लखनऊ :सपा-बसपा गठबंधन उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को एक बार फिर मंडल कमीशन के अखाड़े में घेरने की कोशिश कर रहा है. समाजवादी पार्टी हालांकि बेरोजगारी और किसानों की बदहाली को भी चुनावी विमर्श में शामिल करना चाहती है. मगर उसका असली फोकस भाजपा को सवर्ण समर्थक पार्टी करार देने में है. इससे जातीय समीकरण की धुरी भी मजबूत हो रही है.
लगभग 26 साल बाद सपा और बसपा में एक बार दोबारा जब गठबंधन हुआ है तो दोनों ही राजनीतिक दलों की मंशा मंडल कमीशन की राजनीतिक विरासत का इकलौता वारिस बनना है. पांच साल पहले पीएम मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सपा-बसपा से मंडल कमीशन की पुरानी राजनीतिक जमीन हिंदुत्व के एजेंडे पर छीन ली थी. राम लहर के बाद ऐसा पहली बार हुआ था जब जातियों में बंटे मतदाताओं ने खांचे तोड़कर भाजपा के पक्ष में वोट किया था और बसपा को लोकसभा से बाहर बैठने पर मजबूर कर दिया था. तब सपा भी केवल 5 सीटें जीत सकी थी. यही वजह है कि इस बार बसपा और सपा दोनों ने दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक गठजोड़ बनाने की दिशा में ठोस पहल की और मतदाताओं को भी मोदी मैजिक से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया है.
मंडल कमीशन के जातीय जनाधार पर दिल्ली पहुंचने का सपना देख रहे दोनों राजनीतिक दल लगातार भाजपा पर हमलावर हैं. उसे सवर्ण समर्थक पार्टी साबित करने में जुटे हैं. यही वजह है कि समाजवादी पार्टी अक्सर बेरोजगारी और विकास के मुद्दे पर भाजपा को घेरने की कोशिश करती है. मगर जब चुनाव में टिकट वितरण के जरिए राजनीतिक संदेश देने की बारी आती है तो सबसे ज्यादा मौका पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और दलित वर्ग की झोली में डाल देती है. इस तरह वह अपने दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक उत्थान के एजेंडे को परवान देने की कोशिश करती है. सपा-बसपा गठबंधन पर आरोप भी यही है कि विकास और बेरोजगारी को मुद्दा बनाने वाली पार्टी देश की नई दिशा का कोई रोड मैप अब तक तैयार नहीं कर सकी है.