फतेहपुर: हमारे देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए अनगिनत क्रांतिकारियों ने कुर्बानी दी. इन शहीदों की याद में अनेकों शहीद स्मारक बने हैं. उन्हीं में से एक है खजुआ में बावनी इमली का पेड़. इस पेड़ पर 28 अप्रैल, 1858 को अंग्रेजों ने 52 क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी थी. यह पेड़ गवाह है अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले क्रांतिकारी जोधा सिंह अटैया और उनके 51 साथियों की शहादत का.
1857 का गदर और फतेहपुर
- ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जब बैरकपुर की छावनी में मंगल पांडेय ने स्वंतत्रता संग्राम का बिगुल फूंका तो यह पूरे देश में फैल गया.
- फतेहपुर में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसा गुरिल्ला युद्ध छेड़ा कि अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया.
- इस विद्रोह को शांत कराने के लिए ब्रिटिश सेना के सेनाध्यक्ष कैम्पबेल को फतेहपुर आना पड़ा था.
- ठाकुर जोधा सिंह अटैया, अटैया रसकपूर गांव के निवासी थे.
- उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से प्रभावित होकर अंग्रेजी सेना के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया.
- जोधा सिंह ने दरियाव सिंह, शिवदयाल सिंह और अन्य साथियों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध की छेड़ दिया.
- जोधा सिंह ने 27 अक्टूबर, 1857 को महमूदपुर गांव में एक दरोगा और एक अंग्रेज सिपाही की हत्या कर दी.
- इस दौरान उन्होंने अंग्रेज के खजाने लूटने समेत कई घटनाओं को अंजाम दिया.
- जोधा सिंह को सरकारी कार्यालय लूटने और जलाए जाने के कारण अंग्रेजों ने डकैत घोषित कर दिया गया.
कई दिनों तक पेड़ से ही झूलते रहे क्रांतिकारियों के शव
- जोधा सिंह 28 अप्रैल, 1858 को अपने इक्यावन साथियों के साथ खजुआ लौट रहे थे.
- उसी समय मुखबिर की सूचना पर अंग्रेजों ने सभी को बन्दी बना लिया.
- अंग्रेजों ने सभी को इस इमली के पेड़ पर एक साथ फांसी दे दी.
- कई दिनों तक क्रांतिकारियों के शव पेड़ से ही झूलते रहे.
- चार मई की रात को महाराज सिंह अपनी सेना के साथ बावनी इमली आए और शवों के कंकाल को उतारा
- महाराज सिंह ने शिवराजपुर के गंगाघाट पर अंत्येष्टि की.
- आज बावनी इमली का शहीद स्मारक देश के लोगों के लिए पूज्यनीय है.
- यह याद दिलाता है कि कितने संघर्ष के बाद आजादी मिली.
- हर साल 28 अप्रैल को यहां शहीदों के सम्मान में मेला लगता है.
- फतेहपुर के सपूतों की दास्तान इतिहास में उचित जगह नहीं बना पाई. इसका दर्द यहां के लोगों में आज भी है.
- समाजसेवी चन्द्रभान सिंह ने कहा, '1970 में स्मारक बना लेकिन आज भी इस स्थान को सरकार की तरफ से अपेक्षाकृत कम सम्मान मिला'.