बाराबंकीः आजादी के दीवानों की मजारों पर मेले लगना तो दूर उपेक्षा के चलते उनकी मजारें बदहाल होती जा रही है. जी हां, चौंकिए नहीं ये सच है. बाराबंकी में तो कुछ यही नजर आ रहा है. जिला मुख्यालय से 15 किमी दूर रफी अहमद किदवई की मजार स्थित है. पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहल से बनी इस मजार पर कभी खासी रौनक रहती थी. यहां लगे फव्वारों से गिरता पानी और आसपास की फुलवारी से ये जगह देखने लायक थी. इस मजार की हमेशा देख-रेख और साफ-सफाई हुआ करती थी, लेकिन वक्त बीता और निजाम बदला तो इस मजार की हालत भी बदल गई. अब न तो यहां फव्वारे चलते हैं और न ही बल्ब जलते हैं. यही नहीं इस मजार की कई वर्षों से रंगाई-पुताई तक नहीं हुई.
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देश की आजादी में था अहम योगदान
मसौली कस्बे में एक मध्यमवर्गीय जमींदार इम्तियाज अली के घर पैदा हुए रफी अहमद किदवई की गिनती उन चंद शख्सियतों में होती है. जिन्होंने आजादी से पहले और आजादी के बाद भी देश के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया. इनकी प्रारंभिक शिक्षा बाराबंकी में हुई, उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ गए जहां से उन्होंने स्नातक किया और उसके बाद कानून की पढ़ाई शुरू की, लेकिन पढ़ाई के बीच में ही महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में कूद पड़े.
ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करने और नारे लगाने के अभियोग में उन्हें 10 माह के कठोर कारावास का दंड भी दिया गया. जेल से छूटने के बाद वह नेहरू के आवास आनंद भवन चले गए. जहां मोती लाल नेहरू ने इन्हें अपना सचिव बना लिया. उसके बाद वे मोतीलाल नेहरू द्वारा संगठित स्वराज्य पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए. यहीं से जवाहरलाल नेहरू से उनकी गहरी दोस्ती हो गई. उनकी पूरी राजनीति नेहरू से प्रभावित रही इसी लिए तमाम राजनीतिज्ञ उन्हें नेहरू का पूरक भी कहते थे.
नेहरू के थे बेहद खास
कहा जाता है कि नेहरू जो योजना बनाते थे और रफी अहमद उसे कार्यान्वित करते थे. रफी अहमद 1926 में स्वराज पार्टी के टिकट पर लखनऊ फैजाबाद क्षेत्र से केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और स्वराज्य पार्टी के मुख्य सचेतक नियुक्त हुए. रफी अहमद गांधी इरविन समझौते से असंतुष्ट थे. वे भी स्वराज्य प्राप्ति के लिए क्रांति का मार्ग ग्रहण करने के पक्षधर थे, लिहाजा उन्होंने 1930 में उन्होंने भी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया.
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रफी अहमद 1935 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने. बाद में यूपी सरकार में राजस्व मंत्री भी रहे. उसके बाद सूबे के गृहमंत्री भी बने. यूपी में कुछ विरोध हुआ तो नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुला लिया जहां उन्हें केंद्रीय संचार मंत्री बनाया गया. अपने मंत्रीकाल में रफी अहमद ने संचार विभाग में कई क्रांतिकारी योजनाएं दीं. अंतर्देशीय पत्र की शुरुआत भी इन्हीं की देन है. संगठन में भेदभाव के चलते वे कुछ समय के लिए कांग्रेस संगठन और मंत्रिमंडल से अलग भी हो गए थे, लेकिन बाद में नेहरू के अध्यक्ष बनते ही वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए. वर्ष 1952 के चुनाव में बहराइच संसदीय क्षेत्र से विजयी हुए और देश के खाद्य एवं कृषि मंत्री बने. कहते हैं कि ये रफी अहमद का चरमोत्कर्ष था जल्द ही वे उप प्रधानमंत्री नियुक्त होने वाले थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और गिरते स्वास्थ्य के चलते 24 अक्टूबर 1954 को उनका देहावसान हो गया.
ये बोले पूर्व मंत्री और रफी अहमद के भतीजे
पूर्व मंत्री और रफी अहमद के भतीजे फरीद महफूज़ किदवई ने कहा कि रफी अहमद किदवई उन गिने चुने लोगों में हैं, जिन्होंने आजादी से पहले और आजादी के बाद भी देश सेवा की. खुद के लिए उन्होंने कुछ भी नहीं बनाया. उनकी मौत के बाद उनके घर पहुंचे जवाहरलाल नेहरू ने जब उनका घर देखा तो द्रवित हो गए. उन्होंने उनकी मजार बनवाने का एलान किया और संगमरमर की बेहतरीन मजार बनवाई. इस बाबत ट्रस्ट के सचिव ने कहा कि कोई सरकारी मदद मिलती नहीं है. पहले ट्रस्ट का चेयरमैन प्रधानमंत्री होता था तब देख-रेख हो जाती थी, लेकिन अटल जी के बाद ये परम्परा बदल गई. अब ट्रस्ट के पास इतना पैसा नहीं है और मौजूदा सरकारों से कोई उम्मीद नहीं है.