बदायूं: राजा सहस्त्रबाहु कि नगरी कभी इत्र और केवड़े की खुशबू से सराबोर रहती थी. फूलों की खेती से यहां की जमीन हमेशा रंग बिरंगी दिखती थी. 1800 ई. में यहां बड़े पैमाने पर केवड़े और इत्र का व्यापार होता था. यहां पर बनने वाला प्राकृतिक इत्र दुनियाभर में अपनी पहचान बना चुका था, लेकिन फूलों की खेती और केवड़े के जंगल को एक बार भीषण आग का सामना करना पड़ा. उसके बाद यह व्यापार धिरे-धिरे बंद हो गया और सहसवान से इत्र की खुशबू खत्म हो गई.
पूरे भारत में प्रसिद्ध था सहजवान का इत्र
- पौराणिक तीर्थ स्थल सरसोता के समीप केवड़े के पेड़ों के मिलते हैं अवशेष.
- दंड झील के किनारे होती थी फूलों की खेती.
- मुख्य रूप से केवड़ा, गुलाब, मोगरा, चमेली, मोलश्री, जाफरान, सुरंगी, मजमून, चंदा, रात की रानी, हिना का होता था प्रयोग.
मुश्कबार के बंद होने से फिजाओं से गुम है खुशबू
इस व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए सन 1889 में हाजी सैयद अब्दुल मजीद ने यहां कुछ विदेशी तकनीक द्वारा एक कारखाना मुश्कबार के नाम से स्थापित किया. जिससे उत्पादित इत्र विदेशों जैसे अरब, इंग्लैंड, यमन, और मिश्र जैसे देशों में पहुंचने लगा और सहसवान इत्र की नगरी के नाम से जाना जाने लगा.
सुविधाएं न मिलने से बंद हुआ मुश्कबार कारखाना
काफी समय पहले फूलों की और केवड़े की खेती बंद होने के कारण कारखाना मुश्कबार भी बंद हो गया, जिसकी मशीनें आज भी है. सहसवान से इत्र का काम बंद होने का मुख्य कारण रहा कई वर्ष पहले भीषण आग किसानों को सरकारी सुविधा न मिलना. पुराने लोग आज भी उस खुशबू का एहसास करते हैं, जो कभी सहसवान की फिजाओं में बहती थी.