बाराबंकी: जिले का देवां शरीफ मजार गंगा-जमुनी तहजीब का मिशाल है. यह पर प्रदेश के विभिन्न जिलों से श्रद्धालु आते हैं. ऐसी मान्यता है कि नव वर्ष के पहले दिन, जो मजार पर माथा टेकता है. उसकी मुराद जरूर पूरी होती है. ऐसे में नव वर्ष के पहले दिन शुक्रवार को मजार पर श्रद्धालुओं की भीड़ रही.
सूफी संत का इतिहास
जानकारों के अनुसार हाजी वारिस अली शाह का जन्म हजरत इमाम हुसैन की 26 वीं पीढ़ी में हुआ था. उनके वालिद का नाम कुर्बान अली शाह था. सूफी संत वारिस अली शाह का जन्म पहले रमजान को हुआ था. बचपन में वह मिट्ठन मियां के नाम से जाने जाते थे. दो वर्ष के होने पर उनके पिता की मौत हो गई और तीन साल की उम्र में मां की भी मौत हो गई. उससे बाद उनकी देखभाल उनकी दादी और चाचा ने की.
सभी धर्मों के लोगों के बीच है मान्यता
ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने दो वर्ष की उम्र में ही कुरान याद कर लिया था. 15 वर्ष की उम्र में वह अजमेर शरीफ ख्वाजा गरीब नवाज के उर्स में शामिल होते हुए हज कर निकल गए. उन्होंने कई बार हज किया. सभी धर्मों के लोगों के बीच उनकी मान्यता है. उन्होंने हमेशा प्यार,मोहब्बत,एकता और भाईचारे का संदेश दिया. हाजी वारिस अली शाह लोगो को संदेश दिया करते थे कि, जो रब है वही राम है. वर्ष 1905 ईसवी में उनकी मौत हो गई.
कार्तिक माह में लगता है भव्य मेला
देवां में उनके हिंदू और मुस्लिम अनुयायियों ने मिलकर एक मजार का निर्माण कराया है. मजार पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है. जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग शामिल होते हैं. कहा जाता है कि हाजी वारिस अली शाह हर वर्ष कार्तिक के महीने में अपने पिता का उर्स किया करते थे, जिसकी परंपरा आज भी है. अभी भी कार्तिक महीने में मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं. करीब 15 दिनों तक चलने वाले इस मेले में कवि सम्मेलन, मुशायरा, मानस सम्मेलन, म्यूजिक कांफ्रेंस और खेत प्रतियोगिता सहित कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. मेले का आयोजन प्रशासन की देखरेख में किया जाता है. मेले में सरकार की योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए विभागीय प्रदर्शन भी लगाई जाती है.