह एमबीए करके सेना में गए थे. उनकी शहादत के बाद उनके पिता देहरादून में ही जाकर बस गए. बेटे की याद में 'शहीद गौतम गुरु ट्रस्ट' बनाया.
इसके माध्यम से वह अपने क्षेत्र के बच्चों को निशुल्क बॉक्सिंग की ट्रेनिंग देते हैं, जहां से वह बच्चे खेल प्रतिभा में तो निपुण होते ही हैं देश की सेवा के लिए भी प्रेरित होते हैं. गुरुंग के पिता हर साल 5 अगस्त को गोरखपुर पहुंचकर बेटे की शहादत को सलाम करते थे. उनकी प्रतिमा पर श्रद्धासुमन भी अर्पित करते थे, लेकिन यह पहला अवसर है कि जब वह कोरोना की महामारी की वजह से यहां आ नहीं सके.