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बस्ती: अंग्रेजी हुकूमत के जुर्म का गवाह वीरान 'महुआ डाबर' की कहानी

1857 में हजारों लोगों की शहादत का गवाह बना महुआ डाबर गांव आज भी वीरान पड़ा है. अंग्रेजों की बर्बरता झेल चुके गांव को विकसित करने की मांग समय-समय पर उठती रही है, लेकिन सरकारों की उपेक्षा का शिकार वीर सपूतों का गांव आज भी बदहाली के आंसू बहा रहा है.

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1857 को अंग्रेजों ने जलवा दिया था महुआ डाबर गांव.
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Published : Aug 15, 2020, 3:41 PM IST

बस्ती: 1857 के विद्रोह के समय पूरे देश में अंग्रेजों पर संकट के बादल मंडराने लगे थे. समूचा उत्तर भारत आजादी के विद्रोह की चपेट में आ गया था. दिल्ली, मेरठ समेत अन्य कई स्थानों पर 10 मई 1857 से ही विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी. बस्ती जिले में भी 5 जून 1857 तक आते आते विद्रोह पूरी तरह भड़क उठा था.

1857 को अंग्रेजों ने जलवा दिया था महुआ डाबर गांव.

बहादुरपुर ब्लॉक के मनोरमा नदी के तट पर बसे महुआ डाबर नामक गांव था. यह एक मुस्लिम बाहुल्य गांव था. यहां अंग्रेजों की बेगारी तथा हाथ काटने जैसे जुल्मों से तंग आकर बनारस, बंगाल और बिहार के कुछ कारीगर, शिल्पी यहां आकर बस गये थे. इस गांव में मलमल तथा दूसरे कपड़े तैयार होते थे. यहां उस समय लगभग पांच हजार की आबादी थी. स्थानीय लोग बताते हैं कि उस दौरान 7 अंग्रेज महुआ डाबर पहुंचे थे. वो सभी एक थाने पर रुके थे. वहीं अंग्रेजों के आने की खबर पर अपने पूर्वजों पर किए गए अत्याचारों को याद करके यहां के लोग उन्हें खत्म करने की योजना बनाने लगे, जिसके बाद जफर अली के नेतृत्व में इस गांव के लोगों ने मनोरमा नदी पार कर रहे अंग्रेजों पर 10 तारीख को हमला कर दिया.

इस हमले में छह अंग्रेजों की मौत हो गयी. 10 जून को महुआ डाबर की घटना से गोरखपुर का जिला प्रशासन हिल गया. 20 जून 1857 को पूरे जिले में मार्शल लागू कर दिया गया, जिसके बाद महुआ डाबर नामक गांव को बड़ी बेदर्दी से आग लगा कर जला दिया था. उस गांव का नामो निशान तक अंग्रेजी सरकार ने मिटवा दिया था. वहां पर अंग्रेजो के चंगुल में आए निवासियों के सिर कलम कर दिए गए थे.

स्थानीय बताते हैं कि जलियावाला बाग की तरह एक बहुत बड़ा जनसंहार यहां हुआ था. महुआ डाबर में जितने लोग जिंदा बचे थे. वो डर की वजह से बाहर भाग गए थे. लोगों ने बताया कि यह गांव अभी भी गुमनाम की जिन्दगी गुजार रहा है. किसी भी सरकार ने इस जगह को विकसित करने की कोशिश नहीं की, जबकि पुरातत्व विभग ने इस जगह खुदाई भी की. यहां पुरानी मस्जिद के अवशेष बचे हुए हैं. स्वतंत्र भारत में तो यह पवित्र स्थल के रूप में विकसत होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका है.

बस्ती: 1857 के विद्रोह के समय पूरे देश में अंग्रेजों पर संकट के बादल मंडराने लगे थे. समूचा उत्तर भारत आजादी के विद्रोह की चपेट में आ गया था. दिल्ली, मेरठ समेत अन्य कई स्थानों पर 10 मई 1857 से ही विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी. बस्ती जिले में भी 5 जून 1857 तक आते आते विद्रोह पूरी तरह भड़क उठा था.

1857 को अंग्रेजों ने जलवा दिया था महुआ डाबर गांव.

बहादुरपुर ब्लॉक के मनोरमा नदी के तट पर बसे महुआ डाबर नामक गांव था. यह एक मुस्लिम बाहुल्य गांव था. यहां अंग्रेजों की बेगारी तथा हाथ काटने जैसे जुल्मों से तंग आकर बनारस, बंगाल और बिहार के कुछ कारीगर, शिल्पी यहां आकर बस गये थे. इस गांव में मलमल तथा दूसरे कपड़े तैयार होते थे. यहां उस समय लगभग पांच हजार की आबादी थी. स्थानीय लोग बताते हैं कि उस दौरान 7 अंग्रेज महुआ डाबर पहुंचे थे. वो सभी एक थाने पर रुके थे. वहीं अंग्रेजों के आने की खबर पर अपने पूर्वजों पर किए गए अत्याचारों को याद करके यहां के लोग उन्हें खत्म करने की योजना बनाने लगे, जिसके बाद जफर अली के नेतृत्व में इस गांव के लोगों ने मनोरमा नदी पार कर रहे अंग्रेजों पर 10 तारीख को हमला कर दिया.

इस हमले में छह अंग्रेजों की मौत हो गयी. 10 जून को महुआ डाबर की घटना से गोरखपुर का जिला प्रशासन हिल गया. 20 जून 1857 को पूरे जिले में मार्शल लागू कर दिया गया, जिसके बाद महुआ डाबर नामक गांव को बड़ी बेदर्दी से आग लगा कर जला दिया था. उस गांव का नामो निशान तक अंग्रेजी सरकार ने मिटवा दिया था. वहां पर अंग्रेजो के चंगुल में आए निवासियों के सिर कलम कर दिए गए थे.

स्थानीय बताते हैं कि जलियावाला बाग की तरह एक बहुत बड़ा जनसंहार यहां हुआ था. महुआ डाबर में जितने लोग जिंदा बचे थे. वो डर की वजह से बाहर भाग गए थे. लोगों ने बताया कि यह गांव अभी भी गुमनाम की जिन्दगी गुजार रहा है. किसी भी सरकार ने इस जगह को विकसित करने की कोशिश नहीं की, जबकि पुरातत्व विभग ने इस जगह खुदाई भी की. यहां पुरानी मस्जिद के अवशेष बचे हुए हैं. स्वतंत्र भारत में तो यह पवित्र स्थल के रूप में विकसत होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका है.

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