अयोध्या: दीपावली के बाद आने वाली इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं. आषाढ़ शुक्ल एकादशी की तिथि को देव शयन करते हैं और इस कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन उठते हैं. इसलिए इसे देवोत्थान (देव उठनी) एकादशी भी कहते हैं. कहा जाता है कि भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चार माह के लिए क्षीर सागर में शयन करते हैं. चार महीने पश्चात वह कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं. विष्णुजी के शयन काल के चार माह में विवाह आदि अनेक मांगलिक कार्यों का आयोजन निषेध है.
पूर्व सांसद डॉ. रामविलास दास वेदांती ने बताया कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है. मान्यता है कि कार्तिक मास में जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं. स्त्रियां कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती हैं. समस्त विधि विधान और गाजे-बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है. विवाह के समय स्त्रियां गीत तथा भजन गाती हैं.
जगद्गुरु रामानुजाचार्य रत्नेश जी महाराज कहते है कि दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं. तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल की नवमी ठीक तिथि है. नवमी, दशमी और एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को देना शुभ होता है. लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन तुलसी का विवाह करते हैं. तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है. शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती, वह जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें.
यह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलता है, इसलिए इसे भीष्म पंचक कहा जाता है. कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां या पुरूष निराहार रहकर व्रत करते हैं. इस दिन 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र से भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है. पांच दिनों तक लगातार घी का दीपक जलता रहना चाहिए. साथ ही 'ऊँ विष्णुवे नमः स्वाहा' मंत्र के साथ घी, तिल और जौ की १०८ आहुतियां देते हुए हवन करना चाहिए.
महाभारत से जुड़ी कहानी
महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शरशैया पर शयन कर रहे थे. उसी समय भगवान कृष्ण पांचों पांडवों को साथ लेकर उनके पास गये थे. ठीक अवसर मानकर युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से उपदेश देने का आग्रह किया. भीष्म ने पांच दिनों तक राजधर्म, वर्णधर्म और मोक्षधर्म आदि पर उपदेश दिया था. उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट हुए और बोले, 'पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया है, उससे मुझे बडी प्रसन्नता हुई है. मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूं. जो लोग इसे करेंगे, वह जीवन भर विविध सुख भोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करेंगे'.